सिलीगुड़ी, : इन दिनों डुवार्स–तराई क्षेत्र के चाय बागान मजदूर आंदोलनों को लेकर गर्म है। एक तरफ श्रमिक संगठनों के नेता वर्तमान में चाय श्रमिकों की दिहाड़ी 67 रुपए को नाकाफी मान रहे हैं तो दूसरी ओर बागान मालिक निर्यात बाजार में संकोचन और बढ़ी हुई लागत के चलते मजदूरी में आशानुरूप वृद्धि करने में खुद को असमर्थ बता रहे हैं। बागान मालिक संगठनों की एपेक्स बॉडी सीसीपीए के सूत्रों का कहना है कि अक्सर श्रमिकों की दिहाड़ी केवल नकदी के बतौर देखी जाती है। इस दिहाड़ी के साथ मजदूरों को मिलने वाली आवासीय, बिजली, जलावन और चिकित्सकीय सुविधाओं को जोड़ा नहीं जाता। इसका जायजा लेने गए संवाददाता ने चाय बागानों का एक आकलन प्रस्तुत किया है। इसके मुताबिक इस घोर महंगाई के जमाने में एक चाय श्रमिक की मजदूरी महज 67 रुपए है जबकि पहाड़ों में एक ही काम के लिए उन्हें 91 रुपए मिल रहे हैं। 67 रुपए के हिसाब से पंद्रह रोज में यह राशि पीएफ, हेल्थ, आवास व अन्य सुविधाओं के एवज में कट पिटकर 804 रुपए में सिमट जाती है। मजदूरी तीन साल के अंतर पर वेतन समझौते के तहत संशोधित होती है। इसी के तहत मालिकों ने इस बार प्रस्ताव दिया है कि एक साथ मजदूरी बढ़ाना उनके लिए संभव नहीं है। इसलिए वह आठ रुपए वार्षिक दर से तीन साल के लिए 24 रुपए बढ़ा सकते हैं। इस तरह से यह राशि 91 रुपए तक पहुंचती है। वैसे कहने को तो मजदूरों के लिए मालिकों ने आवासीय से लेकर जलावन, बिजली व पेयजल की सुविधाएं मुहैया कराई हैं। लेकिन हकीकत देखने पर पता चलता है कि जमीनी सच्चाई कुछ और ही बयान करती है। मजदूरों के साथ हुए समझौते के मुताबिक न्यूनतम मजदूरी के तहत रियायती दर पर राशन, पेयजल की आपूर्ति, स्वास्थ्य सेवा, जलावन और इन सब का रखरखाव भी शामिल है। लेकिन जमीनी स्तर पर देखा जाता है कि यह व्यवस्था भी इतना लचर है कि उसे शब्दों में बांधना मुश्किल है। पंद्रह दिनों की दिहाड़ी में से श्रमिकों को 67 रुपए की दर से केवल 12 रोज की ही मजदूरी दी जाती है। यह राशि 804 रुपए होती है। इसके बाद मजदूर के हाथ में केवल 500-600 रुपए बच जाते हैं। अब इसी राशि में मजदूर को अपना व अपनी बीवी व बच्चों का पेट पालने से लेकर उनकी शिक्षा पर खर्च करना पड़ता है। इसी में उसे दवा का खर्च भी उठाना पड़ता है, चूंकि बागान के अस्पताल में दवाएं बहुत कम ही रहती हैं। ज्यादातर दवाएं बाहर से ही खरीदनी पड़ती है। इस दौर में उसका केवल एक ही संबल होता है जब बागान में पत्ती की भरमार होती है। उस दौर में चायपत्ती तोड़ने के लिए उसे अतिरिक्त आय हो जाती है। इस अतिरिक्त कार्य के लिए भी मजदूरी निर्धारित है। प्रथम छह किलो तक एक रुपए प्रति किलो और उससे अधिक तोड़ने पर डेढ़ रुपए प्रति किलो की दर से मजदूरी मिलती है। ऐसा अवसर वर्ष में तीन से चार माह तक आता है। बाकी महीनों में मजदूर गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए अपना बोनस, ग्रैच्यूटी, पीएफ तक महाजनों के पास गिरवी रख देते हैं। मजदूर की पूरी जिंदगी कर्ज में डूबी रहती है। इस बीच यदि वह किसी गंभीर रोग का शिकार हो जाता है तो उसके लिए धीमी मौत का इंतजार करने के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाता। जिस राशन की दुहाई प्रबंधन देता है उसमें भी कई तरह की खामियां हैं। बागान श्रमिकों को 40 पैसे प्रति किलो की दर से चावल, गेहूं या आटा दिया जाता है। एक मजदूर को सप्ताह में एक किलो चावल, दो किलो 220 ग्राम गेहूं या आटा और पत्नी के लिए एक किलो चावल, एक किलो 440 ग्राम आटा, बच्चों के लिए 500 ग्राम चावल और 720 ग्राम आटा मिलता है। यह व्यवस्था भी बहुत से बागानों में लचर है। आए दिन राशन को लेकर मजदूरों और प्रबंधन के बीच विवाद लगा रहता है। पेयजल की आपूर्ति व्यवस्था भी सही नहीं है। कई जगह पाइप साठ से सत्तर साल पुराने हो चुके हैं। रोज पाइप की मरम्मत होती है और वह रोज टूटते हैं। बागानों में आज भी कच्चे कुएं का पानी प्रयोग में लाया जाता है। कहीं तो नदियों का पानी परिष्कृत किए बिना सीधे आवासों में पहुंचाया जाता है। मजदूरों की आवासीय सुविधा का हाल भी बेहाल है। एक आवासीय घर नियमानुसार 350 वर्ग फीट का होना चाहिए। हालांकि कई जगह ये घर 21 बाइ 10 फीट के ही हैं। जबकि बहुत से मजदूरों को यह भी नसीब नहीं है।साभार–दैऩिकजागरण