टी बोर्ड ऑफ इंडिया चाय उद्योग से जुड़े मजदूरों के कल्याण के लिए विभिऩ्न प्रकार से आर्थिक सहायता उपलब्ध करता है। ऐसे विद्यालय जहाँ कम से कम 25 प्रतिशत चाय मजदूर शिक्षा प्राप्त करते हैं, वहाँ विद्यालय बनाने के लिए और उसमें विस्तार-निर्माण करने के लिए बोर्ड 70 प्रतिशत राशि तक की राशि प्रदान करता है। चाय मजदूरों के बच्चों की शिक्षा के लिए बनने वाले होस्टल के लिए भी बोर्ड इसी मात्रा में सहायता राशि उपलब्ध कराता है। इसके अलावा मेडिकल और चिकित्सा ढाँचागत विस्तार के लिए बोर्ड सहायता उपलब्ध कराता है। चाय उद्योग के मजदूरों के बच्चों को शिक्षण सहायता के ऱूप में वजिफा, स्टैपेण्ड आदि भी दिए जाते हैं।
जलपाईगुड़ी जिले का साधारण निवासी होने के बावजूद मुझे आज तक ऐसी कोई सूचना नहीं मिली है कि जिले के किसी विद्यालय को टी बोर्ड से विद्यालय और होस्टल बनाने के लिए सहायता राशि प्राप्त हुई है। कम से कम किसी हिन्दी स्कूलों को मिली सहायता राशि की मुझे जानकारी नहीं है। एक मामूली आदमी होने के कारण मुझे हर बात की जानकारी नहीं रहती है। लेकिन आदिवासी शिक्षा के लिए कई स्कूल मौलिक निर्माण और विस्तारण के लिए सहायता राशि की खोज में थे, ऐसी बातें अपनी जानकारी में थी। चाय उद्योग में अनेक संस्थाएँ चाय मजदूरों के कल्याण में लगे हुए हैं, शायद उन्होंने इस दिशा में कोई कदम उठाया हो। सबसे अहम बात है कि बोर्ड रोजगारमूलक प्रशिक्षण के लिए संस्थान बनाने के लिए सहायता राशि प्रदान करता है। लेकिन मेरी नजर में अभी तक कोई प्रशिक्षण संस्थान नजर नहीं आया है, जो चाय बागानों के आदिवासी युवक-युवतियों को प्रशिक्षण प्रदान कर रहा हो। क्षेत्र के खेल प्रतिभाओं को बोर्ड के पैसे से प्रोत्साहन दिए गए हों, ऐसी जानकारी भी नहीं है मुझे। यह ठीक है कि मैं बहुत अदना सा आदमी हूँ और महत्वपूर्ण बातों से वाकिफ नहीं रहता हूँ। लेकिन मैंने कई महत्वपूर्ण लोगों से इस बारे जानकारी प्राप्त करना चाहा, लेकिन सफल नहीं हुआ। मेरे मन में कई सवाल उमड़ घुमड़ रहे हैं। कभी मैं अपने मान्यवर नेताओं को देखता हूँ। कभी मैं उनके वादों को याद करता हूँ। कभी मैं प्रशासन को देखता हूँ। मैं टी बोर्ड के कल्याण अधिकारी को भी देखना चाहता हूँ और पश्चिम बंगाल के स्थानीय और जिला कल्याण अधिकारी को भी देखना चाहता हूँ। लेकिन अदनापन के कारण मेरे सवाल मेरे मन में ही दबे जा रहे हैं। जिला कल्याण अधिकारी किस तरह के कल्याणकारी कर्मों में रत रहते हैं ? क्या उनका कोई बजट होता है ? क्या वह कल्याण संबंधी कोई वार्षिक रपट बनाता है ? यदि बनाता है तो किस तरह के विवरण वह देता है ? क्या उन रपटों में चाय मजदूरों के बच्चों के जीवन में आए किसी परिवर्तण की बातें भी लिखी जाती है? कई सवाल है, लेकिन मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। टी बोर्ड़ प्रति वर्ष कितने संस्थानों को आर्थिक मदद पहुँचाता है? आर्थिक मदद पाए संस्थानों के नाम क्या है? वे कहाँ के संस्थान हैं? उन संस्थानों में कितने चाय मजदूरों के बच्चे पढ़ते हैं? सवाल तो आखिर सवाल ही होते हैं, वे तो पैदा होते ही रहते हैं। लेकिन इसका जवाब कौन देगा। यह भी एक सवाल है। क्या आप भी कुछ सवालों से दो चार होना चाहते हैं तो आइए पहले डुवार्स और तराई के चाय मजदूरों के जीवन का अवलोकन कीजिए फिर टी बोर्ड के इन पन्नों में जाइए http://teaboard.gov.in/l_welfare.asp पिछले कई सालों से बागान स्कूलों से अपनी कक्षाएँ पास करने के बाद विद्यार्थी हाई स्कूलों में दाखिला पाने के लिए यहाँ-वहाँ धक्के खाते हैं, क्योंकि हाई स्कूलों में जगह की कमी के कारण अधिक बच्चों का दाखिला नहीं हो पाता हैं। अनेक बच्चे दाखिला नहीं मिलने के कारण या तो दूर दराज के स्कूलों में दाखिला लेने के लिए मजबूर होते हैं या दाखिला नहीं मिलने पर पढ़ाई ही छोड़ देते हैं। पिछले वर्ष ही आदिवासी विकास परिषद ने इसी मामले को लेकर आंदोलन किया था। उच्च विद्यालयों की कमी और मौजूद विद्यालयों में ढाँचागत सुविधाओं की कमी से आदिवासी बच्चों की पढ़ाई पर असर पड़ रहा है। लेकिन सरकारी संस्थानों की सहायता लेकर समस्या को सुलझाने का प्रयास नहीं हो रहा है। या तो संबंधित नागरिकों को संस्थानों के कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी नहीं है अथवा उनमें इन संसाधनों के बल पर ढाँचागत विकास करने की इच्छाशक्ति नहीं है। कारण कुछ भी रहा हो। यह एक सोचनीच दुखदायी स्थिति है। टी बोर्ड में आयोजित होने वाली बैठकों में चाय उद्योग से जुड़े अधिकारी, नेतागण हमेशा शामिल होते हैं। उऩ्हें डुवार्स और तराई की शिक्षा समस्याओं की भी जानकारी है। लेकिन गरीबों की समस्याओं पर किसी ने भी कोई ध्यान अभी तक नहीं दिया है। शिक्षा क्षेत्र में ढाँचागत कमी का फायदा ओपन स्कालों के द्वारा शिक्षा देने का झांसा देने वाले उठा रहे हैं। छोटे-छोटे दबड़ेनुमा कमरों में अर्धशिक्षित अप्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा ओपन स्कूल के पाठ्यक्रम भारी फीस लेकर पढ़ाए जाते हैं, जहाँ आदिवासी बच्चे विकल्पहीन होकर दाखिला लेते हैं। उचित शिक्षा व्यवस्था की कमी से शिक्षा लेने के लिए ललयित बच्चे अर्द्धशिक्षित रह्कर जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। सरकार कल्याणकारी प्रावधान बना कर सो गई और आदिवासियों के रहनुमा कल्याणकारी नारे लगा कर सो गए हैं।