समता जजमेंट लागू करने पर विचार

 रांची : जनजातीय समुदाय के जीवन को विकास से जोड़ते हुए परंपरागत पहचान कायम करने पर सरकार ने जोर दिया है। झारखंड जनजातीय परामर्शदातृ परिषद की 9वीं बैठक में इस बाबत परामर्श और सुझाव पर परिषद के अध्यक्ष सह राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने हामी भरी। विधायक कमल किशोर भगत ने जब आंध्रप्रदेश के मशहूर समता जजमेंट को झारखंड में लागू करने का सवाल उठाया तो उन्होंने कहा कि इस पर गंभीरता से विचार होगा। मुंडा ने बारी-बारी से तीन सत्र में बैठक को बांटकर सिलसिलेवार सबकी बातें सुनीं। सबसे पहले अनुसूचित क्षेत्रों में विधि-व्यवस्था की समीक्षा की गई। गृह सचिव जेबी तुविद ने विषयवार आंकड़ा प्रस्तुत किया। साथ ही अनुसूचित क्षेत्रों की गंभीर समस्याओं पर भी सरकार का ध्यान खींचा। पलायन, विस्थापन, बेरोजगारी की चर्चा की। कहा, जिन इलाकों में आबादी का ज्यादा दबाव है, वहां आदिवासी जमीन पर अतिक्रमण के मामले बढ़े हैं। नक्सलवाद सबसे बड़ी समस्या है। आदिवासी-हरिजन थानों में आ रहे मामलों की भी चर्चा की। बताया, गुमला में डायन हत्या के सबसे ज्यादा मामले आते हैं। मामले के अनुसंधान में आ रही दिक्कतों का भी जिक्र हुआ। अनुसंधान अधिकारी डीएसपी के बजाय इंस्पेक्टर स्तर के पदाधिकारी को बनाने की मांग उठी क्योंकि डीएसपी स्तर के पदाधिकारियों की घोर कमी है। भूमि सुधार एवं राजस्व सचिव एनएन पांडेय ने जमीन के कब्जे को बड़ी समस्या बताया। पूरे राज्य में आदिवासियों की जमीन बेदखली के 4000 से ज्यादा मामले हैं। इसे तेजी से सुलझाने की कोशिश हो रही है। वन अधिकार अधिनियम को सख्ती से लागू करने का दावा करते हुए उन्होंने कहा कि केंदू पत्ता का अधिकार पंचायतों को देने की पहल की जा रही है। कल्याण सचिव एल खियांग्ते ने एमपी और एपी मॉडल की चर्चा की। मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया कि दोनों राज्यों की तर्ज पर बनाए जाने वाले नियमों की रूपरेखा बनाकर विभाग दे। अगस्त में प्रस्तावित अगली बैठक में इस पर विचार होगा।साभारदैनिकजागरण

कब सच होगा झारखंडियों का अपना घर का सपना

अशोक झा,
सिलीगुड़ी: उत्तर बंगाल में 258 चाय बागान में कार्य करने वाले पांच लाख श्रमिक परिवारों का अभी भी अपना घर का सपना पूरा नहीं हो पाया है। इसे सच करने के लिए उनके पूर्वजों ने आंखें मूंद लीं। श्रमिक पीढ़ी-दर पीढ़ी बागान के श्रमिक क्वार्टर में अपना जीवन व्यतीत करते आ रहे हंै। यहां इन्हें हाथी के हमले और बरसाती जीव जंतुओं के हमलों का सामना करना पड़ता है। कल के अशिक्षित चाय श्रमिक बच्चे अब धीरे-धीरे शिक्षित हो रहे हैं। इसका उपयोग आज तक वोट बैंक के रुप में किया जाता रहा है। चाय श्रमिकों के लड़के स्वयं तथा अपने परिवार को दोयम दर्जे का जीवन नहीं बिताने देने पर अड़े हंै। वे चाहते हैं कि उनका भी छोटा सा अपना घर हो, जिसे वह सजा संवार सके। वर्ष 2003 के सितंबर में नौकरी के सवाल पर चाय बगान श्रमिक दलगाव में 19 लोगों को जिंदा जलाने से भी पीछे नहीं हटे थे। झारखंड से दो सौ वर्ष पूर्व बंगाल आए आदिवासियों को झारखंडी या मधेशिया कहकर संबोधित किया जाता है। वे अपनी पहचान के लिए आंदोलन के लिए बाध्य हैं। आदिवासियों के हक में आवाज उठाने वाले कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को भी आदिवासियों की समस्या से रु-ब-रु कराया गया। मिला सिर्फ आश्र्वासन। आश्चर्य की बात है कि चाय श्रमिकों को केंद्र सरकार द्वारा प्रदत्त इंदिरा आवास योजना का लाभ भी नहीं मिल पाया है। इसकी मुख्य वजह है श्रमिकों के नाम जमीन का पट्टा अब तक नहीं हो पाना। बागान में हर वर्ष दस प्रतिशत आवास की मरम्मत होती है, जो इस वर्ष नहीं हो पाई है। आवास, पेयजल और रोशनी की व्यवस्था के साथ श्रमिकों के दैनिक मजदूरी में वृद्धि कराने के लिए अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद ने मुहिम छेड़ी है। वामो के शासन काल में जिन मुद्दों की आवाज चाय श्रमिक उठाते थे उन्हीं मुद्दों को लेकर सीटू बंगाल की नई सरकार को घेरने की तैयारी में है। 21 जून को उत्तर बंगाल के दौरे पर श्रममंत्री आने वाले हैं। उनसे इस समस्या के समाधान के संबंध में चर्चा होने की संभावना है। पूर्व मंत्री अशोक नारायण भट्टाचार्य का कहना है कि चाय बागान टी बोर्ड के तहत काम कर रहा है। बार-बार इस संबंध में केंद्र से श्रमिकों के आवास के लिए जमीन मुहैया कराने की मांग की गई मगर इस दिशा में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई। अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के प्रदेश अध्यक्ष बिरसा तिर्की का कहना है कि नई सरकार से हमारी मांग है कि कि जिस तरह से सिंगूर की भूमि के लिए बिल पारित कर गरीबों में वितरण करने की घोषणा की है उसी तरह से चाय बागान में रहने वाले श्रमिकों के लिए अपना घर बनाने की पहल करे। नई सरकार के पास यक्ष प्रश्न है कि क्या पूरी उम्र बिताने के बाद भी चाय श्रमिक अपने बच्चों को यह कह पाएंगे कि यह तुम्हारा अपना घर है? साभारदैनिकजागरण