क्यों नहीं पनपता आदिवासी मीडिया

नेह इंदवार 

आदिवासी समाज में मीडिया क्यों नहीं पनपता है ? 

किसी पिछडें समाज में मीडिया को अबाध रूप में चलाना आसान नहीं है। इसके लिए मीडिया को समाज की निरंतर क्रियात्मक सक्रिय समर्थन, सहारा की आवष्यकता होती है। लेख, रचनाएँ, कहानी, कविताएँ तथा जॉंच पडताल करके उचित रूप में सम्पादन करके रिपेर्ट तैयार करने वालों की आवष्यकता हर अंक के प्रकाशन के लिए बहुत जरूरी है।

पाठक यदि सामाजिक कार्य, उद्देश्य तथा अभियान समझ कर पत्रिका की खरीदी, अध्ययन नहीं करेगा तो पत्रिका का प्रकाषन का उद्देष्य पूरा नहीं होगा। फिर पत्रिका का मूल्य चुकाना भी अत्यंत जरूरी है। यदि कोई आदिवासी पत्रिका को प्राप्त करेगा और उसका मूल्य भी नहीं चुकाएगा और उसे मुफ्त में प्राप्त करना चाहेगा तो जाहिर है कि पाठक अपने सामाजिक कर्तव्य को पूरा नहीं कर रहा है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि ऐसे ही मानसिकता के कारण आदिवासी समाज में मीडिया को प्रोत्साहन, समर्थन और सहारा नहीं मिलता है और उत्साह के साथ सामाज के विकास, उत्थान के लिए निकालने वाली पत्रिकाएँ अपनी निरंतरता बनाए नहीं रख पाती है। ऐसी मानसिकता समाज को आगे बढने से रोकती है और समाज में किसी भी तरह के नये काम को शुरू करने में बाधा उत्पन्न करती है। ऐसेी मानसिकता वाले सिर्फ समाज के विकास की बातें ही कर सकते हैं, वास्तविक रूप में समाज के विकास में सहायक नहीं होते हैं। कह सकते हैं अपने संकुचित दिमाग और कंजूसी से वे समाज को पीछे खीचने में अपनी उर्जा लगाते हैं। समाज में मीडिया को बढावा देने के बदले नुकसान पहॅुंचाने वालों से समाज और सामाजिक मीडिया के साधनों को बचाना हर सचेत और संवेदनषील व्यक्ति का कर्तव्य होता है।

जनसंचार के माध्यमों को पूरे देष में सिर्फ उद्योगपति और बडे बडे पूॅंजीपति ही चलाते हैं। एक सामान्य अखबार निकालने में दो से पॉंच करोड़ रूपये की पूॅंजी लगती है। बिजनेस और लाभ कमाने के लिए निकलने वाली पत्रिकाओं के संचालन के लिए भी चालीस पचास लाख रूपये की पूॅंजी की आवष्यकता होती है।

भारी संख्या में निकलने वाली इन व्यावसायिक पत्रिकाओं के आय का प्रमुख साधन बडी कंपनियों से मिलने वाला विज्ञापन होता है। इन कंपनियों में कई दर्जन लोग दिन और रात काम करते हैं। इसके प्रचार प्रसार के अपने नेटवर्क होते हैं। पचास रूपये की लागत से छपने वाली पत्रिकाएँ ये बीस पच्चीस रूपये में बेच पाते हैं क्योंकि इनके आधे से अधिक पेजों में विज्ञापन छपे होते हैं, जो इन पत्रिकाओं के संचालन की रीढ की हड्डी होती है। आदिवासी पत्रिकाओं की कहानी इसके ठीक उलट होती है। इसे कोई पूॅंजीपति नहीं निकालते हैं। प्रथम तो कोई पूॅंजीपति कभी आदिवासी पत्रिका निकालेगा ही नहीं, क्योंकि उसकी पत्रिका के लिए आदिवासी समाजों में पर्याप्त पाठक वर्ग नहीं होते हैं और आदिवासी समाज गरीब होने के कारण कोई भी कंपनी अपने उत्पाद का विज्ञापन ऐसी पत्रिकाओं में कभी नहीं देगा। अर्थात् आदिवासी समाज के लिए पत्रिका निकालना उनके लिए फायदेमंद नहीं होंगा। भारतीय मीडिया तथाकथित सवर्ण वर्ग के हाथों में सिमटी हुई है, और जातिवादी भावना से ग्रस्त उनकी मानसिकता आदिवासी विरोधी है। 

आदिवासी पत्रिकाओं का प्रकाशन अपने समाज की आवष्यकता की बात सोच कर खुद उत्साही आदिवासी ही निकालते हैं। वे अपने सीमित आय और अपने दोस्तों के सहयोग से इस तरह के सामाजिक कार्य को द्रुत गति देने के लिए निकालते रहे हैं। समाज में अब तक अनेक पत्र पत्रिकाएँ प्रकाषित हुई है। अगुवा, नवा इंजोत, नवा पडहा, वीर बिरसा, आदिवासी टाइम्स आदि निकली लेकिन समाज का समर्थन नहीं मिलने के कारण बंद हो गई। समाज में किसी पत्र पत्रिकाओं का नहीं होना अत्यंत नुकसान दायक होता है। दूसरे समाजों के साथ आदिवासी समाज के विकास की तुलना करें तो इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है।

मीडिया समाज में अगुवा की भूमिका निभाता है। वह समाज की एक बुलंद आवाज बन कर समाज के हित में अपनी बात रखता है। यह एक ओर जहॉं समाज के विकास की बातें करता है वहीं सामाजिक बुराईयों, अन्याय, शोषण, अत्याचार पर एक सशक्त आवाज भी उठाता है और समाज को इससे निपटने के उपाय भी बताता है। मीडिया ने इस देश को स्वतंत्र करने में अपनी महत्ती भूमिका निभायी थी। इसीलिए अंग्रेजों ने मीडिया पर तमाम बंधन डाला था। हर समाज अपने विकास के लिए अपने सामाजिक मीडिया को मजबूत करने के लिए आगे बढ़ता है और इसका लाभ उसे तुरंत मिलता भी है।

आदिवासी मीडिया समाज में बुद्धिजीवियों का निमार्ण करता है। हमें याद रखना चाहिए कि जब समाज पिछड़ा होता है तो समाज में नेतृत्व का डोर पकडे लोग भी पिछडे़ ही होते हैं। पिछडे़ नेतृत्व से पिछड़ा समाज द्रुत रूप से आगे नहीं बढ़ सकता है। समाज जब सजग होता है तो उसे सजग और सक्षम नेतृत्व प्राप्त होता है। जिस समाज में जितनी ही सजगता बढे़गी, उतना ही समाज में बुद्धिजीवियों का निमार्ण होगा और बुद्धिजीवी नेतृत्व समाज को प्राप्त होगा। किसी भी विकसित समाज को देखें उनके बीच अत्यंत सक्षम नेतृत्व उपलब्ध रहता है और वे अपने समाज को हर तरह से सक्षम नेतृत्व प्रदान करते हुए हर क्षेत्र में समाज को प्रगति करने के लिए अवसर प्रदान करते हैं। मीडिया की मौजुदगी के बिना ऐसी स्थिति नहीं बनती है। सामाजिक मीडिया किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती है। वह सम्पूर्ण समाज का अपना सामूहिक सम्पदा होता है। सामाजिक मीडिया का सक्रिय समर्थन और सहारा करना और उसके साथ जुड़ने की प्रक्रिया से ही समाज में नव चेतना का विकास हो सकता है और यही चेतना ही समाज को आदिवासियत के साथ आगे ले जाएगा।

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