बागान घर का पट्टा

👀🌷#Kind_Attention_Dooars_Terai :- ( लेख लम्बा है लेकिन #Land_Patta के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है)

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नेह इंदवार
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👉 डुवार्स और तराई के करीबन 300 चाय बागान 140,000 हेक्टेयर भूमि में फैला हुए हैं। अधिकतम भूमि का असली मालिक पश्चिम बंगाल सरकार है, और चाय बागानों को #चाय_की_खेती के लिए 30 वर्ष के लीज पर जमीन देती है। इसके अलावा भी अनेक चाय बागान प्रबंधनों ने आदिवासी-नेपाली कृषकों को बहला-फुसला कर उनकी भूमि को अवैध रूप से चाय बागान में मिला लिया है और चालाकी से उन्हें स्वतंत्र कृषक से चाय बागान का मजदूर बना दिया है। अनेक चाय बागान अपनी पूरी लीज जमीन में चाय की खेती करने में असमर्थ हैं, वहीं अनेक बागान लीज से अधिक भूमि पर चाय की खेती कर रहे हैं। जमीन लीज शर्तों के अनुसार यदि कोई कंपनी किसी लीज भूमि पर पाँच वर्षों के भीतर चाय की खेती नहीं कर पाता है तो वह जमीन अपने आप सरकार के खाते में चली जाएगी। लेकिन कई बागान 50-100 वर्ष बाद भी मजदूरों से धान फसल वाले खेतों को छीनने की कोशिश करते रहते हैं।

. 🍀👉राज्य सरकार की नीतियों के अनुसार सरकारी भूमि का अबंटन कृषि और आवास के लिए दिया जा सकता है। आइए देखते हैं कि कानून में भूमि संबंधी क्या प्रावधान है ?

. 🍀आवासहीन, भूमिहीन, गरीब जनता, जिनका आवास के लिए अपना कोई भूमि नहीं है, इसके अलावा जिनके पास कृषि कार्य के लिए भी भूमि नहीं है, के लिए The West Bengal Land and Land Reforms Manual कहता है :- (देखें West Bengal Land and Land Reforms Manual Chapter XIII- Settlement of agriculture at the disposal of government) Section 190 कहता है :- 👉“The area of land that may be settled with a person for the purpose of homestead having no homestead of his own shall not exceed 5 cottahs or 0.0335 hectare. अर्थात् जिस व्यक्ति के पास अपने आवास के उद्देश्य के लिए कोई आवासीय भूखण्ड नहीं है, उन्हें अधिकतम #5 कट्टा (5 cottahs or 0.0335 hectare) भूमि आबंटित किया जा सकता है। . 🍀👉लेकिन इसी कानून के सेक्सन 193 (नीचे अंग्रेजी में पढ़ें) के तहत कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति या ऐसे किसी भी व्यक्ति के परिवार के सदस्य के साथ जो किसी भी व्यवसाय, व्यापार, उपक्रम, निर्माण, कॉलिंग, सेवा या औद्योगिक व्यवसाय में लगे हुए हैं या कार्यरत हैं, को कोई भूमि आबंटित नहीं की जाएगी। हालांकि यह एक #खेतिहर_मजदूर, कारीगर या मछुआरों पर लागू नहीं होता है।

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👉Section 193 कहता है :- no land can be distributed under sections 49 (1) any person or with a member of the family of any such person who is engaged or employed in any business, trade, undertaking, manufacture, calling, service or industrial occupation. This does not, however, apply to an #agricultural_labourers, artisan or fishermen.

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👉चाय बागानों की सरकारी लीज भूमि के संभावित आबंटन के विरोधी West Bengal Land and Land Reforms Manual Chapter XIII के इस प्रावधान का तर्क देते हैं।

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👉वहीं राज्य West Bengal Estate Acquisition Act, 1953, के अनुसार –“The land can only be leased out for #tea_cultivation. The lessee or the company, without reducing the Plantation Area, may use the land for horticulture and growing medicinal plants on an area not more than 3 per cent of the total grant area of the garden.

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👉अर्थात् #चाय_की_खेती के लिए भूमि को केवल पट्टे पर दिया जा सकता है। प्लांटेशन एरिया को कम किए बिना पट्टेदार या कंपनी, बागवानी के लिए भूमि का उपयोग कर सकती है और बगीचे के कुल अनुदान क्षेत्र का 3 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र पर औषधीय पौधों (के एरिया) को नहीं बढ़ा सकती है।

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👉इस कानून में साफ कहा गया है कि सरकार #चाय_की_खेती के लिए भूमि को पट्टे पर देती है। यहाँ जमीन किसी व्यापार, व्यवसाय, विनिर्माण आदि के लिए नहीं दी जाती है। चाय बागान को #चाय_की_खेती_कहा_गया है। चाय मजदूर भी चाय के खेतों में काम करने वाले #खेतीहर_मजदूर हैं।

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👉उपरोक्त दो अनुच्छेद से यह स्पष्ट है की चाय बागान के औद्योगिक कार्यकलापों को सरकार #एग्रीकल्चर_सेक्टर के कार्यकलाप मानती है। चाय बागान के लिए एरिया में 03% से अधिक भूमि में चाय के सिवाय और किसी भी अन्य नगदी फसलों को नहीं उगाया जा सकता है। 97 % क्षेत्र को चाय उत्पादन के लिए उपयोग करना बाध्यकारी रूल्स है।

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👉पुनः आईए देखते हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार की नजरों में चाय बागान कौन से सेक्टर का कार्यकलाप है ? 30 जनवरी 2018 को पश्चिम बंगाल राज्य के वित्त मंत्री श्री अमित मित्र का पश्चिम बंगाल विधानसभा में राज्य बजट पेश करते समय दिए गए एक बयान पर गौर करें :-👉in a bid to help revive the tea industry, the West Bengal government has fully exempted tea garden from 👉#payment_of_agriculture_income_tax for two fiscal year (2019 and 2020).

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👉डुवार्स तराई के सभी मित्र इन्हें नोट करें कि पश्चिम बंगाल राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्र जी चाय बागानों को #एग्रीकल्चर_इनकम टैक्स से छूट दे रहे हैं। मतलब चाय बागान Agriculture Sector है।

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👉उपरोक्त का संक्षिप्त अर्थ यह हुआ कि चाय बागान क्षेत्र #एग्रीकल्चर_सेक्टर क्षेत्र है और यह manufacture, service or industrial sector नहीं है।

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👉इसलिए चाय बागान के भूमिहीन आवास हीन मजदूरों को सरकारी भूमि को आवास बनाने के लिए प्राप्त करने का हक है और वह इसके पात्र हैं। इस मामले में किसी भी तरह की कोई कानूनी अड़चन नहीं है।

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👉ममता बनर्जी की सरकार ने चाय बागानों में रहने वाले भूमिहीन, आवासहीन चाय मजदूरों को आवास के लिए भूमि पट्टा देने का वादा किया हुआ है। ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव के मौके पर सुभाषिनी चाय बागान, टियाबोन (चालसा) तथा कुमारग्राम में दिए अपने चुनावी भाषण में घोषणा की थी कि जल्द ही चाय बागान मजदूरों को आवासीय लीज दिए जाएँगे। इसके लिए ममता दीदी ने राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक समिति गठन करने का भी आदेश दिया था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि सत्ताधारी नेतागण इस मामले में कानूनी अड़चन आड़े आने की बात करके इसे टालते रहे हैं। उत्तर बंगाल से निर्वार्चित विधायक और एमपी राज्य सरकार से पूछें कि ममता बनर्जी द्वारा मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित समिति ने आवास पट्टा के संबंध में क्या रिपोर्ट दी है। इसे विधानसभा में पूछना ज्यादा उचित है।

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👉उपरोक्त जानकारी के आलोक में चाय मजदूर सरकार और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं से पूछ सकते हैं कि वे चाय मजदूरों को आवास अधिकार के तहत भूमि का पट्टा क्यों नहीं दे रहे हैं???

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👉चाय मजदूर 1868 से ही डुवार्स के चाय बागानों में बस गए हैं। The Plantation Labour Act 1951 के पूर्व चाय बागानों में क्वार्टर देने का कोई कानूनी प्रावधान नहीं था। ब्रिटिश शासन के दौरान चाय मजदूर अपने झोपड़ियों का प्रबंधन खुद करते थे और इसके लिए वे चाय बागानों के बगल के जंगलों को साफ करके अपने गाँव बसाए थे। Transport of Native Labourers Act of 1863, the Bengal Acts of 1865 and 1870, the Inland Emigration Act of 1893, the Assam Labour and Emigration Acts of 1901 and 1915, और the Tea Districts Emigrant Labour Act of 1932 के द्वारा Indentured Labour चाय बागानों में लाए जाते थे।

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.👉तब Agreement करके उन्हें असम और बंगाल लाए जाते थे। एग्रिमेंट में 1) तीन साल के लिए कार्य करने की सीमा (विदेश के मामले पर यह पाँच साल) 2) उचित वेतन का भुगतान 3) रहने की अपनी जगह का उल्लेख होता था। एग्रीमेंट में ये प्रावधान होने के बावजूद मजदूरों को खुद जंगल साफ करके अपने रहने की जगह बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। क्योंकि तब के जमाने में जमीन बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध हुआ करती थी और बागान के आसपास बहुत बड़े-बड़े जंगल होते थे, जहाँ से ब्रिटिश सरकार को कोई मालगुजारी या टैक्स आदि नहीं मिलते थे। इसी कारण आदिवासी और गोर्खा मजदूर अपने रहने के लिए भूमि की व्यवस्था खुद करते थे। उनके गाँव-जमीन से बागान प्रबंधन का कोई लेना देना नहीं था। लेकिन The Plantation Labour Act 1951 में क्वार्टर देने के प्रावधान बन जाने के कारण मजदूरों के गाँव की जमीन को West Bengal Estates Acquisition Act, 1953. Act 1 of 1954 द्वारा अधिकृत करके चाय बागान मालिकों को सौप दिए गए और बागान प्रबंधन ने वहाँ मजदूर क्वार्टर बनाए। लेकिन 70 वर्ष बीत जाने के बावजूद सभी चाय मजदूरों को न तो क्वार्टर मिला और न ही बने क्वार्टरों का कोई रखरखाव किया गया। फलतः मजदूर बाध्य होकर अपने पैसों से घरों का रखरखाव करने लगे हैं।

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👉केन्द्र सरकार ने सन् 2022 तक सभी नागरिकों को आवास मुहैया करने का ऐलान किया है। (सांसद महोदय इस बारे केन्द्र सरकार से पत्रचार करें) राज्य सरकार भी विभिन्न आवास योजनाओं के माध्यम से गरीबों, बेघर वालों को आवास उपलब्ध करा रही है। चाय बागानों में स्थानीय सरकार अर्थात् त्रिस्तरीय पंचायत के माध्यम से नागरिक सुविधाएँ मिल रही है। चाय बागान प्रबंधन The Plantation Labour Act 1951 के प्रावधान से बंधे होने के कारण मजदूर बस्तियों के कर्तव्य से खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में राज्य सरकार को इस संबंध में केन्द्र सरकार के साथ परामर्श करके तुरंत निर्णय लेकर चाय मजदूरों को आवासीय भूखंड उपलब्ध कराए।

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👉अलिपुरद्वार, कुचबिहार, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग के सांसद असम, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु के सांसदों से मिल कर टी प्लान्टेशन एक्ट में क्वार्टर देने के प्रावधान को निकालने या उसे वैकल्पिक बनाने के लिए संसद में बिल पेश कर सकते हैं।

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👉ग्राम पंचायत के ग्राम संसद 💪 में सभी मजदूर, मजदूर संघ और अन्य नागरिक शामिल हो कर घर के पट्टा देने के लिए बागानों में स्थित पंचायतों में प्रस्ताव पास कर सकते हैं, जिसे राज्य और केन्द्र सरकार को भेजा जा सकता है। इस लेख को अधिकतम शेयर, ह्वाट्सएप, ईमेल करें नेह_इंद। Published
2021/05/31 at 10:14 pm

आदिवासी समाज के साथ भद्दा मजाक

भाजपा और टीएमसी चाह बगानियार और आदिवासियों को कितना बेवकूफ और कमतर समझते हैं, यह उनके द्वारा अलिपुरद्वार एसटी सीट से थोपे गए दो उम्मीदवारों के चयन से आपने आप स्पष्ट हो गया। अब यह बात जगजाहिर हो गया कि इन दोनों पार्टियों के पास जनता का विश्वास जीतने लायक कोई उम्मीदवार ही नहीं बचा।

बीजेपी पार्टी ने अपने ही मंत्री पर विश्वास नहीं किया और किसी विश्वसनीय नेता की कमी रोना रो कर एक सीटिंग एमएलए को चुनाव में खड़ा कर दिया। यह कैसी राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था है कि अलिपुरद्वार से एमपी और मंत्री बने एक नेता अपने ही राज्य और विधानसभा में जनता के हित में कोई कार्य नहीं कर पाया, और वह मंत्री इस कई बार मीडिया में सार्वजनिक करके भी पाँच साल तक उस असमर्थ और निष्क्रय पद को ढोता रहा।

ठीक यही बात टीएमसी की भी है। उसके पास भी योग्य नेताओं की इतनी कमी है कि आजादी के बाद इस क्षेत्र से एकमात्र राज्यसभा सदस्य बने एक एमपी को फिर से एमपी की सीट का चुनाव लड़ा रही है। यह कितना हास्यस्पद पद है कि एक व्यक्ति एमपी रहते हुए भी करोडों खर्च करके फिर से वही एमपी बनने के लिए लोगों के पास जाकर वोट मांगेंगे। यह अलिपुरद्वार के एसटी सीट के मतदाताओं के राजनैतिक पार्टियों द्वारा किया जाने वाला एक छलावा से अधिक कुछ नहीं है।

अलिपुरद्वार चाय अंचल का एक लोकसभा सीट है जो आदिवासियों के लिए आरक्षित है। राजनैतिक आरक्षण का यही उद्देश्य है कि आदिवासी समाज संसद में एक योग्य उम्मीदवार को चयन करके भेजे और इलाके और अपने समाज की आवाज बने और विकास के लिए उत्प्रेरक का कार्य करें। इस मामले में न तो बीजेपी के उम्मीदवार खरे उतरते हैं और न ही टीएमसी के। बीजेपी के नेता के ऊपर तो उनके ही पार्टी के मंत्री और वर्तमान एमपी जैसे अत्यंत गुरूत्वपूर्ण पद को संभालने वाले व्यक्ति ने भ्रष्टाचार का आरोप लगा दिया है। उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा कि वर्तमान उम्मीदवार कभी जनगण की समस्या के लिए सक्रिय नहीं रहा और न ही एमएलए जैसे पद पर रहते हुए उन्होंने जनता के लिए कोई काम किया। बीरपाड़ा के लोग एक रेल्वे ओवरब्रिज के लिए तरस गए, लेकिन उन्होंने कोई काम ही नहीं किया।

बीजेपी के उम्मीदवार बताए कि यह आरोप सच है या झूठ। यदि झूठ है तो वह अपने व्यक्तिगत सम्मान और मदारीहाट विधानसभा के लाखों मतदाताओं के राजनैतिक प्रतिनिधि के उपर झूठे लांछन लगाने के लिए मंत्री और एमपी पर मानहानि का मुकदमा दायर करें। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो क्या जनगण यह समझ ले कि मंत्री और एमपी ने पूरे होशहवास से जो आरोप लगाए हैं, वह सच है और बीजेपी ने एक भ्रष्ट व्यक्ति को अलिपुरद्वार के पिछड़े जनता के विश्वास को हासिल करने के लिए लोकसभा चुनाव में खड़ा किया है? आज बगानियार और आदिवासी जनता को इन सवालों का जवाब चाहिए। क्या आदिवासी समाज में स्वच्छ छवि वाले ईमानदार नेताओं की कमी है?

टीएमसी पार्टी को इस बात का जवाब देना चाहिए कि वह क्यों आदिवासी समाज के नेताओं को पुतुल की तरह नचा कर कभी राज्य सभा में भेजती है और कभी लोकसभा में खड़ा करती है, क्या उन्हें आदिवासी समाज से और कोई योग्य उम्मीदवार नहीं मिला?

क्या उन्हें टीएमसी के अन्य आदिवासी नेताओं पर कोई विश्वास नहीं है? अलिपुरद्वार के मतदाता यदि राज्यसभा के सदस्य को वोट देंगे तो वे राज्यसभा में अपने प्रतिनिधि को खो देंगे। आजादी के 75 वर्ष बाद यहाँ के आदिवासियों को इज्जत दी गई है और उसके समाज के एक नेता को राज्यसभा में भेजा गया। भला वे अपने ही समाज के राज्यसभा के सदस्य को क्यों खोना चाहेंगे? उन्हें वोट देने का मतलब ही है कि चाय अंचल अपना राज्य सभा की सदस्यता से अपना ही प्रतिनिधि को वापस बुला ले। यह बगानियार और आदिवासी जनता के साथ बड़ा भद्दा मजाक के सिवाय और कुछ नहीं है।

.यदि उनकी जगह कोई और जीत कर लोकसभा जाएगा तो इलाके को दो-दो एमपी मिलेगा। लेकिन लगता है टीएमसी के कोलकाता के नेताओं को अफसोस हो रहा है कि उन्होंने एक आदिवासी को राज्यसभा का सदस्य बना कर बड़ी भूल कर दिया है। इसलिए उसे ही लोकसभा में उतार कर उनकी राज्यसभा का सीट छीन लें और कोलकाता के किसी भद्रलोक को उस सीट से राज्यसभा में भेजे।

राजनैतिक पार्टियों के द्वारा चाय बागान के लोगों के साथ इस तरह का मजाक करना उन्हें कमतर और जागरूकहीन समझना उन्हें ही महंगा पड़ेगा।

क्या बगानियार खत्म हो जाएँगे?

क्या अगले 15-20 बर्षों में #बगानियार_बचेंगे_या_खत्म_हो_जाएँगे?

यह एक मौजू नहीं बल्कि बहुत-बहुत ही गंभीर सवाल है। जिसे बगानियार समाज की वजूद रक्षा की चिंता होगी, वह इन सवालों को पूरी तरह समझने का प्रयास करेंगे और इसका उत्तर खोजेंगे।

जब बागानों को दी गई लीज जमीन ही बेच दिए जाएँगे, तो वहाँ चाय बागान बने रहेंगे ही, इस पर बड़ा प्रश्न चिह्न लग गया है!!! जब खानदान की जमीन को परिवार बेच देता है तो वह जमीन हमेशा के लिए खानदान के हाथ से निकल जाता है।

.सिलीगुड़ी से सटे चाँदमुनी बागान को वामफ्रंट सरकार ने बेच दिया था, वह बागान हमेशा के लिए खत्म हो गया और वहाँ आलिशान बिल्डिंग खड़े हो गए। बगानियार कहाँ गए, उनकी बर्बाद जिंदगी से किसी पूँजीपति को क्या लेना देना ????? न्यू चमटा के पास कई एकड़ पर बड़ा होटल बन गया, टीएमसी की सरकार ने लीज की जमीन को बेच दिया, वहाँ बगानियारों को कितना रोजगार मिला??? बाहर के लोग आए और वहाँ उन्हें भारी वेतन का रोजगार मिला। बगानियारों को क्या मिला ??? बाबाजी का ठूल्लू।

.उत्तर बंगाल में 20 लाख परिवारों का नाता चाय बागानों से जुड़ा हुआ है और चाय बागान का नाता यहाँ के सवा लाख हेक्टर लीज जमीन से जुड़ा हुआ है। लीज जमीन खत्म तो 20 लाख परिवारों का वजूद खत्म। टी टूरिज्म, रूग्ण बागान की आर्थिक दशा सुधारने के नाम पर यहाँ के बेशकीमती जमीन पूँजीपतियों को हस्तांतरित करने की योजना अपना कार्य कर रहा है। आईए इसे बहुत ध्यान से समझते हैं।

.पश्चिम बंगाल सरकार ने 13 जुलाई, 2023 की अधिसूचना द्वारा लीजहोल्ड भूमि को फ्रीहोल्ड भूमि में बदलने की अनुमति दे दी है, जिसमें चाय पर्यटन और संबद्ध व्यावसायिक गतिविधियों के लिए भूमि भी शामिल है। अधिसूचना में कोलकाता की “खासमहल भूमि” और विभिन्न औद्योगिक संपदाओं और पार्कों की भूमि भी शामिल है।

.अधिसूचना निम्नलिखित बताती है:-

99 साल के पट्टेदार से जमीन की मौजूदा बाजार कीमत का 15% शुल्क लिया जाएगा।

30 साल से कम अवधि के पट्टेदार से जमीन की मौजूदा बाजार कीमत का 70 फीसदी लिया जाएगा।

एक बार फ्रीहोल्ड में स्थानांतरित होने के बाद, भूमि के उपयोग से संबंधित किसी भी भविष्य के रूपांतरण को प्रतिबंधित करने के लिए संपूर्ण भूमि अनुसूची को संबंधित भूमि रिकॉर्ड प्रणाली में चिह्नित किया जाएगा। यद्यपि नोटिफिकेशन में चाय बागान की जमीन को अलग रखा गया है, लेकिन भविष्य में उसे शामिल नहीं किया जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

.एक बार भूमि की प्रकृति को पैसे लेकर सरकार लीज होल्ड से फ्री होल्ड कर देती है तो जमीन खरीदने वाली कंपनियाँ वर्तमान व्यावसाय को घाटे का सौदा घोषित करके वहाँ दूसरे उद्योग शुरू कर देती है। दुनिया भर में ऐसा ही होता है। इसका सीधा असर उद्योग के अनपढ़ कर्मचारियों पर होता है। ठीक ऐसा ही हुआ था चाँदमुनी चाय बागान में जहाँ आज बड़े-बड़े मॉल में दूसरे बाहरी लोग काम करते हैं और कुछ बगानियारों को सफाई कर्मी का काम मिला है। बागडोगरा एयरपोर्ट को बागान की जमीन दी गई, लेकिन वहाँ बगानियारों को कोई काम नहीं मिला। अशिक्षितों को कभी भी किसी स्किल्ड एक्सपर्ट वाली कुर्सी या रोजगार नहीं मिलती है।

.आजादी के बाद से न तो कांग्रेस सरकार ने न ही वामफ्रंट सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर चाय बागानों की जमीन को फ्री होल्ड करने का कुचक्र रचा। लेकिन यह काम वर्तमान सरकार ने 2023 के कानून और नोटिफिकेशन के द्वारा कर दी है। एक बार कानून बन जाए तो उसे रद्द कराना बहुत मुश्किल है। इसे सिर्फ राजनैतिक स्तर पर ही किया जा सकता है।

.लेकिन मुख्य विपक्षी दल बीजेपी जिन्होंने उत्तर बंगाल के अधिकतर सीटों पर जीत हासिल किया था। इस पर मुँह खोलने के लिए भी राजी नहीं है। चाय बागान के कुछ लोगों को छोड़ कर इसका विरोध कोई नहीं कर रहा है। जबकि सबकी बर्बादी तय कर दिया है, इस सरकार के द्वारा पारित कानून ने।

.टीएमसी सरकार ने पहले 2013 में 3% जमीन को चाय बागान में अन्य कार्य करने के लिए अनुमति दी थी। फिर वह 15% जमीन या 150 एकड़ जमीन या 400 बीघा जमीन को चाय कंपनी को टी टूरिज्म या अन्य कार्य के लिए यूज करने का अनुमति दी। 276 चाय बागान 400 बीघा में टूरिज्म और अन्य काम करेंगे तो कितना जमीन बागान से बाहर जाएगा, इसका कैलकुलेश कोई भी कर सकता है। पूँजीपतियों को अधिक सुविधा देने के लिए सरकार ने चाय बगानियारों के क्वार्टर को स्थानांतरित करने की अनुमति भी दे दी है। इसे सफल बनाने के लिए पीछे से चा सुंदरी योजना बनाई गई, ताकि मजदूरों को बेशकीमती जमीन से हटा कर बागान के किसी कोने में कम जगह में हटाया जा सके।

.फिर सरकार ने 176 बागान के सरकारी जमीन पर लगे हुए चाय के फसलों में परिवर्तन लाने के लिए 2023 में लीज होल्ड से फ्री होल्ड करने का कानून ही लेकर आ गई। इन चाय बागानों को पहले ही 400 बीघा तक की जमीन को चाय बगीचे के इतर कार्यों में लगाने की अनुमति मिली हुई है। तराई के कई चाय बागानों के पौधों को उखाड़ा जा रहा है। डुवार्स के भी कॉमर्शियल की दृष्टि से लाभप्रद जगहों में यह काम किया जाएगा। फिलहाल बचे हुए चाय बागान की जमीन भविष्य में पूरी तरह प्राईवेट लिमिटेड में नहीं बदलेंगे, इसकी कोई गारंटी कोई भी नहीं दे सकता है। पूँजीपति नेताओं को चंदे देकर मनचाहा काम करा लेते हैं। शासन प्रशासन में पूँजीपतियों की तूती बोलती है। मजदूर अनपढ़ होने के कारण चीजों को जल्दी से नहीं समझता है और उसे निहित स्वार्थी तत्व हमेशा भ्रमित करके उसका वोट ले लेते हैं और उसी के विरूद्ध में नीतियाँ बनाते हैं। अब बगानियारों के घर भिट्ठा की पूरी जमीन के बदले सिर्फ 5 decimal जमीन का नया फंडा बाजार में आया है। बिना अधिसूचना के बगानियार जमीन को टुकड़ों में बाँटा जा रहा है और भविष्य के लिए स्थायी सिर दर्द पैदा किया जा रहा है।

.टूरिज्म और चाय बागान अलग-अलग कानून से संचालित होते हैं। दोनों प्रकार की कंपनियों का अलग-अलग रजिस्ट्रेशन होता है, टैक्स और नियंत्रण के अलग-अलग कानून लागू होते हैं। टूरिज्म में प्रशिक्षित कर्मचारियों की जरूरत होती है। नये कंपनियों में बगानियारों के रोजगार की कोई गारंटी नहीं है। चाय बागानों के लोगों को सरकारी नीतियों के तहत सस्ते मजदूर में बदलने के लिए उन्हें विभिन्न तरीके से शिक्षा से हतोत्साहित किया गया था। वे अब भी 90% अनपढ़ हैं। वे पूरी तरह स्वतंत्र आर्थिक मॉडल में किसी भी तरह प्रतिस्पर्धा करने लायक क्षमता नहीं रखते हैं। चाँदमुनी में तो सिर्फ एक ही बागान के लोग बर्बाद हुए थे। लेकिन इस बार कितने बागान के कितने लोग बर्बाद होंगे, इसका अनुमान भला कौन लगा सकता है?

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चाहिए घर भिट्ठा का खतियान

नेह अर्जुन इंदवार

निम्नलिखित बातें बगानियारों के लिए #बहुत_बहुत_महत्वपूर्ण है। हर #बगानियार को #इन्हें_जानना_बहुत_जरूरी_है

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बगानियारों का घर भिट्ठा औसतन 15 Decimal का है। ऐतिहासिक, सामाजिक, संवैधानिक, कानूनी रूप से वे भूमिहीन नहीं है। वे 150 वर्षों से अधिक समय से अपनी जमीन पर रहते हैं। जमीन के मालिकाना कानूनी हक के लिए उन्हें सरकार से खतियान चाहिए। खातियान मिलने पर भारतीय कानून के अनुसार वह उसे वसीयत, सम्पत्ति का हिस्सा बना सकता है। पारिवारिक जमीन पर परिवार का मालिकाना हक स्थापित होगा। तब बागान मालिक उसे हथियाने की कोशिश नहीं करेगा और परिवार शांति के साथ विकास योजनाओं का क्रियन्वयन कर सकेगा। खतियान मालिक का मान सम्मान और कानूनी हैसियत भूमिहीन व्यक्ति से अधिक होता है। उसे आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त होता है।

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बगानियारों का 27 सामाजिक संगठन (JAC) सरकार से पूरी जमीन का सिर्फ एक खतियान मांग रही है। लेकिन सरकार 5 decimal जमीन को टुकड़ों में बाँटने का नोटिफिकेशन निकाला है। सरकार और सत्ताधारी पार्टी जबरदस्ती बगानियार को 5 decimal जमीन देने पर कार्य कर रही है। यह बगानियारों के हित, पूरे जमीन पर मालिकाना हक, परिवार के भविष्य के लिए बहुत हानिकारक है। बगानियारों ने कभी इसकी मांग नहीं की थी। उसकी मांग को सरकार गलत तरीके से पूरा करना चाहती है।

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स्थानीय प्रशासन, सरकार सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं को यूज करके जबरद्स्ती इस योजना को लागू कर रही है और 1 लाख 20 हजार रूपये (60-40-20 हजार के किस्त में) देने का प्रलोभन भी दे रही है। 1, 2 3 decimal का #टुकड़ा_टुकड़ा_पट्टा और सरकारी पैसा लेने से बगानियार के 150 वर्षों से जमीन पर रहने के सभी फायदे चौपट हो जाएगा। इसे लेने से उसका कानूनी, संवैधानिक, ऐतिहासिक, सामाजिक अधिकार लीगल रूप से कमजोर हो जाएगा और भविष्य में वह अपने अधिकारों की रक्षा करने के लिए Bargain करने की शक्ति खो देगा। पूरे जमीन के टुकड़े-टुकड़े पट्टा लेने और पैसा लेने पर परिवार कई कानूनी पचड़े में पड़ जाएगा। परिवार में भाईयों के बीच झगड़ा होगा और Non Transferable, Only Heritable शर्तों को कोई बदल नहीं सकेगा और वह परिवार के लिए हमेशा के लिए एक सिरदर्द बन जाएगा।

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जरा इसे समझने की कोशिश कीजिए। जमीन तो बगानियार के हाथों में है। कोई उसे उठा कर नहीं ले जाएगा। 283 बागानों के बगानियार सामूहिक रूप से आंदोलन करके उसका खतियान मांग रहे हैं। भविष्य में वह पूरा खतियान उसे मिलेगा ही, इसे कोई रोक नहीं सकता है। आज नहीं तो कल सरकार, प्रशासन को यह देना ही होगा। इसमें कोई कानूनी अड़चन नहीं है। बस कुछ टेक्निकल समस्या है। जो सरकार एक रूपया देने में भी तमाम आंगड़ा डालती है, वह घर-घर जाकर लोगों को जबरदस्ती पट्टा और पैसा दे रही है। इसके पीछे की मंशा, उद्देश्य को समझने की जरूरत है। इसे बगानियारों के भविष्य के लिए सोच-समझ कर नहीं बनाया गया है। यह एक जाल की तरह है, बगानियार मछली बन कर जाल में फंसेंगे तो उसका क्या हाल होगा, इसे जरूर समझने की कोशिश करें।

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आप यदि इसे लेने से इंकार करेंगे तो आपका 25-30-50 लाख से भी अधिक का कीमती जमीन का अधिकार आपके पास बरकरार रहेगा। यह 20 लाख बगानियारों के मौलिक अधिकार, विकास और अस्तित्व से संबंधित है और यह एक बहुत गंभीर मुद्दा है। इसे नासमझ और स्थिति से अन्जान लोग स्वीकार करके अपने परिवार के भविष्य को एक चालाकी भरी योजना के हवाले कर रहे हैं। आपके पास आपके नागरिकता को साबित करने के लिए वोटर कार्ड, आधार कार्ड, स्कूल सर्टिफिकेट, एसटी या एससी सर्टिफिकेट, जन्म या मृत्यु प्रमाण-पत्र, बिजली का बिल, बागान के कागजात, बैंक के कागजात, पंचायत के कागजात, इंदिरा आवास का घर, बागान क्वार्टर में पारिवारिक कब्जा का कागजात आदि अनेक कागजात है। टुकड़े-टुकड़े पट्टा के कागजात को लेने से इंकार करने का आपके पास संवैधानिक, कानूनी अधिकार है। जबरदस्ती करने पर एससी एसटी अत्याचार कानून का भी सहारा ले सकते हैं।

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बगानियार संविधान, कानून, लागू होने से पहले से ही 1850-65 से ही जमीन पर निवास करता है। प्राकृतिक मौलिक अधिकार, संवैधानिक अधिकार, Adverse Possession Rules अधिकार से उसे वह जमीन मिलेगा ही। दुनिया भर के जमीन कानूनों के अनुसार उससे यह अधिकार कोई छीन नहीं सकता है। सरकार ने 1953 में उनके पूरखों से वह जमीन West Bengal Estate Acquisition Act 1953 के तहत अधिगृहित करके क्वार्टर बनाने के लिए बागान मालिक को सौंप दिया था। 1 अगस्त 2023 के नोटिफिकेशन में यह बात साफ लिखा हुआ है। तब बगानियारों के पास संवैधानिक Right to Property यानी सम्पत्ति का मौलिक अधिकार भी हासिल था। लेकिन उसके पास शिक्षा और जागरूकता नहीं था। इसीलिए तब वह विरोध नहीं कर सका था। आज वह अपने अधिकारों के बारे जानकारी रखता है, इसलिए अपनी जमीन का अधिकार वापस प्राप्त करना चाहता है। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विकास के लिए यह अधिकार बहुत जरूरी है।

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तमाम कानूनी अधिकारों के अनुसार भी वह भूमिहीन नहीं है और उसे पूरे जमीन का खतियान पाने का अधिकार है। इन तमाम कानूनी पहलुओं के अनुसार उसे जबरदस्ती 5 decimal जमीन देने का नोटिफिकेशन निकालना बहुत गलत और अहितकारी है। वे इस देश के और चाय अंचल के भूमिपुत्र हैं। इसलिए उन्हें रिफ्यूजी की तरह 5 decimal जमीन देने की कोशिश करना उसके अधिकारों को छीनने, अधिकार को कमजोर करने और बगानियार समाज को बर्बाद करने की कोशिश है। इसीलिए इस नोटिफिकेशन को रद्द करने, इसे संशोधित करने और चुनाव के पहले ही पूरे जमीन के लिए एक ही खतियान वाला नोटिफिकेशन निकालने की मांग की जा रही है।

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Joint Action Committee का आंदोलन बगानियार के जमीन का आंदोलन है। इसे किसी पार्टी से जोड़ कर देखना सिर्फ नसमझीपन है। कृपया इस बातों को सभी को शेयर करें, अपने परिवार और समाज के अधिकारों को बचाएँ और अपने बच्चों को भारतीय नागरिक के पूरे अधिकार पाने में सहभागी बनें। यह आपके पारिवार का अपना आंदोलन है। JAC किसी पार्टी या सरकार के विरूद्ध नहीं है। जमीन देने की सरकार की नियत अच्छी है, इसका हम स्वागत करते हैं। लेकिन इसका आधा-अधूरा और गलत कार्यन्वयन का तरीका बगानियार को बर्बाद कर देगा। इसे हमें रोकना होगा। नेह।

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बागान बंद और मंत्री को वोट की चिंता

लोकसभा चुनाव बिल्कुल पास आ गया है। श्रममंत्री मलय घटक बगानियारों से कह रहे हैं कि वे उन्हें वोट दें। वे वोट के लिए तो डुवार्स तराई और पहाड़ में आते हैं, लेकिन यहाँ की समस्या के समाधान के लिए क्या-क्या कदम उठा रहे हैं उस पर कुछ नहीं कहते।

कालचीनी में दो बागान बंद था। बीच बागान अभी हाल ही में बंद हो गया। मालिक पक्ष कहते हैं प्रबंधन के लिए बागान में उचित महौल नहीं है। बगानियार कहते हैं प्रबंधन का रवैया किसी जेंटलमैंन प्रबंधक की तरह नहीं था। मंत्री बताएँ कि कहाँ का बगानियार गालीबाज प्रबंधकों को कब तक सहेंगे? क्या उन्होंने बागान प्रबंधकों के गलत व्यवहार और रवैये को ठीक करने के लिए कभी कोई सरकारी आदेश निकाला है?

चाह बगानियार कितने दबाव में कार्य करते हैं और कैसे वे हुक्म बजाते हैं, यह पूरी दुनिया जानती है। दुनिया यह भी जानती है कि गोरे साहेब लोग तो भारत से चले गए लेकिन चाह बागानों में काले साहबों का व्यवहार एक आजाद देश की नागरिक की तरह नहीं बदला। वे आज भी जमींदार की तरह ही बागान में जीवन जीते हैं। डुवार्स के कितने बागान रग्ण है और कितने में क्या-क्या समस्याएँ हैं, इस बारे मंत्रीजी जनता को बताएँ और उसका स्थायी समाधान भी खोजें।

जापानी प्रबंधन में कंपनी का मालिक भी अपने कर्मचारियों के साथ बैठता है और कार्य के समय पता ही नहीं चलता है कि कौन कर्मचारी है और कौन मालिक। लेकिन चाय बागान में मालिक तो मालिक मैनेजर भी किसी जमींदार-मालिक से कम नहीं होता है। बागान डायरेक्टरों को साल में एक करोड़ रूपये मिलते हैं और मजदूर को दैनिक 250 रूपये। मंत्री का इतना भी क्षमता नहीं है कि वे 2015 से लटका हुआ न्यूनतम वेतन ही मजदूरों के लिए देने की पहल करे। मजदूर किन हालतों में जिंदा है यह तो वह खुद ही जानता है। उपर से प्रबंधन के हर हुमकी और मर्जी पर बागान बंद हो जाता है। क्या कोई उद्योग यूनिट किसी के व्यक्तिगत मर्जी पर खुल सकता है या बंद हो सकता है? क्या बागान कोई पान का दुकान है?

मंत्री इस बारे क्यों कोई गाईडलाईंन्स जारी नहीं करते?

लोगों से वोट मांगने से पहले मंत्री जी खुद बताएँ कि वे किन समस्याओं का समाधान करते हैं?

क्यों खत्म हो रहे हैं डुवार्स के जंगल ?

नेह इंदवार

डुवार्स भारत के पश्चिम बंगाल के उत्तर-पूर्व में एक क्षेत्र है, जो अपने जंगलों, वन्य जीवन और चाय बागानों के लिए जाना जाता है। यह भूटान और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों का प्रवेश द्वार भी है। जंगली जानवर अक्सर जगल से निकल कर स्थानीय ग्रामीण इलाकों में आते है और फसलों और नागरिक सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाते हैं। जंगली हाथी, चीता, बाघ, बाईसन वगैरह के हमलों से अक्सर डुवार्स के लोग जान गँवाते हैं। अधिकतर लोग ऐसी खबरों पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दे पाते हैं।

लेकिन इस तरह के हमलों और जान गँवाने के पीछे कई कारण हैं, जिन्हे स्थानीय जनता, प्रशासन और शासन को जानना चाहिए। डुवार्स के विस्तृत जंगलों को राष्ट्रीय अभ्यारण घोषित किए गए हैं और यहाँ बाहर से लाकर बाघ, हिरण आदि को छोड़े जा रहे हैं। लेकिन देखा जाए तो फारेस्ट विभाग की गफलती से यहाँ के जंगल खत्म होते जा रहे हैं। जंगलों के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और दोहन से जंगल ऐसे नहीं रह गए हैं कि वहाँ जंगली जानवरों के लिए खाने के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हों।

जंगलों में जब बाहर से बाघ और अन्य जंगली जानवरों को लाए जा रहे हैं तो इसके लिए सरकार भारी भरकम बजट भी देती है। लेकिन ये बजट कहाँ खर्च किए जा रहे हैं या जाँच का विषय है। जंगल में जंगली जानवरों के खाने के लिए विभिन्न प्रकार के लाखों पेड़ पौधे आदि लगना चाहिए ताकि वे भोजन की खोज में जंगल से बाहर न आएँ और समाज को नुकसान न पहुँचाएँ। लेकिन लगता है बजट को यहां खर्च नहीं किया जा रहा है। यहाँ के जंगल उजाड़ नज़र आते हैं और जानवरों को खाने के लिए उन्हें उचित और पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। फलतः बंदरों से लेकर हाथी, चीता, बंदर नियमित रूप से बाहर आकर यहाँ के ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खत्म कर रहे हैं और उन पर हमले भी कर रहे हैं। बंदरों के उत्पात से यहां के लोग अपने खेतों में फसल, सब्जी वगैरह उगा नहीं पा रहे हैं।

कई लोग सवाल भी उठाते हैं कि कहीं यह कोई षड़यंत्र तो नहीं है कि यहाँ के जंगलों को खत्म कर दो और इतने जंगली जानवर यहाँ लाओ कि यहाँ के बाशिंदों की जिंदगी हराम हो जाए, स्थानीय ग्रामीण व्यवस्था, फसल, पेड़ पौधे खत्म हो जाएँ और यहाँ के लोग गरीब होकर शहरों की ओर पलायन कर जाए। यदि ऐसा नहीं है तो सरकार बताए कि क्यों खत्म हो रहे जंगलों में नये रोपन नहीं किए जा रहे हैं? अलिपुरद्वार से निकलने वाले हाईवे के दोनों किनारे जंगल के बदले किसी उजाड़ सा उपवन लगता है। यह एक दिन की स्थिति नहीं है, बल्कि यह कई वर्षों से इसी तरह रह गया है।

सरकार को चाहिए कि वे सीबीआई जैसी किसी संस्था से यहाँ के जंगलों का ऑडिट कराए और इसकी जाँच करके समस्या का निराकरण करे। जिस दिन लोग जंगली जानवरों से तंग आ जाएँगे, उस दिन जनता उन्हें नुकसान पहुँचाना शुरू कर देंगे। सरकार, वन विभाग और केन्द्र सरकार को इस बारे तुरंत कदम उठाना चाहिए।

पश्चिम बंगाल में जंगल राज

नेह इंदवार

कथित तौर पर कुछ व्यक्तियों द्वारा दो प्रकार के जाति प्रमाण पत्र धोखाधड़ी से प्राप्त किए जा रहे हैं।

.(1) फर्जी या जाली जाति प्रमाण पत्र,

(2) किसी अयोग्य व्यक्ति द्वारा तथ्यों की गलत बयानी और अन्य फर्जी तरीकों से।

.नम्बर (1) के मामले में, इसे आपराधिक कानूनों के संदर्भ में निपटाया जाना चाहिए। इसके लिए शिकायत मिलने पर पुलिस या जाँच एजेंसी एफआईआर दायर करता है। ऐसी फर्जी डिग्री रखने वालों पर धारा 420 (धोखाधड़ी), 467 (मूल्यवान सुरक्षा की जालसाजी), 468 (धोखाधड़ी के लिए जालसाजी), 471 (जाली दस्तावेज को असली के रूप में उपयोग करना) और 109/120 बी (आपराधिक साजिश के लिए उकसाना) के तहत आरोप लगाए गए हैं। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत इसके लिए 7 (सात) साल तक की सजा का प्रावधान है।

.इतने कानूनी प्रावधान के बावजूद पश्चिम बंगाल में, बकौल एक अखबारी सूचनानुसार, 25 हजार से अधिक नकली एसटी सर्टिफिकेट जारी होने का संदेह है। सबसे बड़ी बात है कि सरकार को तमाम सूचनाएँ वक्त रहते ही मिल जाती हैं, लेकिन वह नकली सर्टिफिकेट वालों को पकड़ने, उसकी जाँच करने के लिए कोई कदम नहीं उठाती है। पिछले तीन चार सालों से कई नौकरियों, पेशेवर शिक्षा आदि में नियुक्ति / Final Admission के बाद जारी होने वाली सूचियों में नकली लोगों के नाम और टाईटल्स विवरण सहित फोटोज सोशल मीडिया में लगातार प्रकाशित होते रहे थे। लेकिन किसी भी सरकारी विभाग ने स्वतः संज्ञान लेकर कोई एक्शन (Suo moto action) नहीं लिया।

.एमबीबीएस में दर्जनों ने नकली सर्टिफिकेट के बल पर आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर कब्जा किए, सरकार को पता चला, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। 2013 से पहले राज्य में आदिवासियों को Post Graduation Medical Education में प्रवेश ही नहीं दिया जाता था। अब दिया जा रहा है लेकिन बैचलर डिग्री में नकली आदिवासियों को ही प्रवेश देकर आदिवासियों के सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक ढाँचा को गिराने में सहभागिता देने के लिए पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ सरकार ने आँखें बंद कर ली है।

.जब ईशिता सोरेन ने इस मामले पर उच्च न्यायालय में न्याय मांगने गई और न्यायधीश ने राज्य की मशीनरी को अविश्वसनीय मानते हुए सीबीआई की जाँच के लिए आदेश दिया, तो राज्य मशीनरी जैसे सोते से जाग गया और उसी दिन दो न्यायधीश के कोर्ट में जाकर इस पर स्टे ले लिया।

.यदि कोर्ट राज्य की सीआईडी को जाँच की जिम्मेदारी देता तो ये लोग नींद की खुमारी में ही रहते, क्योंकि वह तो उनके ही आदेशों पर कार्य करने वाला सरकारी विभाग है। उसे तो वे उसी तरह मैनेज कर लेते जैसे चाय बागानों में करोड़ों के पीएफ घोटालों की जाँच को वे मैनेज करते रहे हैं। इन घटनाक्रमों से यह साबित हो गया कि फेक सर्टिफिकेट के मामले पर राज्य सरकार अनभिज्ञ नहीं थी और उसे आदिवासी समाज के साथ हो रहे अन्याय, भेदभाव, वंचना से कोई दिक्कत नहीं थी। यदि यह कहा जाए कि यह सरकार संवैधानिक, कानूनी और नैतिक रूप से आदिवासी हित की सुरक्षा करने में फिसड्डी साबित हुई तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

.आखिर सरकार जालसाजों को क्यों बचाना चाहती है? फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सरकारी वकील का कहना है कि जब प्रार्थीं ने सीबीआई जाँच की मांग ही नहीं की तो न्यायधीश ने क्यों सीबीआई जाँच का आदेश दिया ? मतलब साफ है कि राज्य सरकार चाहती है कि जिन लोगों ने आदिवासी समाज के साथ नाइंसाफी किया, उन्हें ही जाँच की जिम्मेदारी भी सौंप दिया जाए !!!

.पश्चिम बंगाल सरकार के वेबसाईट के अनुसार संख्या (2) के मामले में पश्चिम बंगाल एससी और एसटी (पहचान) अधिनियम 1994 और पश्चिम बंगाल एससी और एसटी (पहचान) नियम 1995 के प्रावधान के अनुसार प्रमाण पत्र रद्द करने की कार्यवाही शुरू करने के लिए एसडीओ सक्षम प्राधिकारी है। राज्य सरकार ने ऊपर उल्लिखित दोनों प्रकार के मामलों से निपटने के लिए राज्य स्तर पर एक जांच समिति और सभी जिलों में सतर्कता कक्ष भी स्थापित जिला सतर्कता सेल के गठन में प्रावधानों को सेल के अध्यक्ष के रूप में एक अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को शामिल करने के लिए संशोधित किया गया है।

.सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर तीन सप्ताह में सभी को अपना पक्ष रखने के लिए आदेश दिया है। राज्य सरकार करोड़ों रूपये खर्च करके बड़े-बड़े वकीलों के माध्यम से अपनी चमड़ी बचाने के लिए उतर गई है। लेकिन आदिवासी समाज आर्थिक रूप से बहुत कमजोर है। वह बड़े-बड़े वकीलों के फीस नहीं दे सकता है। इसलिए जरूरी है कि इस विषय पर समाज ईशिता सोरेन के मामले पर संबंधित लोगों के साथ खड़े हों और इस मामले पर दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए अपना निशर्त समर्थन दें।

नकली आदिवासियों को क्यों बचाना चाहती है, सरकार ?

नेह अर्जुन इंदवार

अब तक के घटनाक्र से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि नकली एसटी और एससी सर्टिफिकेट जारी करने के पीछे तृणमूल कांग्रेस की पार्टी और सरकार का हाथ हो सकता है !!! कृपया पूरा पोस्ट पढ़ें और आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय को समझने की कोशिश करें।

.एक अभूतपूर्व घटनाक्रम से यह इंगित मिल रहा है। दो दिन पूर्व ही बड़े पैमाने में नकली एसटी सर्टिफिकेट जारी करने और जालसाज और नकली एसटी लोगों को सरकारी नौकरी और शिक्षालयों में प्रवेश दिए जाने को लेकर राज्य के विभिन्न जिलों में जिला मजिस्ट्रेट कार्यालयों में इसकी जाँच करने और जालसाजों को नौकरी और कालेजों से निकालने के लिए मेमोरंडम दिया गया। अलिपुरद्वार में आयोजित रैली में मैं भी शामिल था। इसके पहले भी राज्य सरकार को पत्र लिख कर और अन्य माध्यमों द्वारा सूचना दी गई थी कि पश्चिम बंगाल राज्य में बड़े पैमाने पर जालसाजों को आदिवासी प्रमाण पत्र और नौकरियाँ बाँटी जा रही हैं।

.ऊधर दो दिन पूर्व ही बंकुड़ा जिले के ईशिता सोरेन द्वारा दाखिल मामले में संज्ञान लेते हुए कोलकाता उच्च न्यायालय के एकल पीठ के न्यायधीश न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्यय ने फेक (नकली) सर्टिफिकेट के द्वारा 2023 में मेडिकल कॉलजों में लिए गए दाखिलों पर जाँच करने का आदेश सीबीआई को दिया। ईशिता सोरेन ने NEET EXAMINATION पास की थी और वे प्रवेश के लिए पात्रता रखती थी। लेकिन जालसाजों के द्वारा नकली सर्टिफिकेट के बदौलत भारी संख्या में मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लेने के कारण वह प्रवेश से वंचित हो गई थी और उन्होंने इस मामले पर कोर्ट पहुँच कर न्याय मांगी थी। ICARD (Indigenous Centre for Adivasi Rights and Development), Kalchini के द्वारा मांगी गई RTI का जवाब भी राज्य सरकार से आधा अधूरा और ढूलमूल तरीके से ,सिर्फ दो चार मेडिकल कालेज के द्वारा ही दिया गया। जबकि राज्य मेडिकल सेवा के द्वारा इसकी पूरा विवरण एक बार में ही दिया जाना था।

.लेकिन भारी आश्चार्य की बात है कि सीबीआई की जाँच को रोकने के लिए राज्य सरकार आनन-फानन में दो न्यायधीशों के डबल बेंच में पहुँच गई और सीबीआई की जाँच को रोकने का अनुरोध किया। डबल बेंच ने सीबीआई जाँच को रोकने का मौखिक आदेश भी जारी कर दिया। लेकिन डबल बेंच के आदेश को सिंगल बेंच के न्यायधीश अभिजीत गंगोपाध्यय ने मानने से इंकार कर दिया, क्योंकि वह आदेश लिखित रूप से सिस्टम में लोड नहीं किया गया था। दो बेंचों की रस्साकस्सी का मामला फिलहाल कोलकाता हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश को रेफर किया गया है।

.एक ओर तृमणूल कांग्रेस सरकार की प्रमुख अपने भाषणों में फेक एसटी सर्टिफिकेट के विरूद्ध भाषण देती है, राज्य सरकार के द्वारा इसकी जाँच करने की बात करतीं हैं। दूसरी ओर उनकी सरकार आदिवासियों और दलितों के साथ सरकारी तंत्र के द्वारा किया जा रहा अन्याय, जालसाजी, भेदभाव की जाँच को रोकने का हर हथकंडा अपनाती है। इससे यह शंका बलवती होती जा रही है, कि 2011 में सत्तासीन होने के बाद तृणमूल कांग्रेस की सरकार आदिवासी विरोधी नीतियों पर चल रही है और उनके हित के विरूद्ध में एक सूचना के अनुसार 25 हजार से अधिक नकली एसटी सर्टिफिकेट जारी की है और पिछले 12 सालों में थोक के भाव में नकली आदिवसियों को नौकरी दी है और असली आदिवासियों के साथ अपनी पूरी ताकत से भेदभाव और अन्याय कर रही है। आखिर क्यों अब तक सरकार ने नकली एसटी सर्टिफिकेट के विरूद्ध कोई जाँच दल नहीं बनाया?

.आखिर कैसे नकली लोगों के एसटी सर्टिफिकेट की जाँच करके जालसाज लोगों के नौकरी को पक्की की जा रही है? कैसे अब तक एक भी नकली और जालसाज लोगों को नौकरी ने नहीं निकाला गया है? राज्य का Backward Classes Welfare Department कैसे एक भी केस को पुलिस, विजिलेंस और कोर्ट की जाँच के लिए रेफर नहीं किया है? राज्य में एक आदिवासी बुलु चिकबड़ाईक को आदिवासी मंत्री बनाया गया है लेकिन उसने आदिवासियों के साथ इतने बड़े पैमाने में किए जा रहे अन्याय, भेदभाव और जालसाजी पर एक भी सार्वजनिक बयान जारी नहीं किया है? जबकि आदिवासी और बगानियार हित के विरूद्ध में लागू किए जा रहे चा सुंदरी योजना पर वह कई बयान जारी कर चुके हैं।

.राज्य में असली आदिवासियों को कितनी नौकरियाँ मिली है? क्यों आदिवासियों को नौकरी से वंचित करने के लिए हिन्दी भाषा के अध्ययन को खलनायक बनाया गया था? क्यों पिछले 12 सालों में डुवार्स तराई के एक भी आदिवासी को WBCS में कोई नौकरी नहीं मिली? कैसे स्थानीय जिला परिषद, पंचायत समिति, आईसीडीपी में आदिवासियों को नौकरियों से दरकिनारा किया गया? आदि कई ऐसे सवाल है जो नकली एसटी सर्टिफिकेट की जाँच से ही पता चल सकता है।

.सरकार जब सीबीआई जाँच पर अंगड़ा लगाने की बेशर्मी हद तक पहुँच सकती है तो कोई भी सोच सकता है कि क्यों चाय बागानों में पीएफ और ग्रेज्युएटी पैसों को हड़पने वाले दलाल पर कोई जाँच नहीं बैठाती है न ही बगानियारों को न्यूनतम वेतन देती है और न उनके आवास की पूरी जमीन का अधिकार देती है!!! असली सवाल यही है कि आखिर यह सरकार क्यों जालसाजों को बचाना चाहती है? कौन हैं ये जालसाज जो मेडिकल, इंजिनियरिंग और अन्य शिक्षा केन्द्रों में आदिवासी बन कर प्रवेश लिए हैं और आदिवासी बन कर सरकार से स्कॉलरशिप ले रहे हैं और नौकरियाँ भी प्राप्त कर रहे हैं? आखिर उनके साथ उनका क्या संबंध है?

संगठित धर्म और आध्यात्मिकता

नेह अ इंदवार

धार्मिक शिक्षा और धर्म का आध्यात्मिकता से अंतरसंबंध एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है और मानवीय सभ्यता के संतुलित विकास में इस पर पूर्णांग रूप से समझ पैदा करके ही कोई समाज या देश आगे बढ़ सकता है। पूरे समाज के चिंतन धारा को धार्मिक सिद्धांतीकरण के रास्ते धकियाना एक खतरनाक खेल है। यह स्वतंत्र चिंतन का प्रमुख बाड़ सिद्ध हो सकता है, जो वैश्विक स्तर पर बौद्धिकता के क्षरण और क्षुद्रता का प्रमुख कारण बन सकता है। आप अपने परिवार के बच्चों को किन रास्तों पर धकेलना या प्रेरित करना चाहेंगे, यह आपके धार्मिकता और आध्यात्मिकता की समझ पर निर्भर करता है।

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संगठित धर्मों का “आध्यात्मिकता का अध्येता” होने का दावा बहुत प्राचीन है। लेकिन तर्कवादियों का यह सवाल कि धर्म के साथ आध्यात्मिकता का रिश्ता वास्तविक रूप में कितना प्रतिशत है? अपनी जगह पर हमेशा एक सवाल बन कर चुनौती देता रहा है।

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धर्म और आध्यात्मिकता दोनों की आवधारणाएं विलग है। इस पर तार्किकता से भरे साहित्य उपलब्ध हैं। धार्मिक किताबें आध्यात्मिकता के लिए एक विकसित दुनिया प्रदान करने का दावा करता रहा है। उसे वह अपने ऊपर अवलंबित होने की सूचना देता रहा है। लेकिन आध्यात्मिकता संगठित धर्म से स्वतंत्र रूप से अलग मौजूद हो सकता है। दुनिया के अधिकतर प्राचीन और अवार्चीन दार्शनिकों ने आध्यात्मिकता की राह को एक स्वतंत्रता पथ माना है। आध्यात्मिकता के अभ्यास के लिए संगठित धर्म की आवश्यकता नहीं होती है।

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संगठित धर्म मूर्त दिखाऊटी कर्मकांडों का एक समुच्च्य होता है। कई रूढ़ प्रार्थनाओं, आराधनाओं, नियम कायदों, ऊँच-नीच वर्ग या समुदाय (पूजारी-गैर पूजारी वर्ग), रूपये पैसों, रूढ धार्मिक प्रतीकों के बाहर संगठित धर्मों का कोई अस्तित्व नहीं होता है। हर धर्म का अपना एक अदृयमान विलग विशेषताओं वाला एक ईश्वर या परम ईश्वर अवश्य होता है। विशिष्ट चारित्रिक विशेषताओं से मुक्त किसी भी संगठित धर्म का कोई देवता, ईश्वर या परम ईश्वर नहीं होता है। धर्म के अस्तित्व के लिए यह एक अनिवार्य तत्व होता है। इसी ईश्वर या देवता या परम शक्ति को आध्यात्मिकता का परम स्रोत या बिन्दु माना गया है।

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धर्म का मुख्य कार्य आध्यात्मिकता से इतर होता है। लेकिन धर्म अपने अनुयायियों से हमेशा आध्यात्मिकता के नाम पर अपने से जुड़े रहने का आग्रह करता है। आध्यात्मिकता के लिए जन के मन की आवश्यकता होती है, लेकिन जनसंख्या की कोई आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन धर्म को अपने तथाकथित आध्यात्मिकता को बचाए रखने के लिए नहीं, बल्कि अपने कर्मकांडी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक वर्चस्व के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भारी भीड़ और विशाल जनसंख्या की आवश्यकता होती है।

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बिना विशाल जनसंख्या के कोई भी संगठित धर्म का स्वतंत्र आर्थिक वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाता है। धर्मांतरण या घर वापसी, प्राण प्रतिष्ठा, धार्मिक दंगों के लक्ष्य, रणनीति, कूटनीति और लड़ाईयों को इसके बरक्स समझे जा सकते हैं।

मूर्त और शुद्ध कर्मकांडी धर्मों को बनाए रखने के लिए एक मजबूत ढाँचागत आर्थिक वर्चस्व को स्थायी रूप से बनाए रखना होता है। यह आश्चर्चजनक रूप से वैश्विक रूप में एकरूपता लिए सभी जगह हाजिर रहा है। यही आर्थिक व्यवस्था ही धर्म के पूजारी वर्ग (भारत के संबंध में इसे पूजारी वर्ण समुदाय पढ़ा जाए) के अस्तित्व को बनाए रखने का पूँजीवादी सम्पदा है। इसे समझे बिना आप धर्म के पूँजीवादी स्वरूप को पूरी तरह नहीं समझ सकते हैं। इस धार्मिक सम्पदा के बगैर मूर्त कर्मकांडी धर्म का कोई स्वतंत्र और प्रभावशाली अस्तित्व नहीं होता है।

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धार्मिक संस्थाओं के प्रतीक पूजा और आराधना स्थलों को प्राचीन काल से ही अत्यंत विशाल और भव्य बनाए रखने की परंपरा को इसकी मानसिकता और मनोवैज्ञानिकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। विशालता, भव्यता ग्लैमर्स के जादुई शक्ति से हर युग में जनता बहुत प्रभावित रही है। भव्यता के भव्य प्रभाव से तर्कहीन जनता को प्रभावित करने के लिए कल्पित कथा कहानियाँ, उत्सव उमंग वगैरह धार्मिक मार्केटिंग का अनुसांगिक तत्व होते हैं। वैज्ञानिकता से अन्जान तर्कहीन दिमागों में विशेष मार्केटिंग के द्वारा धार्मिक श्रद्धा और भक्ति भरे जाते हैं। इसके लिए हर युग में उपलब्ध मीडिया का प्रयोग राजकीय धन से करने के ऐतिहासिक विवरण विश्व इतिहास में भरे हुए हैं। धार्मिक वर्चस्व पूर्ण अर्थव्यवस्था के विकास और पूँजी के समेकन (Consolidation of capital) के इर्दगिर्द चक्कर काटते कर्मकांडों में कही कोई आध्यात्मिकता नहीं होता है। यह ठीक है कि कई व्यक्ति पारंपरिक धार्मिक संस्थानों के कर्मकांडों में लिप्त होकर भी आध्यात्मिक विश्वासों और प्रथाओं को अपनाते हैं। लेकिन इसका प्रतिशत कितना है? यह सवाल हमेशा प्रसांगिक रहा है।

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धार्मिक वर्चस्ववादी अर्थव्यवस्था और इसके दूरगामी प्रभावी ढांचा को मजबूत करने के लिए धार्मिक मार्केटिंग को कई हिस्सों में बाँटा जाता है। सबसे पहले इसके लिए बच्चों और अनपढ़ जनता, विशेष कर घरेलू पारंपारिक तर्कहीन महिलाओं और तर्किता से दूर आम पुरूषों को प्रथम टारगेर वर्ग बनाया जाता है। इसके लिए यदि कर्मकांडी शासकों के हाथों में कानून बनाने की शक्ति होती है तो वह धर्म के कर्मकांडी भाग को प्रोत्साहित करने के लिए कानून बनाता है और बाल शिक्षा के रास्ते मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने के लिए रास्ते अपनाए जाते हैं।

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एकांकी शिक्षा वैकाल्पिक मान्यताओं को दिमाग में प्रवेश करने में बाधा उत्पन्न करते हैं और बालकों के मन में वैश्विक विविधतापूर्ण जीवन शैली और दर्शन को समझने में दिमागी उलझाव और बाधा उत्पन्न हो जाती है। यदि लगातार दो तीन पीढ़ियों तक बालकों को शिक्षा के माध्यम से एकांकी दर्शन और जीवन मूल्यों को दिमाग में ठूँसा जाता है तो वहाँ वैकाल्पिक जीवन दर्शन के प्रवेश का हर रास्ता बंद हो जाता है। कई कट्टर ईसाई और कठमूल्लापूर्ण मुस्लिम देशों के शिक्षा पाठ्यक्रमों और उसके प्रभाव पर रिसर्च करके इसे पूर्णांग रूप से समझा जा सकता है। क्यों मुस्लिम देशों में धार्मिक सहजीवन के लिए कोई आदर्श अनुकूल वातावरण नहीं है, इसे बालकों को दी जाने वाली शिक्षा के रास्ते धार्मिकसिद्धांतकारी योजना से समझा जा सकता है।

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धार्मिक शिक्षा का आदर्शवादी उद्देश्य, आदर्श रूप से, बच्चों को बेहतर जीवन जीने और उनके समुदायों में सकारात्मक योगदान देने में मदद करना है, लेकिन यह स्वतंत्र और सीमाहीन अनुकूलनशीलता या चिंतन की लचकता को सीमित कर देता है। लंबे समय तक चलने वाले अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूलों में साम्यवादी या धार्मिक शिक्षा या साम्प्रदायिक शिक्षा से विविधता पूर्ण चिंतन प्रक्रिया पर लगाम कस जाती है। इससे सभ्यता के विकास के लिए शिक्षा के रास्ते मानव पूंजी निवेश पूरी तरह प्रभावित हो जाता है।

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यदि मानव समाज को धर्म की कोई आवश्यकता है तो उससे अधिक आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। यह कर्मकांडी नहीं होता है। यह साम्प्रदायिक भी नहीं होता है। कर्मकांडी प्रभावित शासक और शासन आध्यात्मिकता का विरोधी हो सकता है। यह सर्वधर्म और विविधता का विरोधी भी हो सकता है। इसलिए अपने बच्चों को आंखें बंद करके धार्मिक वर्चस्व के लिए चलाए जा रहे मुहिम से बचाया जाना चाहिए। उनके मन में एक कर्मकांड के लिए अनुराग और दूसरे के लिए विराग उत्पन्न होने के बचाने का प्रथम कर्तव्य माँ-बाप और परिवार और समाज का होता है। उन्हें यह कर्तव्य हमेशा याद रखना चाहिए। नेह।

नियम से बंधे सरकारी अधिकारी

#Kind_Attention_Dooars_Terai

दिनांक 26 दिसंबर 2023 को जलपाईगुड़ी डीएम कार्यालय परिसर में एलआर (लैंड रिफॉर्म) यानी भूमि सुधार और लेबर वेलफेयर के भारप्राप्त एडीएम प्रियदर्शनी भट्टाचार्य के कार्यालय में एक बैठक बुलाई गई थी, जिसमें चाय बागानों में कार्यरत्त मजदूर संघों के नेताओं ने भाग लिया।

एडीएम ने बैठक के उद्देश्य पर बोली कि प्रशासन, चाय मजदूरों के भूमिहीन होने और जमीन के अधिकार की मांग पर 1 अगस्त 2023 को जारी को नोटिफिकेशन के अधीन चाय बागानों में सर्वे का काम कर रही है। लेकिन सर्वे के काम में विभिन्न प्रकार के अड़चन आ रही , उसी अड़चनों को दूर करने और सीधे बातचीत करके कुछ मिसकम्यूनिकेशन और मिसकंसेप्शन को दूर करने के लिए यह बैठक बुलाई गई है। मैं भी आशिक मुण्डा, राहुल कुमार झा के साथ, श्री तेजकुमार टोप्पो जी के आमंत्रण पर मजदूर संघ के एक सदस्य के रूप में बैठक में उपस्थित था। एडीएम ने कहा कि वे एलआर के साथ लेबर वेलफेयर की भी अधिकारी है, इसलिए वे चाय मजदूरों के भलाई के कार्यों में सभी का सहयोग मांग रही है।

एडीएम ने स्पष्ट किया कि सर्वे के लिए सरकारी अधिकारी और कर्मचारी सिर्फ नियमों के अधीन, नोटिफिकेशन के दायरे में काम कर रहे हैं। वे उसके बाहर कोई कार्य नहीं कर सकते हैं। वे सर्विस कंडिशन यानी सरकारी सेवा शर्तों से बंधे हुए हैं और वे इसका उल्लंघन करके कोई कार्य नहीं कर सकते हैं। उन्होंने सरकारी कार्यों में बाधा न डालने के लिए भी अपील कीं। उन्होंने कहा कि पाँच डिसमील के लिए जारी नोटिफिकेशन के आदेशों को लागू करने के लिए ही प्रशासन कार्य कर रहा है।

उन्होंने बताया कि ये जमीन बागान प्रबंधनों को The West Bengal Estate Aquisation Act 1953 के तहत दिए गए थे और उन्हें मजदूरों को अलॉट करने के लिए Land Resume के लिए चाय बागान से एनओसी यानी No Objection Certificate की जरूरत है। इस मामले में कई चाय बागान प्रबंधन एनओसी देने में तत्पर नही हैं और इसमें कई चुनौतियाँ आईं हैं। कई बागान इसे देने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। उन्होंने आगे बताया कि सरकार मजदूरों के बस्ती और मकानों के जर्जर हालातों के बारे भी वाकिफ है। उन्होंने स्पष्ट करके कहा कि नोटिफिकेशन में पाँच डिसमील जमीन परिवार के महिला प्रमुख के नाम देने का आदेश है और हर परिवार को पाँच डिसमील जमीन देने की कार्रवाई की जा रही है। उन्होंने यह भी बताया कि सरकार चाय बागान मजदूरों के वर्तमान घर, जहाँ वे दशकों से रहते आए हैं, और जिस घरों के साथ उनकी भावनात्मक संबंघ जुड़े हुए है्ं, उसी घर-जमीन का पाँच डिसमील जमीन पट्टा देगी। साथ ही टूटे हुए घरों के मरम्मत के लिए प्रति परिवार 1 लाख 20 हजार रूपये परिवार प्रमुख के बैंक के माध्यम से देगी।

उन्होंने कई बार जोर देकर कहा कि प्रशासन नोटिफिकेशन के अनुसार पाँच डिसमील जमीन देगी लेकिन दशकों से चाय बागान लाईन में रहने वाले परिवार को उनकी पात्रता की जाँच करके देगी, पात्रता जाँच करने, सहयोग करने के लिए उन्होंने अपील कीं । उन्होंने कहा कि यदि कोई परिवार का नाम छूट जाएगा तो मजदूर संघ उसे प्रशासन को बताए, सरकार हर बगानियार को पाँच डिसमील जमीन का पट्टा देगी। यदि कोई गलती होगी, तो दुबारा सर्वे का काम करके उसे ठीक किया जाएगा।

मजदूर संघों के प्रतिनिधियों ने एडीएम के सामने अपनी आपत्तियाँ भी दर्ज कीं। उनका कहना था कि वे पांच डिसमील जमीन नहीं मांग रहे हैं। वे उस सारी जमीन का पट्टा मांग रहे हैं, जिन पर परिवार डेढ़ सौ वर्ष से रह रहा है। उनके पास पाँच डिसमील से कम भी जमीन हो सकते हैं या उससे अधिक भी। जमीन का जैसा कब्जा या Possession है, उसे उसी माप और मात्रा में जमीन का खतियान दिया जाए। उसे पाँच डिसमील के स्केल में न बैठाया जाए। सरकार यदि उसी घर और जमीन का अधिकार दे रही है तो वह नोटिफिशन में बदलाव करे और सीधे जैसे, जितना कब्जे की जमीन है, उसे परिवार को सौंप दें। जिनके पास कोई जमीन नहीं है, जैसे बागान स्टाफ के पास तो उन्हें पाँच डिसमील जमीन दे।

जमीन का संबंध सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक अधिकार से संबंधित होने के कारण सरकार उनपर सहानुभूमि पूर्वक विचार करे। क्योंकि सरकार द्वारा 1953 में उस जमीन पर कब्जा करने के पहले वह जमीन मजदूरों के पूरखों की जमीन थीं। आज उसे वापस करने का समय आ गया है। लेकिन एडीएम ने स्पष्ट कर दिया कि उनका प्रशासन नोटिफिकेशन में दिए गए आदेश का ही पालन कर सकती है। वे प्रतिनिधियों के अनुरोध और भावनाओं तथा आवेदन, निवेदन को सरकार के उच्चाधिकारियों के पास पहुँचा देंगी। वही उस पर अंतिम निर्णय लेंगे।

इन बातों के बीच में ही एक मजदूर संघ के प्रतिनिधि ने कहा कि जिस परिवार के पास पाँच डिसमील से अधिक जमीन होगी, उस परिवार के अन्य सदस्यों को बाकी के जमीन का पट्टा देने की बातें हुई है और ऐसा किया जा रहा है। जैसे किसी परिवार के पास 15 डिसमील जमीन है तो बाकी के 10 डिसमील को घर के दो अन्य लोगों के नाम पट्टा दिया जा रहा है। यदि 12 डिसमील या 18 डिसमील जमीन होगी तो अधिकारीगण कैसे उसका बँटवारा करेंगे, इस विषय पर वे कोई स्पष्टीकरण नहीं दिए। साथ ही वे अपनी बातों को साबित करने के लिए कोई सबूत या सरकारी नोटिफिकेशन पेश नहीं सके। उनका कहना था कि हर परिवार को अपनी पूरी जमीन का पट्टा मिल रहा है, इसलिए सरकारी आदेश या नोटिफिकेशन की बात न की जाए। ऐसा कार्य कहाँ-कहाँ किया जा रहा है? इस पर वे कोई स्पष्टीकरण नहीं दे सके। वे सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यगण थे, वे अधिक जानकारी रख सकते हैं, लेकिन उसे वे नियमानुसार या रीतिपूर्वक कानूनी सबूतो के आधारानुसार स्पष्टीकरण प्रस्तुत नहीं कर सके।

एडीएम ने बार-बार स्पष्ट किया कि वे सरकारी अधिकारी हैं और नोटिफिकेशन के आदेशों के अधीन ही कार्य करेंगे और सेवा शर्तों का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं अर्थात् वे पाँच डिसमील जमीन और 1 लाख बीस हजार रूपये की मदद के अलावा कोई अन्य कार्य नहीं कर सकते हैं। लेकिन कुछ प्रतिनिधियों ने अपने तई पूरी जमीन का पट्टा दिए जाने का दावा किया, जिसका कोई कानूनी आधार या आदेश या नोटिफिकेशन नहीं है और यदि कहीं ऐसा किया जा रहा हो तो वह एक खतरनाक बात होगी। वह भविष्य में लोगों को लीगल फेस में फंसाने के लिए दूरूपयोग किया जा सकता है। सीधे-सादे बगानियार लोगों को किसी गैर कानूनी कार्यों में लपेटना बहुत खतरनाक साबित हो सकता है।

एक परिवार के एक से अधिक सदस्यों को पट्टा मिलने पर कोई भी उसे प्रशासन के किसी भी स्तर पर चुनौती दे सकते हैं। परिवार के सदस्यों के नाम पर कम्प्लेन कर सकते हैं या सरकार को उन कर्मचारियों के विरूद्ध प्रशासनिक कार्रवाई करने के लिए विवश कर सकते हैं, जिसके हस्ताक्षर से नोटिफिकेशन का उल्लंघन करके आदेश के बाहर के कार्य हुए हैं। उससे सर्वे की पूरी प्रक्रिया पर सवाल खड़े हो सकते हैं। आज यदि किसी सरकार, प्रशासनिक अधिकार, कर्मचारी ऐसा करेंगे और वे कल अपने कार्यालय में नहीं रहेंगे, स्थानांतरित हो जाएँगे, या Retired हो जाएँगे या नये अधिकारी आएँगेे और नोटिफिकेशन के उल्लंघन की बातों की जाँच करेंगे तो अनेक लोगों के विरूद्ध में कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। याद रखें, सरकार या कोई अधिकारी आज कुर्सी पर है। कल वे वहाँ नहीं रहेंगे। पहला अगस्त को जारी नोटिफिकेशन में साफ लिखा हुआ है कि यदि जमीन कब्जेदार नियम, शर्तों का उल्लंघन करता है तो सरकार उससे उसकी कब्जे की जमीन को वापस ले लेगी और उसे दूसरे को दे देगी। बकौल एडीएम (एलआर) फिलहाल यही तय है कि हर परिवार को अपने कब्जे की जमीन में से पाँच डिसमील जमीन और एक लाख 20 हजार रूपये घर मरम्मत के लिए मिलेंगे। लेकिन इसके लिए भी विस्तार पूर्वक पूरी प्रक्रिया की नियम और शर्त अभी नोटिफाईड नहीं है। एडीएम की कई बातों का सरकारी आदेश अभी आना बाकी है।

चाह बगानियार सरकार से अपने वर्तमान घर के पूरी जमीन का अधिकार मांगा है। लेकिन सरकार सिर्फ 5 डिसमील जमीन देने की कार्रवाई कर रही है। सर्वे का काम दार्जिलिंग और कालिम्पोंग जिले में बंद है। लेकिन मैदान के जिलों में किया जा रहा है। यहाँ सरकारी नीतियों में भेदभाव स्पष्ट है। एक परिवार के पास 5 डिसमील से अधिक जमीन है। परिवार के बची हुई जमीन पर कानूनी तलवार लटकी हुई रहेगी और सरकार और नीति बदलने पर उस पर परिवार का कब्जा खत्म हो सकता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि सरकारी कार्य केवल और केवल सरकारी कागजों में उल्लेखित नियम और कानून के अधीन ही होता है। किसी भी मंत्री, अधिकार या किसी मजदूर संघ के किसी पदाधिकारी के मौखिक बातों का कोई वैल्यू या मान्यता नहीं होती है।

अंतिम बात यदि सरकार जमीन ही देना चाहती है तो पूरी जमीन का अधिकार दे, टुकड़ों में, आधे मन और नियत से न दे। चाय बगानियार सरकार के इसी आधे-अधूरे, आधे मन से किए जा रहे कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं और सर्वे के कार्यों को अपनी जमीन पर करने से मना कर रहे हैं। पिछले 10 सालों के बाद जमीन का अधिकार मिलने वाला है, ऐसे में उसे कानूनी भुलभुलैया में सरकार न डाले। आज एक सरकार है, कल दूसरी आएगी, नियम कानून सब बदल सकते हैं। लेकिन चाय बगानियारों के मानवीय, संवैधानिक और कानूनी अधिकार तो नहीं बदलेंगे, यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसलिए सभी को चाहिए कि वे सरकार से फिर से मांग करें कि सरकार पूरी जमीन के लिए नोटिफिकेशन निकालें। मतलब अभी आंदोलन खत्म करने का समय नहीं आया है। जमीन के अधिकार को चुनावी फायदे में बदलने के लिए उसे कानूनी उलझाव में नहीं फेंका जा सकता है। @highlight

न लें 5 डिसमील जमीन

#Most_Urgent_Dooars_Terai

बगानियारों ने सरकरा द्वारा उनके पूर्वजों से The West Bengal Estate Acquisition Act 1953 द्वारा गैर कानूनी रूप से छीन कर बागान मालिकों को सौंपे गए अपनी भूमि की वापसी की मांग किए थे। उन्होंने कभी भी 5 decimal जमीन की मांग नहीं की थी। लेकिन सरकार और प्रशासन बगानियारों की इच्छा के विरूद्ध उन पर 5 decimal जमीन थोपने की सारी कार्रवाई कर रही है और तृणमूल कांग्रेस पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें सहायता दी जा रही है।

.प्रशासनिक अधिकारी सरकारी नौकर होने के कारण सरकार के आदेश का पालन कर रहे हैं यह उनकी मजबूरी है। लेकिन भारतीय संविधान ने किसी भी समुदाय के ऊपर मनमाने ढंग से अपने निर्णय थोपने का अधिकार किसी को नहीं दिया है। न सरकार को न प्रशासन को और न ही किसी राजनैतिक पार्टी को। चाय बागानों में भोलेभाले बगानियारों के आधार कार्ड और बैंक पासबुक की प्रतियाँ ली जा रही है। कालचीनी के कई चाय बागानों में प्रतियों के साथ बगानियारों से 100 रूपये लेने का भी आरोप लगाया गया है।

.प्रशासन और पार्टी कार्यकर्ताओ के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि क्यों पश्चिम बंगाल सरकार ने दार्जिलिंग और कालिम्पोंग जिलों में L &LR and RR & R Department’s Notification No. 3076-LP Dated 01/08/2023 द्वारा GTA Area में अगले आदेश तक सर्वे का काम रोक देने का आदेश दिया है।

पहाड़ में 5 decimal जमीन सर्वे का काम रोका हुआ है? जबकि अन्य जिलों में इसे जनता के तमाम विरोध के बाद भी जबरदस्ती लोगों के गले में टाँगा जा रहा है।

.यह स्पष्ट हो गया है कि तृणमूल काग्रेस पार्टी के नेता और कार्यकर्ता जनता के हक, कल्याण और जनता के नुमांईदों के रूप में कार्य नहीं कर रहे हैं। बल्कि वे सरकारी आदेश के अनुसार हुकुम बजाने वाले सरकारी कर्मचारी बन गए हैं। क्या ऐसे लोग जनता से वोट मांगने का अधिकार रखते हैं। क्या उनमें राजनैतिक नेतृत्व का कोई गुण भी बचा हुआ है? यह एक दुखद बात है, इस पर जनता सुधार की मांग करती है।

.जो पार्टी जनता के दूरगामी, संवैधानिक हक अधिकारों के लिए आवाज़ नहीं उठा सकती हैं, वे भला जनता का क्या भला करेंगे ? मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी और अन्य पार्टियों की आवाज़ भी कहीं सुनाई नहीं दे रही है। क्या 20 लाख लोगों के अधिकार को यूँ ही रौंदा जा सकता है?

.प्रशासन ने बार-बार कहा है कि उसे केवल 5 decimal जमीन के सर्वे का काम सौंपा गया है। वे सरकारी आदेश से बंधे हुए हैं। सरकारी नौकर हैं। लेकिन जनता के प्रति राजनैतिक पार्टी और संगठनों का उत्तरदायित्व तो बहुत अधिक है। क्या वे भी सरकारी नौकर हैं ?

.जबकि आम बगानियार अपने घर भिट्टा की पूरी जमीन चाहे वह 5 decimal से कम हो चाहे ज्यादा हो का भूमि अधिकार मांग रहे हैं। राजनैतिक पार्टियों से जुड़े हुए नेता और कार्यकर्ता हमेशा जनता के उचित आकांक्षाओं की आवाज़ बनते हैं और उन्हें न्याय देने के लिए अपनी क्षमता का उपयोग करते हैं। वे गलत को गलत और सही को सही कहते हैं। तृणमूल काग्रेस पार्टी चुनाव में यदि जनता के वोट सच में पाना चाहती है तो उन्हें सरकार के 5 decimal आदेश को बदलने के लिए काम करना चाहिए न कि गलत ढंग से लोगों को पूरे घर भिट्टा की जमीन के बदले सिर्फ 5 decimal जमीन को थमाने के लिए अपनी शक्ति लगाना चाहिए। यह उनकी ऐतिहासिक भूल साबित होगी और लोगों को कानूनी रूप से कमजोर करने के दोष से वे बच नहीं सकेंगे। यदि वे इसे सुधार लेते हैं तौ उन्हें वोट पाने का पूरा अधिकार होगा।

.बगानियारों को the Limitation Act, 1963 के सेक्शन 7 के तहत पहले ही अपने पूरे घर भिट्टा की जमीन को Adverse possession legal principle के तहत पाने का पूरा अधिकार है। उनके इस अधिकार का हनन सरकार नहीं कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने कई निर्णयों में इस अधिकार की रक्षा की है।

.यहाँ पर इसे सर्वोच्च रूप से याद किया जाना चाहिए कि चाय बागान 1866 से बनाए जा रहे थे और चाय मजदूर तब से बागानों के आसपास रह रहे थे। सरकार ने कभी भी मजदूरों के बसने के लिए कोई जगह लीज में नहीं दी और मजदूरों ने जंगल काट कर परती जमीन का विकास करके अपने आदिवासी-गोर्खा गाँव बसाए थे। जिस जमीन पर वे बसे थे, उसे गैर कानूनी ढंग से उनसे लिखित रूप से या सार्वजनिक रूप से बिना पूछे, बिना क्षतिपूर्ति दिए 1953 में ही सरकार ने उसे अपने अधिकार में लेकर चाय बागान प्रबंधन को लेबर क्वार्टर बनाने के लिए दे दिया था। क्योंकि तब The Plantation Labour Act 1951 में Rules बनाया था कि प्रत्येक कंपनी को प्लान्टेशन लेबर को Quarters बना के देना होगा। Quarters आसमान में नहीं बनता, उसके लिए जमीन चाहिए थी, उसी के लिए सरकार ने मजदूरों के प्राईवेट जमीन को हड़प कर बागान प्रबंधन ने दे दिया था। आज उसी जमीन पर बगानियार एक-एक रूम बनाने के लिए मैनेजर से गिड़गिड़ा कर अनुमति मांगते हैं और बागान प्रबंधन अपनी जमींदारी धौंस दिखाता है। आज बगानियार अपनी ही जमीन पर भाडे़ का किरायादार बन कर रह गया है।

.तमाम नेताओं को समझना होगा कि उसी जमीन को आज बगानियारों को वापस देना है और इसे पूर्ण कानूनी तरीके से नोटिफिकेशन के माध्यम से दिया जाना चाहिए, गलत तरीके से कभी नहीं। ताकि अगले पचास सौ वर्षों में भी बगानियारों के साथ कोई चालाकी, अन्याय न किया जा सके। उस जमीन को कोई और गलत ढंग से छीन न सके। गलत ढंग से जमीन देने से कभी भी कानूनी लफड़ा उठ खड़ा होगा और इसमें अनपढ़ मजदूरों के साथ फिर से अन्याय किया जाएगा।

.पद, पैसा और वोट तो कभी भी हासिल हो सकता है, लेकिन 150 वर्षों से न्याय की आशा करने वाले समाज के साथ फिर कभी न्याय नहीं होगा।

.याद रखिए यह मामला बहुत गंभीर है और इसका बहुत दूरगामी प्रभाव होगा। लोकसभा चुनाव के पूर्व इसे सुलटा लेना चाहिए नहीं तो तृणमूल को फिर वोट नहीं मिलेगा। दार्जिलिंग के लोगों के साथ न्याय और मैदान के लोगों के साथ अन्याय यह नहीं चलेगा। यहाँ भी अलग राज्य की मांग जोर पकड़ सकती है। इसलिए राजनैतिक पार्टियों का ईमानदारी उत्तरदायित्व, जिम्मेदारी और सही कानूनी कार्य बहुत महत्वपूर्ण बन कर सामने आया है।

कृपया सभी बगानियार इसे शेयर करें।