खतरे में प्रेस स्वतंत्रता

नेह अर्जुन इंदवार

2023 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता की रैंकिंग में भारत इस वर्ष नीचे लुड़कते हुए लाओस से नीचे और जीबौटी और रूस के ऊपर 161वाँ स्थान में चला गया है। इसका सीधा मतलब है कि भारतीय प्रेस स्वतंत्रता खतरे में है। भारतीय प्रेस द्वारा दी जाने वाली खबरें, सूचनाएँ, अभिमत को 100 अंक में से सिर्फ 36.62 अंक ही मिले हैं। अर्थात् सच परोसने की उनकी विश्वसनीयता 100 तो क्या 50% भी नहीं है। इसका सीधा मतलब है कि आप जिस भी प्रेस के माध्यम से सूचनाएँ पाते हैं, उनकी विश्वसनीयता सिर्फ 36.62% ही है।

नीचे की तस्वीर में विश्व भर के देशों में प्रेस की स्वतंत्रता को विश्व मानचित्र में दिखलाया गया है। गरीब समझे जाने वाले अफ्रीकी देशों के मानचित्र रंग से यह जाना जा सकता है कि अफ्रीकी देशों में प्रेस की स्वतंत्रता भारत, चीन, रूस जैसे देशों से बेहतर है। अपने को विश्व गुरू कहने वाला भारत की स्थिति लज्जाजनक स्थिति से भी बदतर है। सोशल मीडिया में भारतीय मुख्य धारा की मीडिया को खुले आम घटिया स्तर का मीडिया कहा जाता है। सोशल मीडिया में आम जनता अपनी बात बिना लागलपेट के कह सकते हैं, जिनमें सच्चाई भी होती है।

मेरा यह पोस्ट हिंदी में है। कभी मैंने हिंदी पत्रकारिता से रोटियाँ खाई थीं। जब मैं पत्रकार हुआ करता था, तब मैंने कभी कहीं भी किसी भी स्तर पर खबरों के साथ छेड़छाड़ या भेदभाव करने की कोई घटना का सामना नहीं किया। हाँ जातिवादी भावनाओं से जरूर साक्षात्कार हुआ था और मेरे साथ एक ऐसे व्यक्ति ने जातिगत भेदभाव किया था, जो कभी एक बड़े अखबार का सम्पादक हुआ करता था और जो बाद में दूरदर्शन में समाचार वाचक भी बना था। लेकिन मुझे ऐसे अनेक लोगों का सहयोग और प्यार भी मिला, जो एक जाति विशेष के होकर भी मुझे बहुत प्रोत्साहन दिए। तब की और आज की स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है।

देश में प्रेस स्वतंत्रता के गर्त में जाने के कारणों में मुख्य धारा की मीडिया का जातिवादी होना भी एक कारण है। जहाँ कहीं भी विविधता की कमी होगी, वहाँ एकपक्षीय विचारों की गति ही बढ़ेगी। यहाँ पिछड़ी समझे जाने वाले समुदायों के साथ भेदभाव कोई वैश्विक रहस्य नहीं है। कभी देश में खोजी पत्रकारिता का क्रेज था और सरकारी जाँच एजेंसियों से अधिक तेज खोजी पत्रकार होते थे। कभी सुचेता दलाल, अरूण शौरी, रूसी करंजिया, विनोद जोस, किंशुक नाग आदि के खोजपरक रिपोर्ट पढ़ के जनता अंदरूनी खबरों से रूबरू होती थी। लेकिन आज अमेरिका की धरती से आई हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट पढ़ कर जनता चौंकती है। भारतीय मीडिया में ऐसा कोई मेधा वर्ग फिलहाल कहीं दिखाई नहीं देता है।

आज अखबारों में खबरों को बाहर निकालने से अधिक भीतर घुसाने या छिपाने के कोशिश अधिकतर देखे जाते हैं। शायद ही किसी हिंदी अखबार में सत्तारूढ पार्टियों या विज्ञापन देने वाली सरकार के विरूद्ध में कोई ऐसे न्यूज नहीं छापे जाते हैं, जिन्हें मीडिया के प्रमुख पेज में शान से छापना चाहिए होता है। आज की भारतीय मीडिया सरकार और सत्ता चला रही पार्टियों से सवाल पूछने के बजाय वह विपक्षी पार्टियों से सवाल पूछ कर अपने बिकाऊ होने का विज्ञापन खुद दे देता है। चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक सभी यहाँ बिकाऊ मीडिया का खिताब पा चुके हैं। यहाँ तक कि कई निडर, निष्पक्ष और संतुलित समझे जाने वाले अखबार भी बिकाऊ होने या भीरू होने के आरोप से बच नहीं सके हैं।

कहा जाता है कि खबर दिखाने वाला कैमरा झूठ नहीं परोसता है। लेकिन यह नहीं बतलाया जाता है कि कैमरा खुद ही चल कर सच्चाई का पीछा करते हुए अपना फोकस सच्चाई पर नहीं करता है, बल्कि कैमरे के पीछे के दिमाग की मर्जी से कैमरे में दृष्य कैद होते हैं। एक दिन में भारत जैसे विशाल देश में पचास हजार से अधिक महत्वपूर्ण घटनाएँ घटती है, लेकिन अखबार वाले सिर्फ उन्हीं खबरों को अपने पन्नों में समेटते हैं, जो उनके आकाओं के हितों के अनुकूल होते हैं। जो खबरें ज्वलंत सवालों के साथ समाज के सामने आना चाहिए होते हैं, उसे कैमरे के पीछे की आदमी की तरह बोथरा करके ज्वलंत सवालों को निकाल कर News and views दिया जाता है।

भारतीय मीडिया में सरकार के कामकाज की तुलनात्मक, विश्लेषणात्मक खबरें बहुत कम अखबारों में छपती हैं। मीडियाकर्मी किसी सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी, किसी भ्रष्ट, जनताद्रोही, व्यवस्थाद्रोही, देशद्रोही माफिया, देश को लूटने वाले, जनता को ठगने वाले पूँजीपति या पूँजीपतियों के गठजोड़ आदि के लिए काम करते हैं और वे उनके अनुकूल अपने अखबार का इस्तेमाल करते हैं। दुनिया में जिन देशों में प्रेस स्वतंत्रता अपने चरम अवस्था में है, वहाँ किसी भी तरह के गलत कार्यों का भंडाफोड़ चंद दिनों में ही हो जाता है और वहाँ गलत कार्य करने वालों को सार्वजनिक जीवन से सन्यास लेना होता है और वे जेल के कोठरियों की शोभा बढ़ाते हैं। लेकिन भारत में भ्रष्ट व्यक्तियों को जेल के बदले न्यायालयों से बेल आसानी से मिल जाते हैं, और जनता ऐसे व्यक्तियों को अपने वोट से उन्हें सिर आँखों पर बिठाती है।

स्थानीय स्तर पर निकलने वाले अखबार या न्यूज चैनल आदि तो तलवे चाटने के हद तक गिर कर जनता को सिर्फ भ्रमित करने के कार्य में लगे हुए रहते हैं। वे जनता के जीने मरने, उनके बिखरेते वजूद पर कभी कोई बात नहीं करतें है और फालतू के खबरों को विज्ञापन पाने के लिए यूज करते हुए धंधाबाज बने हुए होते हैं।

भारत घोषित रूप से एक लोकतांत्रिक देश है। लेकिन यहाँ लोकतंत्र नहीं है। यहाँ पैसेतंत्र का बोलबाला हो गया है। यदि ऐसा नहीं होता तो 1995 से फ्रांस में एक जनहित संगठन के रूप में मान्यता प्राप्त, RSF (Reporters sans frontiers या Reporters without Fronts जिन्हें संयुक्त राष्ट्र, यूनेस्को, यूरोप की परिषद और फ्रैंकोफ़ोनी के अंतर्राष्ट्रीय संगठन (OIF) आदि से Advisory (परामर्शदात्री) का दर्जा प्राप्त है, के द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता सूची में इसे 161 स्थान नहीं दिया जाता। यहाँ प्रेस की स्वाधीनता पर सवाल करने पर कोई कहता है, भला यहाँ प्रेस की स्वतंत्रता की जरूरत ही क्यों है? क्या हमारा पेट नहीं है या क्या हम बिजनेस करना ही छोड़ दें ? गोया स्वतंत्रता पैसे कमाने की मशीन हो !!!!

प्रेस की स्वतंत्रता के गिरने का सबसे अधिक खतरा लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के धराशायी होने पर इसका सीधा असर गरीब और मीडिल क्लास के लोगों पर होता है. क्योंकि उन्हीं के अधिकारों की रक्षा करने वाली व्यवस्था और प्रक्रियाओं का हनन सबसे अधिक होता है। प्रेस की स्वतंत्रता यदि बरकरार रहे तो सरकार को अपनी हर नीति को बहुत ठोक बजा कर ही लागू करना होता है। प्रेस की स्वतंत्रता के खत्म होने पर सरकार तो सरकार स्थानीय सभी सार्वजनिक संस्थाएँ और संस्थाओं को चलाने वाले भी निरंकुश हो जाते हैं। प्रेस की स्वतंत्रता के खतरे में होने पर पूरे देश की सभ्यता और व्यवस्था ही खतरे में पड़ जाती है। नोर्वे को विश्व के सबसे विकसित देश होने का खिताब यूंँ ही नहीं मिल गया है। प्रेस की स्वतंत्रता की सूची में नोर्वे सबसे अव्वल स्थान पर है।