जीएटीए में शमिल होने की उहापोह

नेह अर्जुन इंदवार

पर्वीतीय सैलानी शहर मंगपंग में 30 अक्तुबर रविवार को अखिल भारतीय आदिवासी विकास  परिषद (अविप) और गोर्खा जनमुक्ति मोर्चा के (गोजमुमो) बीच आयोजित संयुक्त संवाददाता सम्मेलन ने बंगाल के राजनैतिक धरातल में एक वैचारिक भुचाल ला दिया है।  एक राजनैतिक पार्टी और एक सामाजिक संगठन के बीच हुए समझौते ने न िसर्फ प्रशासन की नींद उडा दी है, बल्कि बंगाल के राजनैतिक और सामाजिक क्षितिज पर कई गंभीर सवाल भी खडे कर दिए है। आशा निराशा और विक्षोभ के भावनाओं में गोता लगाते हुए डुवार्स और तराई के आदिवासी आमजन परिषद के कार्यपद्धति और निर्णय प्रक्रिया को लेकर एक उहापोह की िस्थति से गुजरने को विवश हो गए हैं। इतना तो स्पष्ट हो गया है कि आदिवासी समाज में वैचारिक धरातल पर परिपक्व नेतृत्व का संकट बरकरार है।

आदिवासी समाज के सामने अपने ही संगठन और नेताओं के बारे अनेक प्रश्न खडे हो गए है हैं। पिछले तीन साल से परिषद गोजमुमो का प्रखर विरोध करता रहा है। डुवार्स और तराई पर गोजमुमो की दावा पर एक इंच जमीन भी नहीं देने की घोषणा करता रहा। लेकिन गोर्खालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन में शामिल होने के सवाल पर संगठन के अंदर सामुचित स्वीकृत प्रक्रिया को अपनाए बिना व्यक्तिगत स्तर और सम्पर्क पर लिए गए निर्णय ने समाज को हतप्रभ कर दिया है। इस घटना ने सामुहिक और व्यापक नेतृत्व की निर्णय प्रक्रिया में संकुचित दृष्टिकोण और गुटबाजी की मौजुदगी को एकबारगी ही उजागार कर दिया और बता दिया कि नेतृत्व के स्तर पर अभी भी गंभीर संकट मौजुद है। गोर्खा जनमुक्ति मोर्चा के घोर विरोधी रहे परिषद के आंचलिक नेतृत्व ने क्यों अचानक ही अपने घोषित िसद्धांतों से पलटा खा लिया इसका पडताल और विश्लेषण शायद लम्बे समय तक होता रहेगा। संगठन के अंदर सामुहिक रूप से लिए गए किसी िसद्धांत, नीति, निर्देशन को सर्वोच्च स्तर की स्वीकृति और व्यापक चर्चा के बिना िसर्फ तीन-चार पदाधिकारियों ने कैसे अपने स्तर की स्वीकृति और व्यापक चर्चा के बिना अपने स्तर पर बदल दिया और समाज के भविष्य की रूपरेखा तय कर दिया ? इन पदाधिकारियों को न तो इस तरह के समझौते करने के लिए अधिकृत किया गया था, न ही जटिलतम कानूनी पहलुओं की विशेषज्ञता इनके पास है। जबकि इस तरह के समझौते पर कई स्तरों पर गहन विचार विमर्श किया जाता है और संविधान विशेषज्ञों की राय ली जाती है।

 किसी भी राजनैतिक या सामाजिक संगठन में वैचारिक मतभेद होना लोकतांत्रि्रक प्रक्रिया का हिस्सा और शुभ प्रतीक माना जाता है। आदिवासी समाज में हर स्तर में सामुहिकता, खुलेपन और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्राश्रय दिया जता है। खेत, खलिहान में काम करना हो या शिकार करना, चाहे नृत्य और गीत प्रस्तुत करना हो, सभी जगह सामुहिकता और खुलेपन का बोलबाला होता है।  आदिवासी समाज में सामुहिकता एक विशिष्ट गुण है इसका सम्मान तमाम परंपारिक निर्णय प्रक्रिया में भी दृष्टिगोचर होता है। समाज में सामाहिक नेतृत्व प्रदान करने और सामुहिक-निर्णय लेने की प्राचीन परंपरा रही है। विकास की प्रक्रिया में पीछे पड जाने वाला आदिवासी समाज में आज भी परंपरा का पालन होता है और समाज के नेतृत्व से भी अपेक्षा रहता है कि वह समाज के विश्वास को हािसल करे और खुलेपन के साथ समाज का नेतृत्व करे। गोपन करना और गोपनीय सामाजिक व्प्यवहार को को समाज हमेशा नीचे की नजर से देखता आया है। खुलेपन की हिमायती समाज में परिषद के कुछ नेताओं द्वारा गोपनीय स्तर पर लिए गए निर्णय से डुवार्स और तराई के आदिवासी समाज में अक्रोश और निराशा व्याप्त हैै। हताशा के  स्वत:स्फूर्त प्रतिक्रिया में आदिवासी आमजनों द्वारा नेताओं को घेरने की खबरें भी आई।

अविप में खण्डित एकजुटता का लाभ उठाने के लिए राजनैतिक पार्टियॉं सुअवसर ढूंढ रही है, अविप द्वारा पिछडापन और भेदभाव का कारण बता कर जीटीए में शामिल होने की बात पर प्रशासन भी अपनी खामियों को छुपाने का बहाना तलाश रही है। वहीं आदिवासी समाज में नेतृत्व की खामियों को पाटने और इससे उबरने  की जद्दोजहद भी दिखाई पड रही है। शायद आदिवासी समाज अपने नेतृत्व की वैचारिक खामियों से निकट भविष्य में निपट भी ले। लेकिन समाज के सामने खडी अंधकारमय भविष्य में कोई सूरज का उदय होगा या नहीं इसके बारे वे आश्वस्त नहीं हैं।

डुवार्स और तराई में बहुसंख्यक के रूप में बसे आदिवािसयों का लाभ तो सभी उठाना चाहते हैं, लेकिन आज तक किसी भी महल से उनके हिस्से की विकास की सच्ची बातें नहीं कही गई। यह दुख, शर्म और गहरी विचारनीय बात है कि पूरे भारत में अपनी बौद्धिकता की धाक दिखाने वाले और प्रगतिशील वैचारिक आंदोलनों को पूरे देश में विस्तार देने वाले बंगाल में ही आदिवासी समाज को सरकार इतना भी ढांचागत सुविधा उपलब्ध नहीं करा सकी की वह अपने समाज से एक आईएसए, आईपीएस, डब्ल्युबीसीएस अफसर पैदा कर सके। उच्चधिकारियों की बात तो दूर वह एक पुलिस इंस्पेक्टर, डाक्टर, इंजीनियर, लेक्चरर, वकील, लेखक, पत्रकार, व्यवसायी, प्रबंधक, ठेकेदार, ओवरसीयर तक पैदा नहीं कर सका। लेकिन प्रगतिशीलता का ढिंढोरा पीटने वाला बंगाल सरकार और बंगाली बुद्धिजीवीयों को न तो इसमें शर्म महसूस होती है न ही जिम्मेदारियों की गहरी असफलता का बोध। इसे संवेदनशीलता की कमी समझा जाए या व्यवस्था का चरमराने का प्रतीक।

 अविप की आंचलिक समिति क्यों अपने विरोधियों से हाथ मिलाने को विवश हुई, इस पर भी गौर किया जाना चाहिए । आदिवािसयों के विकास और स्वशासन की मांगों को सरकार कई बार ठुकरा चुकी है। गोजमुमो से निपटने में असहाय पिछली सरकार अविप को तलवार की तरह इस्तेमाल कर चुकी है। अधिकार, विकास, पहचान और स्वशासन के आकांक्षित समुदायों को अपने हितों की सुरक्षा के लिए राजनैतिक पार्टियॉं अपनी सुविधानुसार हमेशा लडाने भिडाने का जुगाड भिडाती रही है। विकास के दौड में पीछे पड गए समुदाय जब भी बराबरी-हक और सुविधा की मांग करती है, समस्त संसार में सत्तासीन सामंतवादी तत्व उनका पूरजोर विरोध करती रही है। सत्ताशीन तत्वों की विरोधी बल से मुकाबल करने के लिए सभी शोषित और वंचित एक हो जाया करते हैं।

  डुवार्स और तराई में आदिवासी और गोर्खा एक ही तरह के शोषण, वंचना और पक्षपात से जुझ रहे हैं। ऐसे में दोनों समुदायों को एक होकर हक की लडाई लडनी चाहिए थी। लेकिन वे यहॉं एक दूसरे से लड कर अपनी उर्जा को नष्ट कर रहे थे। हक की लडाई में दोनों का ह थ मिलाना एक अच्छी शुरूआत है। लेकिन अविप की आंचलिक समिति के नेतृत्व के जल्दीबाजी और गोपीनय ढंग अपनाने से मामला बिगड गया है। उन्हें शायद इस बात की इल्म नहीं है कि विराट समुदाय के विश्वास को हािसल किए बिना इतिहास नहीं बनता है।

 डुवार्स और तराई में राजनैतिक शांति और समृद्धि की बातें आदिवासी समाज के आंतरिक भावनाओं और परंपाराओं को समझे बिना नहीं की जा सकती है। विकास की प्रक्रिया से आदिवासी समाज को वंचित रखना न िसर्फ अन्यायी कार्य होगा, बल्कि यह भविष्य के लिए संकट का बीज भी होगा।

आदिवािसयों के साथ बंगाल की हर सरकार सौतेला व्यवहार करती रही है। उनकी भाषाई, सांस्कृतिक, सामाजिक पहचान की उपेक्षा की गई। संगठित क्षेत्र में कार्य करके भी चाय बागान श्रमिकों को असंगठित क्षेत्र के लिए निर्धारित मजदूरी से कम राशि दी जाती रही और सर्वहारा के नारा लगाने वाली सरकार ने अन्यायपूर्ण मजदूरी समझौतों को स्वीकृति देती रही। बंगाल में श्रमिक शोषण के राज को बदस्तुर चलाने में असचेत और भ्रष्ट अमला अपना योगदान देते रहे हैं। हर तरह के शोषण और उपेक्षा का शिकार रहे आदिवासी जनता के स्वशासन की मांग को सरकार ने कभी स्वीकृति नहीं दी। जबकि उन्हे शोषण से बचाने और स्वशािसत क्षेत्र में उन्हें शासनाधिकार देने के लिए पॉंचवी अनुसूची में व्यवस्था दी गई है और इसी कडी में सन् 1953 में बंगाल में ट्राइबल एडवाजरी कांउन्सिल का गठन भी किया गया था। आज यदि आदिवासी समाज शोषण से बचने और प्रगति के पथ में आगे बढने के लिए अपने घोर विरोधी रहे गोर्खाजन मुक्ति मोर्चा के साथ गलबहियॉं करना चाहता है तो सरकार को अपने ऑखों से हठ का चश्मा उतार फेंक देना चाहिए और अपनी नीतियों की गहराई से समीक्षा करनी चाहिए। उसे जान लेना चाहिए कि आदिवािसयों में हताशा की सीमा अपने चरम सीमा तक पहुच चुकी है और वे कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हैं।

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