बदलता भारत

नेह अर्जुन इंदवार

 बदलती दुनिया का शेष भाग …

मनुष्य के शरीर को गुलामी की जंजीरों में बाँधा जा सकता है। लेकिन दिमाग को कोई बादशाह या निरंकुश तानाशाह कभी भी बाँध कर नहीं रख सकता है। गुलामी में भी दिमाग क्रियाशील होती है और वह अपना काम करते रहता है। धर्म के मामले पर भी यही हुआ है।

समुद्र में कहीं खो गए लेकिन किवदंतियों में अमर हो गए एटलांटिक सभ्यता में भी धर्म का उल्लेख मिलता है। युनानी सभ्यता में अनेक देवी देवताओं का उल्लेख मिलता है। आज के धर्म की तरह ही उनके बीच में भी मैं सच्चा तू झूठा की बात जरूर रही होगी। धर्म के अडियल विचारों से खून खराबा कितनी हुई, इसकी कोई गिनती संभव नहीं है। प्राचीन काल से चल कर लोकतांत्रिक देशों में होने वाले साम्प्रदायिक दंगे उसी की आधुनिक कड़ी है। आज भी धर्म के नाम पर लोग मारे जाते हैं। धर्म के नाम पर राजनीति होती है और विधर्मी को सताया जाता है। जबकि सभी धर्म भाईचारा, मानवता, समानता, न्याय, स्वतंत्रता की बातें करते हैं।

राजनीति और आर्थिक गठजोड़ अपनी संस्कृति और दर्शन का दबदबा बनाए रखने से कभी बाज नहीं आया है और भविष्य में यह बाज आएगा, ऐसी उम्मीद फिलहाल नहीं रखा जा सकती है। अपने को सच्चा, श्रेष्ठ, सुसंस्कृत समझना और दूसरों को कमतर, घटिया, झूठा समझने की बीमारी कहाँ जाकर खत्म होगी, फिलहाल इस पर कोई निश्चित मत नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि इस सोच के अंदरखाने में मनुष्य का अहंकार, स्वार्थ और हिंसक भाव जुड़ा रहता है।

एक धर्म वालों की नज़र में दूसरे धर्म वाले मूर्ख होते हैं या गलत ईश्वर को मानने वाले होते हैं। वे दिल में मानते हैं कि सामने वाले को सच्चा ईश्वर के बारे कुछ भी नहीं पता। वे अपने धर्म के साथ धुल-मिल गए संस्कृति, परंपरा, रीति-नीति को श्रेष्ठ समझते हैं। वे दूसरों को दिमागी रूप से अपरिपक्व और सुसंस्कृतिहीन समझते हैं। उन्हें लगता है कि दूसरे भी उनकी सोच, जीवन-दर्शन, धर्म दर्शन, संस्कृति, जीवन मूल्यों को अपनाएँ और उनकी तरह बन जाएँ। धार्मिक प्रतिस्पर्धा की भावनाओं से संचित धर्म का यह वास्तविक रूप होता है। इन्हीं सोच और विचारधारा से धर्म प्रचार की भावना का उद्भव हुआ। अपने विचारों में पैदा हुआ घमंड और दंभ के कारण ही सीदे-साधे समुदायों को घटिया नाम देकर उसका नया नामकरण करने की चेष्टा की जाती है।

प्राचीन काल के तमाम साम्राज्यों के राज दरबार में ऐसे लोग होते थे, जो राजा को बताते थे कि पूरी दुनिया में उनका (राजा का) शासन व्यवस्था सबसे श्रेष्ठ है और उनकी सोच और व्यवहार, पर्व त्यौहार, पूजा-पाठ, टैक्स व्यवस्था और जनता कल्याण की भावना सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए साम्राज्य की सीमा से बाहर रहने वाले कमतर या संस्कृतिहीन, बर्बर समाज को उनके राज्य की परम श्रेष्ठता, धर्म और दर्शन से परिचय कराना आवश्यक है। यदि वे परिचय के बाद उसे अपना लेते हैं तो ठीक हैं यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें शक्ति लगाकर भी ऐसा करवाया जाए।

अक्सर राजा अपने राज्य की सीमा बढ़ाने से अधिक अपनी प्रभामंडल के विस्तार के लिए दूसरे राज्यों पर चढ़ाई कर दिया करते थे। प्राचीन चीन के राजा और कुलीन वर्ग, प्राचीन मेसोपोटामिया, रोमन, यूनानी या मिश्र के राजा अपनी सीमा के बाहर वालों को असभ्य, बर्बर, संस्कृतिहीन, कलाहीन कह कर उन्हें सभ्य बनाने के लिए ताकत के बल पर अपने साम्राज्य में मिलाने की नीति का अनुकरण करते थे। उन्हें लगता था कि जिन दर्शनों को मान कर वे उन्नत्ति के ऊंचे शिखर पर पहुँचे हैं, वही दर्शन वे असभ्यों को भी सिखाना चाहते थे। इस तरह वे खुद को ऊँचे मूल्यों से सम्पन्न मनुष्य सिद्ध कर सकें। ईसाई-मुस्लिम धर्म दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए जहाँ दया, माया और तलवार को अभिन्न अंग माना गया। वहीं बौद्ध धर्म दर्शन को भी दूसरे अज्ञानी समाजों तक पहुँचाने के लिए प्रचारक दूर-दूर देशों तक की यात्राएँ किए। अपनी सोच-दर्शन, विचार-धारा, जीवन मूल्यों को दूसरों पर लादने, दूसरों को अपनी सोच से कायल कर देने का दंभ, प्राचीन काल से लेकर आवार्चीन काल तक के सभी धर्में का अभिन्न शगल रहा है। अपनी संस्कृति को राष्ट्रीय संस्कृति या मुख्य धारा बनाने की मुहिम से कोई भी शक्तिशाली बहुसंख्यक बाज नहीं आता है। इसके लिए वे नये-नये संदर्भ, इतिहास और मिथक ढूँढते हैं। अपने खान-पान, रीति, रिवाजों, पर्व त्यौहारों को मुख्यधारा के राष्ट्रीय महत्व की सिद्ध करते हैं। बहुसंख्यक समाज कैसे अल्पसंख्यक समाजों पर अपनी मर्जी थोपता है ? उसे जानने के लिए राजनीति, सरकारी नीति, अर्थ-नीति, साहित्य, मीडिया के कार्य पद्धति को समझना पड़ता है।

सांस्कृतिक अधिपत्य (Cultural Hegemony) जमाने के लिए बहुसंख्यक अपनी तमाम सोच, दर्शन, जीवन-मूल्यों को मीडिया के माध्यम से आर्थिक और राजनीतिक कार्यकलापों के माध्यम से साधारण तरीके तो स्कूली शिक्षा के लिए तैयार किए गए पाठ्यक्रमों के माध्यम से विशेष रूप से थोपता है। किसी भी देश के बहुसंख्यक समाज भूल कर भी अल्प संख्यक समाजों में प्रचलित जीवन मूल्यों को बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं देता है।

 राजनैतिक-आर्थिक शक्ति जहाँ नयी कला-संस्कृति और इससे जुड़ी सम्पन्नता को स्थायी बनाने की प्रक्रिया से गुजरती है, वहीं वह स्थापित दर्शनों, विश्वासों को भी नये आयाम देता है। अमेरिका में 7 करोड़ से अधिक लोग पारंपारिक धर्मों से नाता तोड़ चुके हैं। पश्चिमी यूरोप, स्काण्डिनेवियन यूरोप में धर्म से नाता तोड़ने वालों की संख्या अमेरिका से भी अधिक है। यूरोप के देशों में नास्तिकता को घोषित करने के लिए जनगणना प्रक्रिया तक में कॉलम बने होते हैं।  धर्म से नाता तोड़ने वालों की जहाँ पृष्टभूमि ईसायत, बुद्धिष्ट, चीनी, जपानी, भारतीयों में खोजी जा सकती हैं, वहीं एक्स मुस्लिम नामक रजिस्टर्ड संस्था भी अमेरिका और जर्मनी आदि देशों में स्थापित हैं। मुस्लिम धर्म त्यागने वालों को डर सताता रहता है कि उन्हें ऐसा करने पर उनके ही लोग शारीरिक हानि पहुँचा सकते हैं। मध्य एशिया के कट्टरपंथी देशों से यूरोप में बसने के लिए जाने वाले अनेक लोग यूरोप, कनाडा आदि जाकर सबसे पहले अपनी कट्टरपंथी भावना का त्याग करते हैं। मध्य पूर्व के कई राजकुमारियों का अपने देश से भाग कर पश्चि की देशों में शरण लेने और अपनी पुरानी परंपारिक विश्वास को त्यागने की अनेक खबरे पश्चमी मीडिया में बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित होती रही है।

आर्थिक और राजनैतिक स्वतंत्रता नये क्षेत्रों में शोध करने के लिए मेधावी लोगों को प्रेरित करता है। कोन्सपेरेसी थियॉरी पर विश्वास करने वाले प्राचीन काल के भगवानों, ईश्वरों से संबंधित घटनाओं को अनेक प्राग-ऐतिहासिक और अन्य परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर अन्य ग्रहों से आने वाले एलियन साबित कर रहे हैं और धर्म दर्शन को नये मोड़ दे रहे हैं। नासा और अन्य देशों के अंतरिक्ष विज्ञानी, कई देशों के राजाध्यक्षों, मंत्रियों, खुफिया तंत्रों से जुड़े लोग भी दबी जुबानी कोन्सपेरेसी थियॉरी पर अपने विश्वास व्यक्त कर रहे हैं। एलियन से संबंधित तीन घटनाओं की साक्षी तो मैं (नेह) खुद रह चुका हूँ।

दुनिया में जितनी तेजी से ज्ञान-विज्ञान की सीमा विस्तार ले रही है, उसी हिसाब से दुनिया की राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति और जीवन दर्शन भी बदल रही है। यहाँ पराने विश्वास दरक रहे हैं, वहीं नये विज्ञान सम्मत धर्मों का भी उदय हो रहे हैं। एक धर्म से दूसरे धर्म में मुक्ति ढूँढ़ रहे लोगों के साथ किसी धर्म की छतरी में गए बिना ही आध्यात्मिकता के राह से ही मुक्ति ढूँढ़ने वालों की भी कमी नहीं है। मनुष्य के दिमागों पर शोध करके उसके पारलौकिकता शक्तियों का पता लगाया जा रहा है। विज्ञान शालाओं में बैठ कर टेलिपैथी के सहारे दीन-दुखियों तक पहुँच बनाया जा रहा है। धर्म को महत्वपूर्ण न मान कर दिमाग को महत्वपूर्ण मान कर उसके अंदर की रहस्यों पर शोध किए जा रहे हैं।

भारत भी किसी भी मामले पर पीछे नहीं है। यहाँ भी विचारधाराओं में बड़े बदलाव आ रहे हैं। विज्ञान शोधालयों में शोध किए जा रहे हैं। भारतीय आधुनिक विज्ञान में भविष्य देख रहे हैं। पूरी दुनिया के साथ भारत के शोधार्थी भी हजारों क्षेत्रों में शोध कर रहे हैं। मतलब भारत बदल रह है। यह सार्वभौमिक रूप से दृष्टिगोचर नहीं है, लेकिन भारतीय अंतरधारा में यह बड़ी तेजी से बह रही है। दिमाग को किसी बंधन से परे लेकर स्वतंत्रता दें। धीरे-धीरे अनेक बातें स्पष्ट दिखाई देने लगेगी।