कैसे मनाएँ आदिवासी दिवस

नेह इंदवार

आज कल देश के सभी आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी दिवस मनाया जाता है। कई जगहों में इसे रूढिगत रूप से मनाया जाता है। हर साल द्वीप प्रजवल्लित करके विद्वानों का भाषण, नृत्य आदि के कार्यक्रम आयोजित करके इसकी इतश्री कर ली जाती है। फिर उसे अगले साल के आदिवासी दिवस के लिए मुल्तवी कर दी जाती है। अधिकतर दिवसों को इसी तरह से मनाने की रीति रही है। जो व्यक्ति ऐसे  दिवस पर अपने कार्यक्रमों के फोटो सोशल मीडिया में नहीं डालता है, उसकी निंदा तक की जाती है। गोया लोगों को सबूत किया जाए कि उक्त दिन में आप शामिल थे और उसका साक्ष्य यह फोटो है। पुनः एक दिन एक दिवस मना लेने से यह समझ विकसित हो जाती है कि उन तमाम उद्देश्य और लक्ष्यों की प्राप्ति हो जाती है, जिनके सिंबल में वह दिवस मनाया जाता है। भले ही आप साल भर घोड़े बेच कर सोते रहें या साल भर समाज हित में कुछ न करें।

रूढ़ हो चुके कार्यक्रमों के आगे भी दुनिया होती है। इन्नोवेशन की कोई सीमा नहीं होती है। मुझे लगता है, इस दिन को कुछ अन्य तरीके से भी मनाया जा सकता है। सबसे प्रथम तो किसी भी उद्देश्य और लक्ष्य के लिए सुविचारित, स्तरीय कार्यक्रमों की लिखित रूप से रूपरेखा तैयार करना और सबकी सहमति-सहयोग से उसे  चरणबद्ध रूप से अनावरत कार्यन्वित करना। महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यक्रमों को आदिवासी दिवस के दिन प्रमोचित (Launch) किया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र ने UN Declaration on the Rights of Indigenous Peoples (UNDRIP)  के माध्यम से आदिवासी वजूद और अधिकारों पर कई घोषणाएं की हैं और भारत भी इन घोषणा का एक हस्ताक्षरी देश है। इन घोषणाओं में आदिवासियों की भौगोलिक क्षेत्राधिकार (Territorial rights- Article 2) बहुत महत्वपूर्ण है। भारत में पाँचवी अनुसूची और छटवीं अनुसूची  के क्षेत्र में आदिवासी रहते हैं। लेकिन तमाम कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भारत में आदिवासी जमीन की लूट अबाध गति से चालू है। कई संगठन भूमि बचाओ कार्यक्रमों पर बातें करती है, यह बातें आदिवासी दिवस पर भी होती हैं, लेकिन भूमि बचाने के लिए वे साल भर कोई अभियान या आंदोलन नहीं चलाते हैं। भारत या विभिन्न राज्यों में  ऐसा कोई मजबूत संसाधनों से सम्पन्न कोई संगठन नहीं  है, जिसके पास गरीब आदिवासी अपनी भूमि को बचाने के लिए जा सकें और गरीबों की ओर से यह  संगठन सरकार और न्यायालय में गरीबों के अधिकारों की रक्षा कर सके। आदिवासी भौगोलिक क्षेत्रों की भूमि को बचाने का अधिकार आदिवासी समाज को है और वह इस संबंध में ऐतिहासिक परंपराओं के साथ कानूनी रूप से जमीन को बचाने के लिए निर्णायक निर्णय ले सकता है।  UNDRIP ने आदिवासी जैव-सांस्कृतिक अधिकार (Bio-cultural rights – अनुच्छेद 31) पर भी महत्वपूर्ण घोषणा की है। जिसके तहत आनुवंशिक संसाधन, बीज, दवाएं, वनस्पतियों और जीवों के गुणों का ज्ञान के संरक्षण सहित आदिवासियों को अपनी सांस्कृतिक विरासत, पारंपारिक ज्ञान और पारंपारिक सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को बचाए रखने, उसका नियंत्रित करने, उसे विकसित करने का अधिकार दिया गया है। लेकिन भारत में  आदिवासी जैव-सांस्कृतिक अधिकार पर काम करने वाली संस्थाएँ न कहीं दिखाई देती हैं और न कहीं आदिवासी दिवस पर इन पर कोई गंभीर मंत्रणा होती है।  

UNDRIP ने आदिवासियों के आत्मनिर्णय का अधिकार the right to self-determination (Article 3) के अधिकार को भी स्वीकार किया है। आदिवासी समाज और अधिकारों को प्रभावित करने वाले मामलों में आदिवासियों को आत्मनिर्णय करने का अधिकार है। भारतीय संविधान के तहत भी रूढ़ि व्यवस्था, पारंपारिक ग्रामसभा को मान्यता दी गई है और इन संस्थाओं के माध्यम से आदिवासियों को आत्म निर्णय के अधिकार दिए गए हैं। आदिवासी क्षेत्र का प्रशासन और समाज कैसा हो यह निर्णय करने का अधिकार आदिवासी समाज को है। आदिवासी इस देश में 50 हजार सालों से रहते रहे हैं, पूरा देश पर ही उनका अधिकार और शासन था। लेकिन बाहरी आबादी और आजादी के बाद बने विभिन्न कानूनों के कारण अधिकांश आदिवासी जमीन छीन ली गई है। आदिवासियों को भूमिहीन बनाने के कई कानून बनाए गए और टूकड़े-टूकड़े चरणबद्ध चालाकियों के द्वारा उनकी जमीन छीनी जा रही है। आदिवासी समाज से बने जनप्रतिनिधि और सामाजिक संगठन इस बातों पर क्या काम कर रहे हैं, यह आमतौर से सार्वजनिक रूप से कोई नहीं जानता। आदिवासी दिवस पर कुछ मिनटों के भाषण से इन समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र ने कहा  है कि यदि आदिवासी जनता अपने स्थानीय शासन प्रणालियों में विशिष्ट प्रावधानों को लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र घोषणा का उपयोग करते हैं, तो घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाली राष्ट्रीय सरकारों का कर्तव्य है कि वे इन प्रावधानों का सम्मान करें। हमें संयुक्त राष्ट्र के इस कथन या स्टेटमेंट का लाभ लेना चाहिए। अब बात आती है कि आदिवासी दिवस को सफल बनाने के लिए हमें किस तरह के कार्यक्रमों को अपनाना चाहिए।

आदिवासी समाज के लिए जमीन पर कब्जा और अधिकार बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे पानी के बाहर मछलियाँ जिंदा नहीं रहती हैं, वैसे ही आदिवासी की वजूद जमीन के बिना खत्म हो जाती है। समाज, संस्कृति, भाषा, जमीन, पारंपारिक ज्ञान आदि कुछ ऐसे विषय हैं, जिन पर आदिवासी दिवस पर न सिर्फ बेबाक बहस की जरूरत है, बल्कि इन्हें बचाए रखने के लिए लम्बे कार्यक्रमों का प्रमोचन की भी जरूरत बहुत है।

समाज में महिलाओं, युवाओं, बच्चों, बड़े बुजुर्गों की भागीदारी निश्चित किया जाने के लिए ऐसे कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए, जहाँ  वे समाज से सक्रिय रूप से भाग ले सकें। विभिन्न खेलों में बच्चे भाग ले सकें। उन्हें प्रतिभावान बना सकें और ज्ञान से संबंधित क्षेत्रों में उनकी रूचि को बढ़ा सकें, ऐसे कार्यक्रम आदिवासी दिवस के अवसर पर प्रमोचित (लंच) किए जा सकते हैं। आदिवासी भाषाओं को बचाए रखने  के लिए हर स्तर पर समाज के सदस्यों को जोड़ने के कार्यक्रम भी बनाए जा सकते  हैं। इस अवसर पर आनुवंशिक संसाधन,  बीज, दवाएं, वनस्पतियों और जीवों के गुणों का ज्ञान को संरक्षित करने के लिए कार्यक्रमों को भी शुरू किए जा सकते हैं। भौगोलिक क्षेत्राधिकार को चिन्हित करने के लिए आदिवासी दिवस पर गाँवों की सीमा, आदिवासी खेतों की पहचान, शमशान आदि के भौगोलिक क्षेत्रफल और सीमा आदि की पहचान के लिए पत्थलगड़ी की शुरूआत किए जा सकते हैं। इस दिन को विभिन्न क्षेत्रों में नकदी फसलों, पेड़ पौधों के लिए सामूहिक वृक्षारोपन की शुरूआत की जा सकती है। आदिवासी दिवस पर सामाजिक सामूहिक व्यापारिक गतिविधियों यथा गाँवों में महिलाओं के लिए सिलाई कढ़ाई, बिक्री के लिए विभिन्न प्रकार के पकवान – पापड़, आचार बनाने के केन्द्र आदि भी बनाए जा सकते हैं। युवाओं के लिए कम्प्यूटर केन्द्र, गणित, भाषा और विज्ञान की पढ़ाई के लिए केन्द्र का निर्माण, सामूहिक सोलार पैनल की स्थापना आदि सैकड़ों कार्यों की शुरूआत की जा सकती है। आदिवासी दिवस पर नये संगठन, राजनैतिक पार्टी, आदिवासी वकील संघ, इंजीनियर संघ, अधिकारी संघ, नर्स संघ, डाक्टर संघ, पत्रकार संघ, लेखक संघ, युवा संघ, आदिवासी व्यापार संघ आदि की स्थापना की जा सकती है। ऐसे न जाने कितने नये कार्यों की शुरूआत जो समाज के हित, अधिकार, सुरक्षा और संरक्षा के लिए हो सकती है, बनाए जा सकते हैं।