क्या फिर धोखा होगा चाय मजदूरों के साथ ?

नेह अर्जुन इंदवार 

मजदूरों का वेतन समझौता के कई दौर का वार्ता हो चुका है । लेकिन कोई तार्किक परिणति पर नहीं पहुँचा जा सका है । मजदूर संघ 323 रूपये मजदूरी की मांग कर रहे हैं और मालिक संघ वर्तमान 95 रूपये में 21 रूपये वृद्वि देने का प्रस्ताव दे रहे हैं । इन वार्ताओं में कोई निर्णायक बात छन कर नहीं आ रही है । मजदूर संघ भारी महंगाई में एक सम्मानजनक, जीवन यापन करने लायक तथा काननून मान्य मजदूरी की मांग कर रहे हैं, लेकिन मालिक पक्ष चाय उद्योग के खास्ता आर्थिक दशा का रोना रोते हुए सिर्फ थोड़े से मजदूरी बनाने की सामर्थ्य की बातें कर रहें हैं । ऐसे ही घटनाक्रम हर वेतन वार्ता में होता रहा है और अंत में मजदूरों के लिए नाममात्र की मजदूरी मिलती रही है ।

पिछले दो दशक में कई बार चाय मजदूरों का वेतन समझौता हो चुका है और हर बार मजदूर संघ अन्य उद्योगों में लागू वेतनमानों के अनुसार अपनी बात वार्ता के हर दौर में रखते रहे हैं । लेकिन कई बार के वार्ता के बाद वे अन्य उद्योंगों में लागू वेतनमान की तो बात ही अलग, पश्चिम बंगाल और असम सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी के सबसे निचले स्तर के वेतनमान तक को हासिल नहीं कर पाते हैं और वे मजदूरों के पक्ष की ओर से महज कुछ रूपयों के बढ़ोतरी को स्वीकार करते हुए वेतन समझौते में हस्ताक्षर कर देते हैं।

चाय मजदूरों का यह वेतन या मजदूरी भारतवर्ष के संगठित क्षेत्र में मिलने वाला सबसे कम वेतन होता है । तुर्रा यह कि मजदूर संघ इसे अपनी कामयाबी के रूप में अनपढ़ और मजबूर मजदूरों के बीच में प्रचारित करते हैं और वाहवाही लूटने की कोशिश करते हैं । मजदूरों के पक्ष में आंदोलन करने वाले मजदूर संघों का यह रवैया निश्चिय ही हैरानी करने वाला है । बात यहीं आकर रूकती नहीं, ऊपर से वे बढ़ती के नाम पर मजदूरों से चंदा भी उघाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वे मजदूर संघ वास्तव में मजदूरों की वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं ? क्या वे मजदूरों के स्वार्थ की रक्षा करने में समर्थ हैं ? यदि वे मजदूरों की स्वार्थ रक्षा में सफल नहीं रहते हैं तो क्यों वे मजदूरों के पास जाकर इसकी सफलता का श्रेय लेने की कोशिश करते हैं ? वे कम मजदूरी के समझौता करने के बजाय क्यों वे इसे किसी संवैधानिक निकाय यथा लेबर कोर्ट, हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के हवाले नहीं करते हैं ? कई सवाल हैं, कई बातें हैं जिन पर मजदूरों को जवाब मिलनी चाहिए । एक अहम सवाल है कि क्या ये मजदूर संघ एक सम्मानजनक मजदूरी दिलाने में सक्षम है ?

मजदूरों के स्वार्थ में गठित मजदूर संघों ने चाय उद्योग से जुड़े समाज के हित के विरोध में इतने समझौते (Compromise) कर लिए हैं कि आज भारत वर्ष में पश्चिम बंगाल और असम के चाय मजदूर सबसे बेचारे समाज के रूप में अपनी पहचान बना लिए हैं। चाय उद्योग में इतना कम वेतन मिलता है कि कोई भी परिवार सम्मानजनक जीवन जीने के बारे सोच नहीं सकता है । चाय मजदूरों का आय का एकमात्र साधन मजदूरी है और इस मजदूरी के निर्णय में मुख्यरूप से मजदूर संघ ही करते हैं । कम वेतन के सवाल पर चाय उद्योग से जुड़े हुए मजदूर संघों ने वेतन मामले को लेकर कभी किसी संवैधानिक निकाय या कोर्ट में नहीं गए । क्यों ? भारतवर्ष में मजदूर संघों द्वारा वेतन समझौते नाकाम रहने पर कोर्ट के शरण में जाने के अनेक दृष्टांत मौजूद है । एक शोषणमूलक वेतन समझौतों को क्यों मजदूरों पर लादा जाता है यह एक शोध का विषय नहीं है । यह चाय बागानों के मजदूरों के बदहाल स्थिति को देखकर एक साधारण सा आदमी भी कह सकता है । चँूकि मजदूरों को मिलने वाली तमाम सुविधाएॅं और सम्मानजनक वेतन मजदूर संघों के क्षमता पर ही निर्भर करता है, उसके तोलमोल की क्षमता पर प्रशनवाचक निगाएॅं जाना स्वाभाविक है ।

चाय मजदूरों का वेतन समझौता जहाॅं मजदूरों केे लिए जीवन मरन का प्रश्न होता है । वहीं सरकार और चाय बागान मालिकों के लिए मजदूरी बढ़ाने का यह महज एक प्रक्रिया । राज्य सरकार, जिसका प्रतिनिधित्व श्रम मंत्रालय करता है, हर नियम कानून को धता बता कर, खुद कानून तोड़कर खुद एक ऐसे समझौता का हिस्सा बनता है, जो उन्हीं के द्वारा बनाए गए, घोषित किए गए और नोटिफाइड किए गए राज्य न्यूनतम कानून का मखौल उड़ाता है । श्रम मंत्रालय के इस प्रकार के हिस्सेदारी पर न तो चाय बागान मजदूरों के बल पर विधायक और सांसद बने जनप्रतिनिधि विधानसभा और संसद में कोई प्रश्न पूछते हैं न ही वे अन्य किसी प्रकार के विकल्प को प्रस्तुत करके सरकार का ध्यान आकृष्ट करते हैं । क्यों मजदूरों के पक्ष में बोलने वाले और आवाज उठाने वाले संस्था शोषणमूलक वेतन समझौते को किसी कोर्ट में चेलैंज नहीं करते हैं ? आखिर मजदूरों के हित चिंतक कौन हैं ? हर बार मालिक पक्ष अपने दमदार तर्को और कम से कम पैसे चुकाने के अपने इरादे पर अटल रहता है और हर बार कम पैसे में वेतन समझौते करके मजदूर संघों ने अपनी अक्षमता और विफलता का प्रदर्शन किया है ।

                                       चाय उद्योग से जुड़े मजदूर आंदोलन अब तक एक कमजोर आंदोलन के रूप में ही अपनी पहचान बनाया है । चाय मजदूर संघों के शीर्ष पदों में कहीं भी चाय मजदूर मौजूद नहीं है, बल्कि इनमें राजनैतिक दलों के बाहरी पदाधिकारी ही दशकों से काबिज हैं । स्थानीय समितियों में स्थानीय मजदूर जरूर हैं लेकिन वे सिर्फ खानापूर्ति के काम करते हैं। उन्हें मजदूरों के लिए बने विभिन्न कानून, उन कानूनों के लिए बने केन्द्र और राज्य सरकार के नियम, विनियम, आदेश, मजदूर मामलों के बारे अदालतों के निर्णय, मजदूरों के पक्ष में बने कंपनी, बीमा, ग्रेज्युटी, प्रोविडेंट फंड, राशनिंग, पानीय जल, विद्यतिकरण,  पंचायती व्यवस्था और उसका क्रियान्वयन तथा उसमें मजदूरों, आम गरीब व्यक्तियों के लिए बने कानूनी संरक्षण, बीपीएल कार्ड धारिकों के लिए दिए जाने वाले छूट और कानूनी, आर्थिक और सामाजिक सहायता, आम अदालतों में उपलब्ध कानूनी सहायता, स्वास्थ्य संबंधी केन्द्रीय और राज्यस्तरीय नियम कायदे, बच्चों और महिलाओं के लिए चलाए जा रहे विकास योजनाओं, दलित और आदिवासी उत्पिड़न निवारण कानून, घरेलु और व्यावसायिक हिंसा, बागान, फैक्टरी, अस्पताल कानूनों में समय-समय पर हुए बदलाव और संशोधनों के बारे कोई मुक्कमल जानकारी और ज्ञान नहीं है । न तो इन स्थानीय नेताओं को मजदूर संघ प्रशिक्षित करता है और न ही थोक में उनके वोट को प्राप्त करने वाले राजनैतिक पार्टियाॅं । कई मायने और कई बार ये मजदूर संघ सिर्फ खानापूरी की कार्रवाई करते हैं । इन कार्रवाईयों का वास्तविक लाभ मजदूरों को नहीं मिल पाता है ।

मालिक पक्ष द्वारा मजदूरों के शोषण की बातें सभी करते हैं। लेकिन मजदूर संघ अपने सदस्य मजदूरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और उन्हें कितना सम्मान देते हैं यह एक विचारनीय प्रश्न है । मजदूर आंदोलन के नाम पर बने संघों में कभी किसी नेता का चुनाव गुप्त मतदान के द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से किए जाने का कोई उदाहरण आमतौर से दिखाई नहीं देता है । वे मासिक या वार्षिक कार्यो, चंदें की आमद, उसका खर्च और बैंक में रखे पैसों का कोई लेखाजोखा हजारों मजदूरों के आम सभा में नहीं देते हैं ।

मजदूर संघों का परिचय ऐसा नहीं है कि मालिक पक्ष मजदूर संघों के बारे कोई डर रखे और हर मामले को कानून में दिए गए प्रावधानों के अनुसार क्रियान्वित करें । बागान प्रबंधकों पर करोड़ों रूपये प्रोविडेंट फंड और ग्रेज्युटी के पैसे बकाया का आरोप है। लेकिन किसी मजदूर संघ ने नियम कानूनों का सहारा लेकर आरोपियों पर कार्रवाई करवाने का दबाव नहीं डाल पाया है । बागानों में बिजली, सड़क, अस्पताल, क्वार्टर आदि का खास्ता हाल है, लेकिन मजदूर संघ किसी भी मामले को कानूनन लागू करवाने में सफल नहीं है । मजदूर संघों की असली ताकत कहाँ है ? डुवार्स तराई के मजदूर संघ क्यों मजदूरों के हक में रहे कानूनों का न्यायालयों का सहारा लेकर उपयोग नहीं करता है ?

वेतन समझौता एक पैकेज होता है । मालिक संघों का कहना है कि वे फ्रिंज बेनेफिट देते हैं, जिसे जोड़कर वे जितना वेतन देते  हैं वह न्यूनतम वेतन के बराबर बैठता है । यह फ्रिंज बेनेफिट क्या है ? बागान श्रम कानून के अनुसार चाय उद्योग को दिए गए अधिकतर सुविधाएँ सरकारी आर्थिक मदद से दी गई है । बागानों में सुधार लाने के लिए केन्द्र सरकार ने कुछ साल पूर्व ही 500 करोड़ का अनुदान देता है । इसके साथ टी बोर्ड हर साल करोडों रूपये बागानों के उन्नति के लिए खर्च करता है ।

मजदूर आवास बनाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार अनुदान देते हैं । लेकिन अनेक बागान ऐसे अनुदान के बावजदू मजदूर आवास के लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाएँ हैं । जो आवास है, वर्षों से उसका मरम्मत नहीं किया जाता है । लोग जीर्णशीर्ण मकानों में रहने के लिए अभिशप्त हैं । कई पीढ़ी से एक ही मकान में रहने के कारण अनेक मजदूर उसे अपना घर समझते हैं और अपने ही पैसे से उसका न सिर्फ मरम्मत करते हैं बल्कि रखरखाव भी करते हैं ।

अस्पताल बनाने के लिए सरकारी अनुदान मिलता है । टी बोर्ड और अन्य संस्थाएँ एम्बुलेंस के लिए मदद उपलब्ध कराता है । लेकिन इन मदद का उपयोग अधितर बागान प्रबंधन नहीं करता है । मजदूर संघ भी इसके लिए कोशिश नहीं करता है । कितने बागानों में एम्बुलेंस है यह गिनने में अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होगी । जिला स्वास्थ्य विभाग इसके बारे आंकड़े उपलब्ध कर सकता है । बागान प्रबंधन ज्वलनी लकड़ी, राशन आदि कुछ ऐसे फ्रिंज बेनेफिट देते हैं जिसे नकद ही दिया जाए तो उसका कुछ फायदा मजदूरों को मिलेगा । राशन का पैसा लेकर मजदूर सरकारी राशन दुकान से बेहतर क्वालिटी के आटा और चावल खरीद सकते हैं । अधिकतर मजदूर आदिवासी होने के कारण सरकार आदिवासी इलाके में लागू किए गए आदिवासी विकास योजना के अन्तर्गत दिए जाने वाले सस्ते खाद्य पदार्थ का लाभ ले सकते हैं । बागान प्रबंधन को राशन के अधिकतर खेप फूड कार्पोरेशन आॅफ इंडिया जैसी सरकारी कंपनियों से मिलती है, जो निश्चय ही बाजार दर से कम होता है । मजदूरों को राशन के बदले नकद पैसे मिले तो वे स्थानीय बाजार से या सीधे बस्ती के बाजारों या किसानों से सीधे कम दाम में चावल आदि खरीद सकते हैं ।

बागान मजदूरों को काॅमर्शियल बिजली के कनेक्शन देता है और सिर्फ दो तीन बल्ब के लिए उनके वेतन से एक चैथाई से अधिक पैसा काट लेता है । मजदूर संघों ने कभी इस विषय पर बिजली विभाग के नियम कायदों को मजदूरों को बताने का कष्ट नहीं किया । क्योंकि मजदूर संघों का नेतृत्व खुद इन नियम कायदे से वाकिफ नहीं हैं, न ही वे इस विषय को हमेशा के लिए समाधान करने के लिए कभी कोई निर्णायक आंदोलन किया । वे कभी इस बात पर बागान प्रबंधन को कटघरे में खडे़ नहीं किया कि वह बिजली के नाम पर कैसे मजदूरों का आर्थिक शोषण कर रहा है । बिजली के कनेक्शन फ्रिंज बेनेफिट  के अन्तर्गत आता भी नहीं है । बागान प्रबंधन को सिर्फ घरों में वायरिंग करने, घरों तक बिजली के खंबे डाल कर बिजली के तार लाने का ही प्रबंध करना है । उसका काम घरों में काॅमर्शियल बिजली की आपूर्ति करना नहीं है । यदि बागान निशुल्क बिजली की आपूर्ति करता है तो वह मीटर लगाए बिना बिजली दे सकता है । लेकिन बिजली के शुल्क के लिए उसे हर घर में मीटर लगाना अनिवार्य है । बागान प्रबंधन को बताना चाहिए कि बागान प्रबंधकों के घरों में लगने वाले बिजली का बिल कितना होता है और उसका भुगतान कौन करता है ? मैनेजर बंगलों और मजदूरों के घरों में जलने वाले बिजली का तुलनात्मक गणना करने से कुल लागत और उसके लिए मजदूरों के वेतन से काटे गए पैसे का हिसाब निकाला जा सकता है ।

पश्चिम बंगाल के सभी चाय बागानों में पंचायत व्यवस्था को लागू किया गया है । पंचायत व्यवस्था के अन्तर्गत मजदूरों को सस्ती बिजली मिल सकती है। राजीव गाॅंधी ग्रामीण विद्युतिकरण के अन्तर्गत मजदूरों को राहत पहुँचाया जा सकता है। लेकिन हर बात में आंदोलन करने वाले मजदूर संघ कई दशक बीत जाने के बावजूद इस विषय पर कोई नया रास्ता निकाल नहीं सके हैं । कुटीर ज्योति कार्यक्रम के अन्तर्गत हर बीपीएल परिवार के मकान का विद्युतिकरण का पूरा खर्च निशुल्क इस योजना के अन्तर्गत किया जाता है । लेकिन मजदूरों की हित की बात करने वाले मजदूर संघों ने बागान प्रबंधन के द्वारा दो तीन बल्ब के लिए 300 से 500 रूपये वेतन से बिजली के नाम पर काटने के विरोध में क्या आंदोलन किया और उसकी क्या परिणति हुई ? मजदूर संघ क्यों बिजली आॅडिट की मांग सरकार से नहीं करता है ?

प्लानटेशन लेबर एक्ट के अन्तर्गत विनियमित और राज्य सरकार के द्वार विहित फ्रिंज बेनेफिट मुक्कम्मल रूप से मजदूरों को मिलता ही नहीं है तो उस फ्रिंज बेनेफिट को वेतन समझौते का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है ? सरकार गरीबों को इंदिरा आवास आदि उपलब्ध करा रही है। सस्ती बिजली और राशन भी दे रही है । ज्वलीनी लकड़ी दुर्लभ होते जा रहा है और इसके बदले गैस कनेक्शन लिए जा रहे हैं । बागान अस्पताल का खस्ता हाल के बारे पश्चिम बंगाल श्रम विभाग के सर्वे में सब कुछ बाहर आ गया है, ऐसे में फ्रिंज बेनेफिट के तहत बागान अस्पताल की बात करना और उसके भरोसे इलाज कराना बेमानी बात है । जब फ्रिंज बेनेफिट की चीजें मजदूरों को काननू और नियम अनुसार उपलब्ध ही नहीं हो पाता है और श्रम विभाग चाय बागानों के विरूद्व कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है तो मजदूर वेतन समझौते में फ्रिंज बेनेफिट की बातों को शामिल किसलिए की जाती है ?

यह बहाना करना कि प्लानटेशन लेबर एक्ट के अन्तर्गत रखे गए प्रावधान के कारण इसे अलग नहीं किया जा सकता है, बहुत बेमानी है । प्लानटेशन लेबर एक्ट में बच्चों की स्कूली पढ़ाई की बात थी, जिसे सरकार ने अलग कर दिया है । ग्रुप हाॅस्पिटल की बात थी वह नदारद  है । एमबीबीएस डाक्टर और प्रशिक्षित नर्स सिर्फ गिने चुने बागानों में हैं । यदि न्यूनतम वेतन कानून अधिनियम 1948 के पृष्टों से वेतन को निकाल कर उसे त्रिपक्षीय समझौते के अन्तर्गत रखने के लिए सरकार कार्रवाई कर सकती है तो फ्रिंज बेनेफिट के नाम पर हो रहे मजदूरों के शोषण को रोकने के लिए सरकार पहल क्यों नहीं कर सकती ? फ्रिंज बेनेफिट मजदूरों का शोषण करने का एक जरिया बन गया है । इन फ्रिंज बेनेफिट के बदले सरकार चाय बागानों से बमेे ले और चाय बागान क्षेत्रों में उस पैसे से ढाॅंचागत विकास करे ।

वेतन समझौता एक कानूनी समझौता होता है जिसमें किसी भी पक्ष को जबरन हस्ताक्षर नहीं करवाया जा सकता है । मजदूर संघ मजदूरों का हितैशी संस्था होती है । इन संस्था को मजदूरों के हित में ही निर्णय लेना चाहिए । यदि मालिक पक्ष सरकार द्वारा नोटिफाइड न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी देना चाहता है तो मजदूर संघों को किसी भी हालत में ऐसे समझौता में हस्ताक्षर नहीं करना चाहिए । यदि कई मजदूर संघ इसमें हस्ताक्षर कर देते हैं और कई दूसरे संघ हस्ताक्षर नहीं करते हैं तो यह समझौता लागू नहीं किया जा सकता है और हस्ताक्षर नहीं करने वाला संघ इसके विरोध में कोर्ट में जा सकता है । श्रम न्यायालय ऐसे समझौते को रद्द घोषित कर देगा और वह विशेषज्ञों को मिला कर अलग मशीनरी इसके लिए बना सकता है ।

निरंग पझरा समझौते वार्ता की प्रक्रिया से वाकिफ रहे कई महानुभावों से बातचीत की । इन महानुभावों का विश्वास है कि मजदूरों को अधिक से अधिक 140-150 रूपये मिल सकता है, इससे अधिक नहीं । निरंग पझरा को इस तरह के बयान से बहुत हैरानी हुई । आज की कमरतोड़ महंगाई में एक संगठित क्षेत्र के मजदूरों को इतनी कम बढ़ोतरी की उम्मीद नहीं है । उन्हें तो 250 से अधिक अर्थात् 323 रूपये की उम्मीद बंधाई जा रही है । यह 323 रूपये आज की महंगाई और सरकारी नियम कायदे के अनुसार न्यायसंगत है । इससे कम परिश्रमिक पर समझौता मजदूरों के साथ न सिर्फ अन्यायकारी होगा, बल्कि इससे कम मजदूरी के समझौते चाय उद्योग के लिए भी अशुभ होगा ।

आज तक मजदूरों को बहला फूसला कर कम मजदूरी देकर उनसे जीतोड़ श्रम कराया जाता रहा है । लेकिन राज्य और केन्द्र में सत्तासीन हुई नयी सरकार और व्यवस्था ने मजदूरों को एक न्यायपरक वेतन समझौता होने का भरोसा जतलाया है । लेकिन सब कुछ निर्भर करता है चाय मजदूरों के हित की प्रतिनिधित्व कर रहे उन मजदूर नेताओं पर, जिन्हें समझौते पर हस्ताक्षर करना है । पिछले तमाम समझौतों में मजदूर संघों ने अपने कमजोर दाॅंवपेंच और मोलभाव करने की कमजोर शक्ति से मजदूरों को न सिर्फ निराश किया है, बल्कि उन्हें घोर गरीबाी में जीने के लिए मजबूर किया है । आज बागानों में यदि मजदूर भूख से मरने के लिए मजबूर है तो उसका आधा दोष सिर्फ ऐसे मजदूर संघों पर जाता है, जो मजदूरों के प्रति अपने कर्तव्य को जिम्मेदारी के साथ नहीं निभा सकें हैं और मजदूरों के आशाओं पर कुठाराघात किया है ।

यह समय की मांग है कि मजदूर संघ अपने पूरी क्षमता से मजदूरों को पूरी मजदूरी देने के लिए अपनी पूरी क्षमता लगा लगाएॅं । नया मजदूर वेतन समझौता को शोषण का एक नया हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए । यदि वेतन वृद्धि समझौता में सम्मानजनक निर्णय में नहीं पहुँचा जा सकता है तो इसे देश के सम्मानीय अदालतों में लाया जाना चाहिए जो देश के आम नागरिकों के अधिकारों का संरक्षक है । 323 रूपये की गणना यदि वैज्ञानिक ढंग से तमाम पहलुओं को दृष्टिगत रखते हुए किया गया है तो इस मामले में मजदूर संघों को अपना इरादा अटल रखना है, अपनी पूरी सामर्थ्य लगाना है । तमाम आशाओं के फूल खिला कर मजदूरों से किए गए वादे से कम वेतन पर वेतन समझौते करने से मजदूर नेतागण मजदूरों की नजरों से गिर जाएँगे। यह लेख निरंग पझरा पत्रिका के जुलाई-अगस्त 2014 के अंक में प्रकाशित हुआ था।   This work is copyright © Neh Arjun Indwar Dec. 18, 2016. All rights reserved