वैचारिकी_उर्वरता

नेह अर्जुन इंदवार

#भाग– एक
आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत से नीतियों का सृजन होता है। नीतियों का सीधा प्रभाव राष्ट्र-समाज के भविष्य को तय करता है। इसी श्रृँखला में मेरे कई युवा दोस्तों के अनुरोध पर यह पाँच किस्तों में नया लेख है। हमेशा की तरह यह भी लम्बी है। मन लगे तो किस्तों में पढ़ें। न लगे तो नमस्ते, गुडबॉय करें।
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किसी समाज की मौलिक समस्याएँ क्या होती हैं ? एकता, बंधुत्व, भाईचारे की भावना की कमी, आपसी लड़ाईयाँ, पड़ोसी के लिए ईर्ष्या, द्वेष, विरोध की भावना और नकरात्मक प्रतिस्पर्धा ? धन-शिक्षा की कमी ? आर्थिक-सामाजिक उन्नति के लिए रणनीतिक-बुनाई की अक्षमता ? संसाधनों का अभाव या उपलब्ध संसाधनों के सदुपयोग की कमी ? नकरात्मक सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक पारंपराएँ, सुप्रथाएँ या कुप्रथाएँ ? नकारों द्वारा संचालित सरकारें या और कुछ?
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ऐतिहासिक रूप से देखा गया है कि जब कोई समाज अपने तमाम गुणों और अवगुणों के बारे जागरूक नहीं रहता है तो वह विकास के लिए सर्वोत्तम निर्णायक कदम भी उठा नहीं सकता है। कुंठित दिशाहीन स्वार्थी समाज दिशाहीन कार्य व्यवहार में ही व्यस्त रहता है तथा ऊर्जा और समय को नष्ट करता रहता है। जो समाज वैचारिकी रूप से खुले, उदारवादी होता है और अपने गुणों और अवगुणों पर लगातार चर्चा और विमर्श करता है, वह अपने लिए एक दिशा भी तय कर लेता है। वैचारिकी रूप से बंद गैर उदारवादी समाज में विचारों का मंथन नहीं हो पाता है। वह पुराने अनुपयोगी सिद्धांतों से चिपके रहने में ही गर्व महसूस करता है। बिना मंथन के तो दूध से मक्खन भी नहीं निकलता है।
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लोकतांत्रिक स्वतंत्र समाज में, आलोचना, समालोचना समाज को मजबूत करता है। अलोकतांत्रिक बंद समाज अपने गुड़ को गोबर बना देता है। दुनिया भर का अनुभव कहता है कि तार्किक वैज्ञानिक आलोचना से धार्मिक समाज और राष्ट्र दूर भागते हैं। दुनिया के अनेक बंद समाज को देखकर इसे आसानी से समझा जा सकता है। समाज से आगे राष्ट्र पर भी यही सिद्धांत काम करता है। आलोचना रहित गुलाम मीडिया और सरकार परस्ती चापलूसी-पत्रकारिता, देश-सरकार और व्यवस्था के अवगुणों को नजरांदाज करता है। इसका खामियाजा पूरी व्यवस्था को भुगतना पड़ता है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है, क्योंकि यह समाज और उसकी तमाम व्यवस्था के अवगुणों पर चर्चा करता है और उसमें सुधार के लिए पृष्टभूमि तैयार करता है। मीडिया जब सरकारी तंत्र का चापलूस और तलवा चाटने वाला हो जाता है, तो वह व्यवस्था (सरकार व्यवस्था का एक सिंह भाग है) की कमी, अवगुण गोपनीय रह जाता है। अंततः व्यवस्था लाईलाज बीमारियों का शिकार बन जाता है। खूऩी क्रांति के लिए ऐसी ही परिस्थितियाँ जिम्मेदार होती हैं। हमें याद रखना होगा कि देश में सरकार ही सबसे अधिक आय अर्जक अंग होता है। उसके पास अथाह संसाधन होता है। सरकार को मनुष्य संचालित करता है और अंकुशहीन सरकार में सरकारी संसाधनों के दुरूपयोग, भ्रष्टाचार की असीम संभावना होती है। इसीलिए जो नागरिक सरकार के गलत कार्यों का ऊँची आवाज़ से विरोध करता है, उसे सच्चा जागरूक कहा जाता है।
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सरकार पूरे देश का होता है। मीडिया और न्यायालय सरकारी संपदा, संसाधन और शक्तियों की पहरेदारी करते हैं। सरकारी मीडिया सरकारी सूचनाएँ देती हैं। वहीं गैर सरकारी मीडिया सरकार के कार्यकलापों पर तीक्ष्ण दृष्टिपात करता है। यदि कोई शक्ति मीडिया को नियंत्रित करता है या करने की कोशिश करता है, तो यह स्पष्ट संकेत है कि सरकारी संपदा, संसाधन, शक्ति का गलत उपयोग किया जा रहा है। जनता के अधिकारों का अपहरण किया जा रहा है। लोकतांत्रिक देशों में पूँजीवादी व्यवस्था होती है और पूँजीपतियों के पास पूँजी होती है। जाहिर है कि बड़ी पूँजी से संचालित मीडिया के पीछे बड़े पूँजीपति का हाथ होता है। यदि सरकार में शामिल लोग और मीडया आपस में गठजोड़ कर लेते हैं, तो देश के तमाम साधन रातों रात कुछ मुट्ठी भर लोगों को हाथों सिमट कर रह जाती है। भारत में यही हो रहा है। मीडिया सरकार का तलुवा चाटता है और सरकार मीडिया में पूँजी लगाए पूँजीपतियों के एजेंडों पर अपनी नीतियों का निर्माण और कार्यान्वयन कर रही है। अथाह धन-दौलत के मालिक कभी भी साधु प्रकृति के नहीं होते हैं। वे अपने पैसे से अधिक पैसे कमाने की धुन में जुटे हुए होते हैं और इसके लिए बूरे साधनों का इस्तेमाल करने में पीछे नहीं हटते हैं। अत्यधिक धनवान लोग अधिकतर अच्छे नागरिक नहीं होते हैं। दुनिया का पूरा इतिहास ही धन-पशुओं के पशुता से भरा हुआ है। ईस्ट इंडिया कंपनी के पूँजी से मुनाफा कमाने की धुन ने भारत को सोने की चिड़िया से लोहे की चिड़िया में बदल दिया था। पूँजीपतियों के पूँजी रोजगार का सृजन जरूर करता है, लेकिन वह कल्याणकारी कभी नहीं होता है।
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सरकार का गठन देश के तमाम नागरिकों के प्राकृतिक सम्प्रभुता के एकीकरण से होता है। मतदाता वोट देकर व्यवस्था अर्थात् संसद को अपनी व्यक्तिगत सम्प्रभुता को सौंपता है, ताकि संसद देश में एक सुव्यवस्थित व्यवस्था यानी सरकार की स्थापना कर सके। लेकिन यदि पूरे देश की व्यक्तिगत सम्प्रभुता का अपहरण कुछ मुट्ठी भर लोग कर लें तो ऐसे लोग कितने निरंकुश हो सकते हैं। इसका महज अनुमान ही लगाए जा सकते हैं। ऐसी शक्तियों को प्राप्त करने वाले थोड़े से सत्ताधारी और उसके पीछे के पूँजीवादी अथाह शक्ति पाकर बिगड़े बच्चे की तरह शरारती और बदमाश बन जाते हैं। मनोविज्ञान कहता है कि धनवान, शक्तिवान शरारती बच्चे के पास हजारों खिलौने होते हैं और वे खिलौनों से खेलने के बजाय उसे के तोड़-मरोड़ कर खेलने में आनंद प्राप्त करते है।
जब किसी देश में ऐसी परिस्थियाँ उत्पन्न हो जाती है तो वहाँ सत्ताधारियों में वैचारिकी लापरवाही का सृजन होता है। उनकी वैचारिकी उर्वरता बंजरपन में बदलने लगता है। सरकारी तंत्र का जनता के हित में सर्वोत्तम उपयोग करने में ऐसे लोग शत प्रतिशत फिसड्डी हो जाते हैं।
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संसाधनों, शक्तियों के दिशाहीन जोड़तोड़ में रत दिशाहीन सत्ता सामूहिक, सार्वजनिक स्वतंत्र बौद्धिक शक्तियों के उत्पादन और बड़ी मात्रा में उत्पादित टेक्नोलॉजिकल इन्नोवेटिव व्यवहार और प्रक्रिया पर स्वस्थ और संतुलित नजरिया नहीं रख पाता है। वह अपने विशाल संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करने में बौद्धिक रूप से असफल रहता है। क्योंकि नैतिकहीन की ऐसी व्यवस्था में वैचारिकी उर्वरता बंजर वैचारिकी में बदलते रहता है। अंततः ऐसा राष्ट्र या समाज एक डब्बा बन कर रह जाता है। बंद मुट्ठी में कैद सत्ता का नाश उसकी वैचारिकी मंदबुद्धि ही करती है। दुनिया के तमाम मध्यकालीन और आवर्चीन देशों का इतिहास यही कहता है। भारत में सत्ताशीन वर्गों का वैचारिकी उर्वरता बंजर वैचारिकी में कई दशकों से बदलता जा रहा है। आईए कुछ उदाहरणों से इसे समझने का प्रयास करते हैं। जारी है …….नेह।