आदिवासी विमर्श: धर्म, संस्कृति और भाषा का सवाल कहाँ है ? : वीर भारत तलवार

BY वीर भारत तलवार 

आदिवासी विमर्श पर मैं विस्तार से बिल्कुल नहीं कहूंगा। हिंदी में जो सबसे नया विमर्श और सबसे कमजोर और थोड़ा सा मुश्किल विमर्श है, वह आदिवासी विमर्श है। आदिवासी विमर्श की स्थिति यह है कि मैं हरिराम जी की किताब देख रहा था कि कितने उपन्यास आदिवासियों पर लिखे गए, जो खुद आदिवासी लेखकों के चार उपन्यास उन्होंने बताए, हो सकता है थोड़ा और खोजा जाए तो पांच-दस हो जाएं, कुछ दूसरे लोगों ने भी आदिवासियों पर उपन्यास लिखे हैं। उनमें से कुछ उपन्यास तो सच पूछिए इतने आदिवासी विरोधी हैं, कि उनको क्या कहा जाए! आदिवासियों पर जो भी उपन्यास लिखे गए हैं, वो खाली रिसर्च करने वाले लोग उनको जानते हैं, उनको कोई पढ़ता नहीं है। कितने लोग पढ़ते हैं आदिवासियों पर लिखे गए उपन्यासों को और खुद आदिवासियों के लिखे उपन्यासों को कितने लोग पढ़ते हैं? पीटर पालीन का उपन्यास कितने लोगों ने पढ़े हैं या मंगल मुंडा का उपन्यास कितने लोगों ने पढ़ा है? अभी हाल में मैंने एक उपन्यास पढ़ा मलयाली भाषा का, नारायण, जो कि इडिकी जिले के हैं और पोस्ट ऑफिस डिपार्टमेंट में काम करते हैं,  उनहोंने ‘कोच्चारती’ एक उपन्यास लिखा। 1998 में छपा है। केरल साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है उसको। और वो इतना महत्वपूर्ण उपन्यास है, और मैं समझता हूं कि उसे बहुत कम लोगों ने पढ़ा है। हम अन्य भारतीय भाषाओं की बहुत सारी रचनाओं को नहीं जानते हैं। हमारे देश में इतने महान उपन्यासकार हुए जिन्होंने आदिवासियों पर लिखा, उडि़या में हुए हैं, गोपीनाथ मोहांती के अमृत संतान और प्रजा जैसे उपन्यास। किस्सागो को नोबेल पुरस्कार मिल गया। यह उपन्यास अमृत संतान के आगे कुछ नहीं है। उनके पांच लोगों ने उनको पुरस्कार दे दी और उनको  तख्ती मिल गया। लेकिन हिंदुस्तान में आदिवासियों पर लिखे हुए उपन्यास को हिंदी का साहित्यिक समाज बहुत कम पढ़ता है। अभी मारंगगोड़ा और ग्लोबल गांव के देवता वगैरह की चर्चा चल पड़ी है। वर्ना इससे पहले बहुत कम हैं। ‘धूणी तपे तीर’ की बाजार में जो सफलता है, वो राजस्थान के एक बहुत बड़े आंदोलन से जुड़े होने के कारण है। लेकिन हिंदी में आदिवासी साहित्य को कितना आदरपूर्ण स्थान मिला है, यह उसका सबूत नहीं है।

हिंदी में आदिवासी विमर्श एक कमजोर स्थिति में है। उसके कारण बहुत स्पष्ट हैं। आदिवासी विमर्श करने के लिए आदिवासियों के बारे में जानना बहुत जरूरी है। और आदिवासियों के बारे में जानने के लिए उनके बीच जाना बहुत जरूरी है। हिंदी में प्रणय कृष्ण जैसे बुद्धिजीवी बहुत कम हैं जो आदिवासियों के सवाल को इतनी सहानुभूति और संवेदना के साथ समझने की कोशिश करते हैं। बड़े-बड़े लेखक हैं, जिन्होंने आदिवासियों पर कुछ लिख मारा है, बिना आदिवासी समाज को गहराई से समझे। मैं नाम लेकर कहूंगा कि महाश्वेता देवी का जो साहित्य है, वह आदिवासियों के बारे में सतही साहित्य है । बहुत दूर खड़े रहकर जो चीज दीख जाती है, वह यह कि उनका बड़ा आर्थिक शोषण होता है। वही ये लोग लिख सकते हैं। लेकिन उसमें आदिवासी समाज की आत्मा नहीं है। उसका अंतःकरण नहीं है। एक आदिवासी की मानसिक बनावट आपको कहीं नहीं मिलेगी। इसीलिए हिंदी में आदिवासी विमर्श हिंदी के साहित्यकार लोग नहीं चला सकते, क्योंकि उनको आदिवासी समाज का कोई ज्ञान नहीं है। और जिन लोगों ने लिखा भी है आदिवासी विमर्श के नाम पर, वो क्या लिखते हैं! आदिवासियों के विस्थापन के सवाल पर ही लिखेंगे, इससे ज्यादा नहीं लिखेंगे। दूसरी तरफ वामपंथी हैं जो  विस्थापन का सवाल भी इसलिए उठाते हैं, क्योंकि उनकी उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और स्टेट से नफरत है, जो आदिवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित कर रही है। अन्यथा, आदिवासियो की जमीन तो पिछले डेढ़ सौ सालों से जा रही है, कानूनी सूराखों की वजह से, कानून का पालन नहीं करने की वजह से। गवर्नर को सारे अधिकार हैं, लेकिन गवर्नर कुछ नहीं करना चाहता। आदिवासी समाज बहुत ज्यादा संकट में फंस चुका है। आज उसके पास समय ही नहीं है अपनी स्थिति को बदलने के लिए, अपने को बचाने के लिए। यह कवि की समस्या नही बनी। आदिवासी विमर्श का विषय नहीं बना। आज जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां इतने पैमाने पर उसको उजाड़ रही हैं। आदिवासी लोग इस तरह से विमर्श नहीं करते हैं। आदिवासी के गांव मे समस्या होगी तो वो किसी पहाड़ या अखाड़ा में उनकी  पंचायत बैठेगी, विचार-सभा करेगी। अगर अर्जी देनी है तो अर्जी देंगे, नहीं तो फिर हथियार लेकर लड़ेंगे। आदिवासी विमर्श तो इसी प्रकार से होता है। लेकिन अंग्रेजी में कुछ लोगों ने आदिवासियों पर लिखकर के जो सनसनी और एक चिंता भी फैलाई है, उसमें कुछ पढ़े-लिखे हिंदी के लेखकों ने योगदान किया और थोड़े से पढ़े-लिखे आदिवासियों ने भी। लेकिन ये इस विमर्श के बहुत छोटे दायरे को सूचित करता है।

आदिवासी विमर्श के बहुत सारे मुद्दे अभी तक ठीक से उठाए ही नहीं गए हैं। जैसे आदिवासी संस्कृति का सवाल, आदिवासियों की भाषाओं का सवाल, उनके धर्म का सवाल कभी किसी ने नहीं उठाया। मैं आपको एक उदाहरण दूं, आदिवासी संस्कृति की कोई गहरी जानकारी गैर-आदिवासियों को नहीं है। उनका एक नितांत अलग दृष्टिकोण आदिवासियों की संस्कृति के बारे में बना हुआ है। इसलिए हम उस सवाल को उठा ही नहीं सकते। और मैंने जैसा कहा कि आदिवासी खुद उस प्रकार से विमर्श नहीं करते हैं कि एक विमर्श खड़ा हो। धर्म के सवाल को कभी भी उठाया नहीं गया। एक बुद्धिजीवी थे रामदयाल मुंडा, उन्होंने धर्म के सवाल को उठाया। उसका एक कारण है। रामदयाल मुंडा खुद एक पाहन के बेटे हैं, एक पुजारी के बेटे रहे और धर्म में उनकी बचपन से दिलचस्पी रही। उनके इलाके में खासकर हिंदू धर्म का काफी प्रभाव रहा है। लेकिन फिर भी वह हिंदू की ओर तो नही गए। ये एक अच्छी बात है। उन्होंने आदिवासी धर्म का ही सवाल उठाया। उनका प्रयास था कि हिंदुस्तान के तमाम आदिवासियों को मिलाकर एक उनका अखिल भारतीय धार्मिक स्वरूप खड़ा किया जाए। इसकी वजह थी। वजह यह थी कि हमारा संविधान कहता है कि आदिवासी इस देश के एक विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय हैं। उनका अपना वैशिष्ट्य है। वो एक विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय है, उसका कोई धर्म है भी या नहीं? हिंदुस्तान में सरकार के आदेश से जनगणना होती है उसमें आदिवासी का क्या धर्म लिखाया जाता है? उससे पूछा जाता है कि तुम हिंदू हो कि नहीं? मुसलमान हो, ईसाई हो, सिक्ख हो? नहीं? ठीक है, अन्य हैं। ‘अन्य’ उसका धर्म लिखा जाता है। अगर वो हिंदू नहीं है, इस्लाम नहीं है, सिक्ख नहीं, ईसाई नहीं तो वो ‘अन्य’ हैं। ये ‘अन्य’ क्या है? उसका कोई धर्म नहीं है और वो हिंदुस्तान का एक विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय है!

इस स्थिति को बदलने के लिए रामदयाल ने धर्म के सवाल को उठाया, आदिवासी विमर्श में इन सवालों की चर्चा नहीं होती। धर्म अच्छी चीज है, बुरी चीज है, वो नहीं हम कह रहे हैं। इस संविधान में धर्म का एक अधिकार दिया हुआ है। उस धर्म का अधिकार आदिवासी को है या नहीं। सरकार के पास उसके धर्म की कोई मान्यता है या नहीं, सवाल इसका है। रामदयाल का सवाल यह भी था कि आदिवासी को अपने धर्म में कितना आत्मविश्वास है, क्या वह धर्म को लेकर हीनभाव से ग्रस्त है! यह सवाल उनको सवाल मथता था। इस सवाल की कुछ पेचीदगियां हैं। धर्म को एक राष्ट्रीय रूप देना! उनका सदाशय जो भी रहा हो, लेकिन धर्म को एक राष्ट्रीय रूप प्रदान करना थोड़ा मुश्किल मामला है। चाहे वो आदिवासी के ही मामले में क्यों न हो? और धर्म को लेकर कुछ और देने की कोशिश झारखंड में आरएसएस ने की है। सरना पेड़ों के नीचे उन्होंने बड़े-बड़े जमावड़े लगाने शुरू किए आदिवासियों के, उनके धार्मिक समूहों के रूप में। और ये धर्म को सामूहिक रूप प्रदान करना कभी भी खतरे से खाली नहीं है, इसकी बहुत गलत दिशा है। लेकिन मैंने आपसे बताया कि यह एक सवाल आदिवासी विमर्श में आपको कहीं नहीं मिलेगा। इसी प्रकार उनकी संस्कृति का सवाल नहीं मिलेगा, भाषाओं का सवाल नहीं उठाया जा रहा है।

महाराष्ट्र में आदिवासी बहुत ताकतवर हैं। झारखंड के बाद शायद वहीं ज्यादा ताकतवर हैं। आदिवासियों के बड़े-बड़े साहित्य सम्मेलन होते हैं। अब तक 9 आदिवासी सम्मेलन हो चुके हैं महाराष्ट्र में, 9 आदिवासी सम्मेलन! लेकिन महाराष्ट्र के ज्यादातर आदिवासी मराठी भाषा में अपना साहित्य लिखते हैं। बहुत कम लोग हैं जिन्होंने अपनी आदिवासी भाषा में साहित्य लिखा और जो लिखा वह भी बहुत कम लेखकों ने लिखा। उनकी भाषाओं का सवाल इस विमर्श में कहीं नहीं आया। झारखंड में संथाली साहित्य सम्मेलन होते हैं, विश्व साहित्य सम्मेलन होता है संथालियों का, क्योंकि वो हिंदुस्तान के आसपास के भी कुछ देशों में मौजूद हैं। लेकिन संथालियों को अपनी भाषा पर बहुत गर्व है। संथाली अपनी भाषा में लिखते हैं, संथालियों का सम्मेलन होता है, तो वहां संथाली भाषा के कम से कम 500 प्रकाशन आते हैं। 500 प्रकाशन संथाली भाषा के! हिंदुस्तान के तमाम आदिवासियों ने मिलकर उतना साहित्य नहीं लिखा अपनी भाषा में, जितना अकेले संथालियों ने अपनी संथाली भाषा में लिखा है। ये असमानता तो है। लेकिन भाषाओं का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। सुनीति कुमार चटर्जी जो इतने बड़े भाषाविद् हुए उन्होंने ये भविष्यवाणी कर रखी है कि आदिवासी भाषाएं अपनी मौत मरती जाएंगी, दो-तीन सौ साल में खत्म हो जाएंगी। इसका जवाब आदिवासी विमर्श को देना है कि क्या ये भाषाएं खत्म हो जाएंगी, मर जाएंगी या आदिवासियों के जीवन में उनकी संस्कृति के लिए इसका कोई महत्व है। आदिवासी विमर्श को बड़ी गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि अपनी भाषा के बिना वो अपनी संस्कृति को कब तक बचाकर रख सकते हैं?

आदिवासी समाज की एक जो बहुत बड़ी समस्या है, वह है शिक्षित लोगों की अपने समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना। मैं इतने करीब उनके रहा और रांची में देखता हूं कि पढ़े-लिखे आदिवासी हैं जो कॉलेजों से, यूनिवर्सिटी से पढ़कर निकलते हैं, अपनी भाषा नहीं बोलते हैं। अपनी भाषा बोलना नहीं चाहते हैं। जवाहरलाल नेहरू विवि. में कई आदिवासी हैं, झारखंड से आकर पढ़ते हैं। उनहोंने अपना एक संगठन भी बना रखा है- अल्ल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन और उनकी सभाएं करते हैं और टूटी फूटी अंग्रेजी में बोलने की कोशिश करते हैं, जो उनको नहीं आती है। हिंदी भी नहीं बोलना चाहते, हॉल से बाहर निकले ही जिसमें वे आपस में बात करते हैं, वो नहीं बोलते हैं। टूटी-फूटी गलत-सलत अंग्रेजी बोलते हैं और आदिवासी भाषा तो भूलकर नहीं बोलते हैं। ये जो हीनता की भावना है और जो पैदा भी की गई है उनकी भाषाओं के प्रति, उनकी संस्कृति के प्रति, कुछ व्यक्ति के रूप से इससे उबरे हुए लोग जरूर हैं आदिवासी विमर्श में, लेकिन आदिवासियों की सामान्य भावना हीनता की भावना है। एक आत्मसम्मान का आंदोलन, जो अंबेडकर ने दलितों में चलाया और सफल हुए, वो आदिवासियों में अभी तक नहीं है, इसलिए वहां अस्मिता के आंदोलन का बड़ा महत्व है आजकल।

प्रो.वीर भारत तलवार

प्रो.  वीर भारत तलवार,  प्रख्यात हिन्दी आलोचक, जेएनयू में प्राध्यापक। उनसे virbharattalwar@gmail.com पर संपर्क संभव है। 

हैदराबाद में दिये गए व्याख्यान का दूसरा अंश। शेष अगले किश्त में। 

साभार समकालीन जनमत   / साभार  https://tirchhispelling.wordpress.com