दिनांक 10 नवंबर 2009 को कालचीनी विधानसभा उपचुनाव में हुए मतगणना में स्वतंत्र उम्मीदवार श्री संदीप एक्का दूसरे स्थान पा कर चुनाव जीत नहीं पाए। चुनाव में जीत गोर्खाजनमुक्ति मोर्चा समर्थित उम्मीदवार श्री विल्सन चम्प्रोमरी की हुई और डुवार्स में एक नये सिलसिलेवार बहस की शुरूआत हो गई।
श्री संदीप एक्का एक स्वतंत्र अर्थात् निर्दलीय उम्मीदवार थे। जिसे अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद् का समर्थन प्राप्त था। अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद् (अभाआविप) के हासीमारा-कालचीनी आंचलिक समिति के पदाधिकारियों ने श्री संदीप एक्का को अभाआविप समर्थित उम्मीदवार घोषित किया था। उल्लेखनीय है कि श्री संदीप एक्का स्वयं भी अभाआविप का एक सक्रिय सदस्य और पदाधिकारी था और अभाआविप में चुनाव पर हुए व्यापक चर्चा और निर्णय के बाद इस्तीफा दिया और चुनाव में उम्मीदवार बना। क्योंकि अभाआविप एक गैर सरकारी संस्था होने के कारण वे इसमें रहते हुए चुनाव नहीं लड सकते थे। वे एक पूर्णकालिक सदस्य रहे हैं और सिर्फ कानूनी तकनीकी के कारण ही इस्तीफा दिए ताकि वे चुनाव लड सकें। अन्यथा वे पूर्ण रूप से अभाआविप के एक सक्रिय सदस्य ही थे। उनकी उम्मीदवारी-पर्चे भरने की सारी प्रक्रिया अभाआविप के सक्रिय सदस्यों के शुभकामनाओं और सहयोग के साथ पूरी की गई थी। उनके अभाआविप समर्थित उम्मीदवार होने की वकायदा घोषणा की गई। उनके चुनाव प्रचार में अभाआविप ने बढ-चढ कर हिस्सा लिया। इसी दौरान मालबाजार अंचल में नेवरानदी टी इस्टेट को खोलने के लिए अभाआविप द्वारा भूख हडताल किया गया और बागान खोलने की मांग लेकर जिलाधिकारी से मिलने वाले प्रतिनिधियों में अभाआविप के केन्द्रीय नेता श्री तेजकुमार टोप्पो भी शामिल थे। उधर नेवरानदी बागान को खोलने के लिए मालबाजार अंचल में आंदोलन किया जा रहा था, इधर अभाआविप द्वारा श्री संदीप एक्का को चुनाव में िजताने की जी तोड मेहनत की जा रही थी। प्रेस और संचार साधनों में दोनों ही घटनाओं के बारे साथ-साथ खबरें आ रही थीं। कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि केन्द्रीय नेतागण इन दिनों डुवार्स में मौजूद थे और अभाआविप के द्वारा किए जा रहे हर कदमों से सौ प्रतिशत वाकिफ थे। हासीमारा इलाके में श्री संदीप एक्का के समर्थन में बडी सभा हुई और इसमें कई नेतागण शामिल हुए। लेकिन दुर्भाग्यवश श्री संदीप एक्का चुनाव हार गए और डुवार्स को प्रस्तावित गोर्खालैण्ड में शामिल करने की मांग करने वाले गोर्खाजनमुक्ति मोर्चा समर्थित उम्मीदवार जीत गए। चुनाव के बाद अभाआविप के कोलकाता स्थित केन्द्रीय समिति के नेता श्री बिरसा तिर्की ने फरमाया कि अभाआविप चुनाव में शामिल नहीं था, क्योंकि यह एक एनजीओ है और चुनाव में शामिल नहीं हो सकता है। उन्होंने प्रेस को बताया कि श्री संदीप एक्का अभाआविप का उम्मीदवार नहीं था और न ही अभाआविप ने श्री एक्का का कभी समर्थन किया था। उन्होंने चुनाव में भाग लेने के लिए श्री संदीप एक्का, राजू बाडा समेत हासीमारा कालचीनी आंचलिक समिति के नेताओं पर अनुशासनिक कार्रवाई करने की भी घोषणा की है।
कई सवाल हैं। क्या श्री बिरसा तिर्की कालचीनी विधान सभा उपचुनाव के घटनाक्रमों से अन्जान थे ? अभाआविप और गोजमुमो द्वारा अपने-अपने उम्मीदवार की घोषणा से जो उपचुनाव पूरे पश्चिम बंगाल में चर्चा का विषय बना हुआ था क्या उससे श्री तिर्की अन्जान रह सकते हैं ? जिस डुवार्स में पिछले कई वर्षों से आदिवासी समाज का नेता होने का दावा करने वाले श्री तिर्की क्या उस डुवार्स के घटनाक्रम से अनजान हो सकते हैं, जहॉं गोर्खाजनमुक्ति मोर्चा ने विशेष रणनीति के तहत अपना उम्मीदवार खडा किया। डुवार्स ब्रांच के नेताओं का कहना है कि श्री एक्का की उम्मीदवारी की चर्चा केन्द्रीय नेताओं के साथ कर ली गई थी और उनकी अनुमति और अनुमोदन ले ली गई थी। श्री संदीप एक्का के समर्थन में किए जा रहे तमाम सभाओं की खबरें अखबारों में रोज छप रहीं थीं। चुनाव प्रचार के मौसम में केन्द्रीय नेतागण न सिर्फ डुवार्स में उपस्थित थे, बल्कि डुवार्स के नेताओं के साथ सार्वजनिक रूप से प्रशासन से मुलाकात और सभाऍं भी कीं। क्या वे कालचीनी विधानसभा के लिए अभाआविप द्वारा किए जा रहे प्रचार से अन्जान हो सकते हैं ? साधारण दिमाग रखने वाले हर व्यक्ति का यही निष्कर्ष होगा कि केन्द्रीय नेताओं को कालचीनी विधानसभा के लिए किए जा रहे हर घटनाक्रमों का पूरा ज्ञान था। इस बीच एक बार भी केन्द्रीय नेतागण यथा श्री बिरसा तिर्की ने नहीं कहा कि श्री संदीप एक्का अभाआविप समर्थित उम्मीदवार नहीं हैं और न ही अभाआविप ने उनके लिए वोट मांगे हैं। वोट मांग रहे अभाआविप के किसी भी कार्यकर्त्ताओं को उन्होंने न तो मना किया और न ही इस तरह की कोई घोषणा की। अभाआविप श्री एक्का के लिए न सिर्फ जी तोड मेहनत रहे थे बल्कि अभाआविप के पास उपलब्ध वित्तीय संसाधनों का भी इस्तेमाल किया जा रहा था।
लेकिन रणनीति बनाने में असफल रहे अभाआविप समर्थित उम्मीदवार चुनाव हार गए और एक जबरजस्त चर्चा की शुरूआत हुई। एक ओर गोर्खाजनमुक्ति मोर्चा का उत्साह चरम पर पहॅुच गया है। दूसरी ओर गोर्खालैण्ड आंदोलन का डुवार्स में विरोध करने वालों का हताशा बाहर उबल पडा। इसी घटनाक्रम के बीच श्री तिर्की का यह कहना कि अभाआविप ने श्री संदीप एक्का को अपना उम्मीदवार बनाया ही नहीं था। कई सवालों को जन्म दे दिया है जिनका उत्तर पाना समाज के लिए बेहद जरूरी है। इन उत्तरों को खोजे बिना समाज आगे नहीं बढ सकता है।
सवाल है कि चुनाव हार जाने पर श्री तिर्की क्यों अपना पल्ला झाड रहे हैं ? चुनाव जीत जाने पर भी क्या वे ऐसा ही पल्ला झाडते ? हार की जिम्मेदारी दूसरों के गले मढना और जीत का श्रेय लेना क्या यही केन्द्रीय नेताओं की योग्यता है ? आखिर किस तरह के घटनाक्रमों अथवा दबाबों में वे ऐसा बयान जारी करके अपनी विश्वसनीयता को खत्म करना चाहते हैं अथवा हार की अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पाना चाहते हैं ? क्या कोलकाता में बैठ कर और घटनाक्रम में अपनी पकड ढीली पड जाने पर किसी भी घटना से पल्ला झाडना उचित कहा जा सकता है ? किसी महत्वपूर्ण विषय पर कोई निर्णय लेने में अथवा किसी घटनाक्रम में अपना कोई स्टैण्ड लेने में उन्हें क्यों इतना वक्त लगता है ? यदि वे फौरी रूप से कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं तो उन्हें केन्द्रीय नेता बने रहना चाहिए ? यदि वे कोई निर्णय लेते हैं और उस निर्णय में असफलता अथवा पराजय मिले तो क्या उस निर्णय से पल्ला झाड लेना चाहिए और उसकी जिम्मेदारी किसी और के सिर मढ देनी चाहिए ? आखिर वे किस हैसियत से अभाआविप से इस्तीफा दे चुके श्री एक्का पर अनुशासनिक कार्रवाई करेंगे ? उन्होंने लोगों के चंदे से इक्कट्ठे किए गए धन को चुनाव में नहीं लगाने के लिए क्या कदम उठाया था ? क्या धन का व्यय हो चुकने के बाद नींद से जागने पर वह धन वापस आ सकता है ? क्या किसी नेता का एक कदम आगे बढाना और फिर दबाव अथवा डर से कदम को पीछे करना उचित कहा जा सकता है ? क्या सार्वजनिक रूप से घोषणा कर अपना पल्ला झाडने पर उन साधनों और उर्जा को वापस पाया जा सकता है जो श्री एक्का के चुनाव प्रचार में खर्च हो गए ? क्या उन हजारों नवयुवकों की आशा, उत्साह और मेहनत को श्री तिर्की यूँ ही ठुकरा सकते हैं जिन्होंने समाज को चुनाव के माध्यम से एक राजनीतिक नेता प्रदान करने के लिए दिन-रात एक कर दिए ? हार के बाद चुनाव से पल्ला झाड कर श्री तिर्की आदिवासी नवयुवकों को कौन सी सीख देना चाहते है अथवा उन्हें अपना कौन सा चरित्र और गुण दिखाना चाहते हैं ?
डुवार्स के झारखण्डी समाज में हमेशा विश्वसनीयता की कमी का संकट रहा है। विश्वास की कमी के कारण समाज में कहीं भी, कभी भी सामाजिक निर्णयों में एकमत नहीं होने के कारण बिखराव की स्थिति रही है। इसी का लाभ राजनैतिक पार्टियॉं और मजदूर यूनियनों के नेतागण उठाते रहे हैं। यदि अभाअविप के नेतागण भी लोगों के विश्वास को कायम रखने में असमर्थ रहते हैं तो यह पुन: एक संकट को जन्म देगा और समाज में अविश्वास की खाई गहरी होगी। अत: समय का तकाजा है कि नेतागण हर कदम अच्छी तरह सोच-विचार करके ही आगे बढाऍं और अपने घोषित निर्णय पर अडिग रहें।
Dear Sir,
The first political terms of Bikas Parishad was not successful. The confidence of adibasi people have been shaken upto some extend. But the unity is there and this will bring success in future. Shanicharwa Oraon, Kolkata.
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Let us think over it deeply and find some meaningfull means to highlight the issues of the adivasi people in Dooars and Terai..undoubtedly we should feel demoralised and defeated while while we have the support of more than 98% of the tea garden workers community.That massive support has to be focussed in a better way.
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Dear Muktijee,
The feeling of defeat is really a bad thing for morale of general Adivasi, especially in context of Kalchini by election when they know they were or are in majority. The leaders of society, irrespective of their political affiliation, are to be blamed for the sordid situation. However, we should remember the maxim that the ‘King is the man who wins the battles.’
The Adivasi problems could be solved with the right kind of approached for the each burning issue. However, the situations must be analyzed in details. The casual manner of analyzing will never solved the problems. The leaders are often bestowed with personal vested interests. They are not open minded and hearted. People are unable to repose their faith on them.
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