पश्चिम बंगाल में जंगल राज

नेह इंदवार

कथित तौर पर कुछ व्यक्तियों द्वारा दो प्रकार के जाति प्रमाण पत्र धोखाधड़ी से प्राप्त किए जा रहे हैं।

.(1) फर्जी या जाली जाति प्रमाण पत्र,

(2) किसी अयोग्य व्यक्ति द्वारा तथ्यों की गलत बयानी और अन्य फर्जी तरीकों से।

.नम्बर (1) के मामले में, इसे आपराधिक कानूनों के संदर्भ में निपटाया जाना चाहिए। इसके लिए शिकायत मिलने पर पुलिस या जाँच एजेंसी एफआईआर दायर करता है। ऐसी फर्जी डिग्री रखने वालों पर धारा 420 (धोखाधड़ी), 467 (मूल्यवान सुरक्षा की जालसाजी), 468 (धोखाधड़ी के लिए जालसाजी), 471 (जाली दस्तावेज को असली के रूप में उपयोग करना) और 109/120 बी (आपराधिक साजिश के लिए उकसाना) के तहत आरोप लगाए गए हैं। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत इसके लिए 7 (सात) साल तक की सजा का प्रावधान है।

.इतने कानूनी प्रावधान के बावजूद पश्चिम बंगाल में, बकौल एक अखबारी सूचनानुसार, 25 हजार से अधिक नकली एसटी सर्टिफिकेट जारी होने का संदेह है। सबसे बड़ी बात है कि सरकार को तमाम सूचनाएँ वक्त रहते ही मिल जाती हैं, लेकिन वह नकली सर्टिफिकेट वालों को पकड़ने, उसकी जाँच करने के लिए कोई कदम नहीं उठाती है। पिछले तीन चार सालों से कई नौकरियों, पेशेवर शिक्षा आदि में नियुक्ति / Final Admission के बाद जारी होने वाली सूचियों में नकली लोगों के नाम और टाईटल्स विवरण सहित फोटोज सोशल मीडिया में लगातार प्रकाशित होते रहे थे। लेकिन किसी भी सरकारी विभाग ने स्वतः संज्ञान लेकर कोई एक्शन (Suo moto action) नहीं लिया।

.एमबीबीएस में दर्जनों ने नकली सर्टिफिकेट के बल पर आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर कब्जा किए, सरकार को पता चला, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। 2013 से पहले राज्य में आदिवासियों को Post Graduation Medical Education में प्रवेश ही नहीं दिया जाता था। अब दिया जा रहा है लेकिन बैचलर डिग्री में नकली आदिवासियों को ही प्रवेश देकर आदिवासियों के सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक ढाँचा को गिराने में सहभागिता देने के लिए पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ सरकार ने आँखें बंद कर ली है।

.जब ईशिता सोरेन ने इस मामले पर उच्च न्यायालय में न्याय मांगने गई और न्यायधीश ने राज्य की मशीनरी को अविश्वसनीय मानते हुए सीबीआई की जाँच के लिए आदेश दिया, तो राज्य मशीनरी जैसे सोते से जाग गया और उसी दिन दो न्यायधीश के कोर्ट में जाकर इस पर स्टे ले लिया।

.यदि कोर्ट राज्य की सीआईडी को जाँच की जिम्मेदारी देता तो ये लोग नींद की खुमारी में ही रहते, क्योंकि वह तो उनके ही आदेशों पर कार्य करने वाला सरकारी विभाग है। उसे तो वे उसी तरह मैनेज कर लेते जैसे चाय बागानों में करोड़ों के पीएफ घोटालों की जाँच को वे मैनेज करते रहे हैं। इन घटनाक्रमों से यह साबित हो गया कि फेक सर्टिफिकेट के मामले पर राज्य सरकार अनभिज्ञ नहीं थी और उसे आदिवासी समाज के साथ हो रहे अन्याय, भेदभाव, वंचना से कोई दिक्कत नहीं थी। यदि यह कहा जाए कि यह सरकार संवैधानिक, कानूनी और नैतिक रूप से आदिवासी हित की सुरक्षा करने में फिसड्डी साबित हुई तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है।

.आखिर सरकार जालसाजों को क्यों बचाना चाहती है? फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सरकारी वकील का कहना है कि जब प्रार्थीं ने सीबीआई जाँच की मांग ही नहीं की तो न्यायधीश ने क्यों सीबीआई जाँच का आदेश दिया ? मतलब साफ है कि राज्य सरकार चाहती है कि जिन लोगों ने आदिवासी समाज के साथ नाइंसाफी किया, उन्हें ही जाँच की जिम्मेदारी भी सौंप दिया जाए !!!

.पश्चिम बंगाल सरकार के वेबसाईट के अनुसार संख्या (2) के मामले में पश्चिम बंगाल एससी और एसटी (पहचान) अधिनियम 1994 और पश्चिम बंगाल एससी और एसटी (पहचान) नियम 1995 के प्रावधान के अनुसार प्रमाण पत्र रद्द करने की कार्यवाही शुरू करने के लिए एसडीओ सक्षम प्राधिकारी है। राज्य सरकार ने ऊपर उल्लिखित दोनों प्रकार के मामलों से निपटने के लिए राज्य स्तर पर एक जांच समिति और सभी जिलों में सतर्कता कक्ष भी स्थापित जिला सतर्कता सेल के गठन में प्रावधानों को सेल के अध्यक्ष के रूप में एक अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को शामिल करने के लिए संशोधित किया गया है।

.सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर तीन सप्ताह में सभी को अपना पक्ष रखने के लिए आदेश दिया है। राज्य सरकार करोड़ों रूपये खर्च करके बड़े-बड़े वकीलों के माध्यम से अपनी चमड़ी बचाने के लिए उतर गई है। लेकिन आदिवासी समाज आर्थिक रूप से बहुत कमजोर है। वह बड़े-बड़े वकीलों के फीस नहीं दे सकता है। इसलिए जरूरी है कि इस विषय पर समाज ईशिता सोरेन के मामले पर संबंधित लोगों के साथ खड़े हों और इस मामले पर दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए अपना निशर्त समर्थन दें।

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