छल प्रपंचों के शिकार चाय मजदूरों की नयी आशा

आखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (अभाआविप) के द्वारा गठित मजदूर संघ ‘प्रोगेसिव टी वर्कर युनियन’ को मान्‍यता मिलने के लिए श्रम आयुक्‍त के कार्यालय द्वारा दिया गया वायदा एक महत्‍वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। अभाआविप को युनियन गठन के लिए हार्दिक बधाई।

आज तक तथाकथित मुख्‍य धारा के मजदूर संघों ने मजदूरों के लिए क्‍या हासिल किया है? इसका लेखा जोखा देखा जाए, तो इसका विवरण देखकर निराशा ही हाथ लगती है। इसके कई कारण रहे हैं। एक मुख्‍य कारण बागानों में कार्यरत मजदूरों की  शिक्षा–दीक्षा से भी जुडी हुई है। आजादी के बाद बागान के मजदूरों की शिक्षा के लिए कोई महत्‍वपूर्ण कदम नहीं उठाया गया। जो भी कदम उठाया गया और घोषणाऍं हुई, वे सारे या तो अधूरे मन से, अथवा उन्‍हें सिर्फ झुनझुने के रूप में ठगने और भ्रमित करने के लिए किया गया।


मजदूरों के हित में  टी प्‍लांटेशन एक्ट 1952 बना। लेकिन एक्‍ट को लागू करने के लिए जो विनियम (रूल्स) राज्‍य सरकार द्वारा बनाए गए, वे बेहद लचर विनियम थे। उसमें एक्‍ट को कड़ाई से लागू करने के लिए ऐसे प्रावधान नहीं डाले गए कि उसे विकास और बेहतरी की भावना से लागू किया जाता। दशकों तक प्‍लांटेशन एक्‍ट के प्रावधानों के साथ खिलवाड़, उल्‍लंघन और बलात्‍कार होता रहा। लेकिन कभी किसी को इसके लिए कोई सजा नहीं दी गई। कभी किसी मजदूर संघ ने इसके उल्‍लंघन के खिलाफ  कोई संघर्ष नहीं किया।

कई अच्‍छी बातें थी प्‍लांटेशन एक्‍ट में। यदि उसे ईमानदारी से लागू किया जाता तो मजदूरों के घर अच्‍छे होते। घर अच्‍छे होते तो उनकी सामाजिक स्थिति अच्‍छी होती। सामाजिक स्थिति अच्‍छी होती तो उनके मानसिक, आर्थिक और शैक्षिक सोच में परिवर्तन आता। सोच में परिवर्तन होने पर आदमी और परिवार पर सकारात्‍मक प्रभाव होता है। प्‍लांटेशन एक्‍ट के अनुसार पीने के लिए स्‍वच्‍छ जल। मजदूर बस्तियों में नागरिक सुविधाओं की व्‍यवस्‍था। बच्‍चों के उचित शिक्षा की व्‍यवस्‍था। शिक्षित हो रहे बच्‍चों को वाजिफा और अर्थ सहायता मिलने थे। स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था को दुरूस्‍त करने के लिए प्रत्‍येक बागान में अच्‍छे अस्‍पताल और केन्‍द्रीकृत सुपर अस्‍पताल बनने थे।

चाय बागान एक Estate  अर्थात् एक संपत्ति के रूप में ईकाई होती है। जिसके अंदर की व्‍यवस्‍था के लिए बागान प्रबंधन पूरी तरह जिम्‍मेदार होती है और उसे अपनी जिम्‍मेदारी निभाने के लिए पर्याप्‍त अधिकार और स्‍वतंत्रता प्रदान किए गए हैं। मजदूरों के कल्‍याण के लिए व्‍यय की जाने वाली राशियों पर उन्‍हें कर (टैक्‍स)छूट मिलती रही है। मजदूरों के क्‍वार्टर बनवाने के लिए बागान प्रबंधन को 66.33 प्रतिशत सरकारी अनुदान मिलते रहे हैं। अस्‍पताल, क्रेचर बनवाने, पीने के स्‍वच्‍छ जल की लाईन बिछाने के लिए अनुदान मिलते रहे हैं। यहॉं तक की राशन, सडक और नालियॉं बनवाने के लिए भी सरकारी अनुदान मिलते रहे हैं। लेकिन सामंती और दमनकारी सोच  के शिकार रहे प्रबंधन वर्ग ने कभी भी मजदूरों को उचित नागरिक व्‍यवस्‍था देने और उनके जीवन में सुधार लाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। उल्‍टे उन्‍हें अधिक पिछड़े बनाए रखने और अपनी शोषणतंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए चाल पर चाल चलते रहे। वे चाहते तो अपने प्रबंधकीय कौशल का उपयोग समाज विकास में कर सकते थे। लेकिन वे अपनी कौशलता और विशेषज्ञता को सिर्फ आर्थिक लाभ को लोभी और अन्यायी शोषण में बदलने में लगा दिए।

सामान्‍य भारतीय नागरिकों को मिलने वाली नागरिक सुविधाओं और शिक्षा अवसरों से वंचित करने के लिए मजदूरों के बच्‍चों के लिए दशकों तक ”छोकड़ा बीघा”  का चलन बनाए रखा। ताकि मजदूरों के बच्‍चे दो–तीन रूपये मजदूरी पाने के खातिर अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़कर चाय बागानों में मजदूरी करते रहें और बागानों में सस्‍ते और अनपढ मजदूरों की आपूर्ति बनी रहे। मजदूर आवासों में पीने के नल के कनेक्‍शन और टायलेट की व्‍यवस्‍था नहीं दिए जाते रहे। ताकि उनका जीवन स्‍तर नीचे रहे और उनमें स्‍वाभिमान की भावना न जागे। उनके बच्‍चे पानी लाने और टायलेट आने जाने में अपना समय व्‍यर्थ गंवाते रहे और पढाई न कर सकें। बागान विद्यालयों की शिक्षा गुणवत्ता पर जानबूझ कर कोई ध्यान नहीं दिया गया। पक्‍के मजदूर आवास बनाने के लिए 66.33 प्रतिशत अनुदान पाने के बावजूद मजदूरों के लिए पक्‍के मकान नहीं बनाए जाते थे, ताकि वे फूस के झोपडी में रहें और कभी अन्‍य नागरिकों के साथ बराबरी की स्थिति और भावना न पा सकें। तमाम अनुदान पाने के बावजूद बागानों में अस्‍पताल स्‍तरीय नहीं बनाए जाते थे। क्‍योंकि बागान प्रबंधन और लिपिक वर्गों को बागान के खर्चे पर बाहर के अस्पतालों में इलाज करवाने की छूट प्राप्‍त थी। जबकि मजदूरों को बड़ी से बड़ी बीमारी का इलाज भी बागान अस्‍पताल में ही करवाना होता था, जहाँ प्रशिक्षित डाक्टर और नर्स उपलब्ध नहीं होते थे। इन अस्‍पतालों में सिर्फ लाल रंग के मिक्‍स घोल ही उपलब्‍ध रहते थे। आज भी हालत नहीं सुधरी है। इन अस्‍पतालों में घटिया इलाज कराके कितने लाख मजदूर अपनी जान गवाँ बैठे, इसका कोई हिसाब नहीं होगा। यदि सही ढंग से रिसर्च किया जाए तो यह जर्मनी के तानाशाह हिटलर के द्वारा मारे गए यहूदियों की संख्‍या को भी पार कर जाएगा।

एक स्‍वतंत्र देश में गरीब, अनपढ मजदूरों के साथ कैसी पशुता और नीचता का व्‍यवहार किया गया, इसकी कोई सीमा नहीं रही है। तमाम पक्षपात, अमानवीय व्‍यवहार के शिकार रहे चाय मजदूर आज भी विद्रोही नहीं बन पाए हैं, तो इसका श्रेय शोषकों के भाग्‍यवान होने के नहीं, बल्कि मजदूरों की मानसिक भूमि को कुचलने की चाल के कामयाब होने को जाता है।

भारतीय सं‍विधान में हर नागरिक को विकास का समुचित अवसर देने की व्‍यवस्‍था की गई हैं। स्‍वतंत्रता, शिक्षा, रोजगार,  भाषा–संस्‍कृति,  मेहनत के बदले पर्याप्‍त वेतन–मजदूरी और  नागरिक–सामाजिक सुविधा प्राप्त करने आदि का अधिकार भी इनमें शामिल है। इसी अधिकार के तहत अपने अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए मजदूर संघ बनाने और अपनी तोलमोल की ताकत को बनाए रखने के अधिकार भी शामिल है।

लेकिन एक विराट चाय उद्योग में कार्यरत करीबन तीस लाख लोग आज भी इन अधिकारों से वंचित हैं। क्‍योंकि उनके लिए बने मजदूर संघों में बाहरी लोग कब्‍जा जमा कर बैठै हैं और वे मजदूरों के भलाई के लिए काम करने के बदले अपने स्वार्थों को पूरा करने में लगे हुए हैं। आज कमोबेश हर मजदूर नेता के पास लाखों और कईयों के पास करोडों की संपत्ति है। वहीं दूसरी ओर चाय मजदूरों को आज भी पचास रूपये से भी कम मजदूरी मिलती है। उनके इक्‍के दुक्‍के बच्‍चे ही स्‍तरीय और मुकम्मल शिक्षा हासिल कर पा रहे हैं। वे आज भी साफ पीने के पानी, बिजली, टायलेट, अस्‍पताल और दवाईयों से वंचित हैं। वे आज भी कच्‍चे और टूटे फूटे मकानों में रहने के लिए अभिशप्‍त हैं। चाय उत्‍पादन में अपनी जिन्‍दगी होम कर देने वाले मजदूरों को अच्‍छी चाय भी नसीब नहीं है। उन्‍हें राशन में घटिया चाय दी जाती है।

आज चाय मजदूरों की माली हालत इतनी पतली है कि वे साधारण पौष्टिक भोजन भी प्राप्‍त करने में असमर्थ हैं। पौष्टिकता की कमी के कारण नब्‍बे प्रतिशत एनीमिया अर्थात खून की कमी बीमारी से ग्रस्‍त हैं और शायद ही कोई परिवार ऐसा हो, जो बीमार सदस्‍यों के कारण त्रस्‍त और परेशान न हो। अत्‍यंत कम आय और घटिया नागरिक सुविधाओं के कारण लोगों में शारीरिक और मानसिक बीमारी तो आम है ही, हताश और आशाहीन लोगों में मद्यपान की लत भी सर्वत्र पायी जाती है।

मजदूर संघों ने इन मजदूरों की बेहतरी के लिए कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उल्‍टे वे मजदूरों से चंदे उगाहने में व्‍यस्‍त रहे। हर साल लाखों रूपये के चंदे मिलते रहे, जिसे कभी मजदूरों के लाभ के लिए नहीं लगाया गया। चंदे को मजदूर नेता जो राजनैतिक नेता के रूप में भी भूमिका निभाते रहे, हजम करते रहे। वे मजदूरों के बोनस में भी कमीशन खाते रहे। आलतू फालतू मुद्दों पर हड़ताल और बंद करते रहे। लेकिन मजदूरों के सच्‍चे विकास के लिए कभी भी कोई प्रस्‍ताव लेकर न तो सरकार के पास गए, न ही किसी अदालत के पास। मजदूरों को देखने का इनका रवैया चाय बागानों के शोषकमूलक प्रबंधन और मालिकों से बिल्‍कुल ही जुदा नहीं रहा।

उत्‍तर बंगाल और असम के चाय बागानों में जहॉं मजदूरों की हालत कभी बदली नहीं, वहीं दक्षिण भारत के चाय बागानों की कहानी इसके बिल्‍कुल जुदा है। दक्षिण के चाय बागानों में शिक्षा का प्रतिशत अधिक है। बच्‍चे उच्‍च शिक्षा ग्रहण करते हैं। उन्‍हें बेहतर नागरिक सुविधाऍं प्राप्‍त हैं। दक्षिण भारत के चाय अंचल के बीचोबीच स्थित मुन्‍नार नामक पहाडी शहर में टाटा टी कंपनी का विशाल सुपर स्‍पेशलइटी का अस्‍पताल स्थित है। जहॉं करीबन सभी तरह के विशेषज्ञ डाक्‍टर उपलब्‍ध हैं। लेकिन उत्‍तर बंगाल के किसी भी अंचल में चाय बागानों के मजदूरों के लिए ऐसा या इससे कमतर कोई अस्‍पताल नहीं है।जबकि टाटा टी कंपनी के कई बड़े–बड़े बागान डुवार्स और तराई में हैं। यदि टाटा दक्षिण भारत में ऐसा विराट अस्‍पताल बना सकता है, तो यह उत्‍तर बंगाल में भी बना सकता था। लेकिन यदि इस कंपनी ने यहॉं नहीं बनाया, तो इसका सीधा–सा कारण है कि यहॉं उसे टी प्‍लांटेशन एक्‍ट अथवा यहॉं की सरकार और प्रशासन की कोई परवाह नहीं है। यहॉं के तथाकथित मुख्‍य धारा के मजदूर संघों ने कभी ऐसा कोई दबाव नहीं बनाया कि टाटा, गुडरिक अथवा अन्‍य कोई कंपनी इस तरह के अस्‍पताल के बारे में सोचे भी। सेंट्रल हास्पिटल की बातें नियमों में हैं। इसी नियमों के तहत हासीमारा, भाटपाडा, भगतपुर आदि जगहों पर सेंट्रल अस्‍पताल खोले गए थे। लेकिन आज इन अस्‍पतालों को निम्‍न कैटिगरी के अस्‍पतालों के रूप में जाना जाता है। जहॉं कोई विशेषज्ञ डाक्‍टर नहीं होते हैं। न ही किसी तरह की जीवन रक्षक दवाईयॉं और पैथोलॉजी टेस्‍ट के लिए कोई उपकरण।

इन अस्‍पतालों को दुर्दशा में पहुँचाने के लिए सीधे रूप में चाय बागान प्रबंधन और उनके संघ डीबीआईटी तथा उनके साथ मेन स्‍ट्रीम के मजदूर संघों के नेता जिम्‍मेदार हैं। यदि वे ईमानदार होते तो इन बातों को जोरदार ढंग से उठाकर राज्‍य सरकार के सामने रखते और इस पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए दबाव डालते। यदि फिर भी स्थिति नहीं बदलती तो पूरे चाय उद्योग में हड़ताल और बंद कराते। लेकिन इन्‍होंने कुछ नहीं किया। क्‍योंकि इन नेताओं का इन अस्‍पतालों से कोई सीधा संबंध नहीं था और बागान प्रबंधकों को इन अस्‍पतालों को चलाने के लिए प्रति वर्ष अपने हिस्‍से के रूप में काफी राशि चुकाना पडता था। टी बोर्ड चाय मजदूरों के बच्‍चों की पढ़ाई लिखाई और रोजगारउन्‍मुलक प्रशिक्षण देने के लिए प्रशिक्षण संस्‍थानों को अनुदान और वाजिफा देता है। लेकिन डुवार्स–तराई में कहीं भी कोई रोजगारमुलक प्रशिक्षण संस्‍थान नहीं खोले गए हैं। मजदूरों की भलाई के हिमायती होने के ढोंग कर रहे मजदूर संघ, यदि ईमानदार होते तो वे ऐसे संस्‍थानों के गठन और स्‍था‍पना के लिए कदम उठाते।

जब कोई चाय बागान बंद हो जाता है, तो वहॉं के मजदूरों के पास कोई वैकल्पिक रोजगार के साधन नहीं होते हैं। वे मजदूर संघों और कंपनी के रहमों करम पर होते हैं और उनकी जी हुजूरी करके पुन: बागान खोलने की मिन्‍नतें करते हैं। मजदूरों की विकल्‍पहीनता की बातें जगजाहिर है। इसीलिए चाय बागानों के प्रबंधन बागानों को अपनी जमींदारी की तरह चलाते हैं और मजदूरों के अधिकारों और सम्‍मानों को रौंदते रहते हैं। यदि कभी कोई बागान–प्रबंधन की गुंडागर्दी, भ्रष्‍टाचार और अव्‍यवस्‍था का विरोध करता है तो वे तुरंत बागान बंद करने की न सिर्फ धमकी देते हैं, बल्कि बागान बंद करके मजदूरों को यह संदेश भी दे देते हैं कि यदि वे अपने अधिकारों की बातें करेंगे तो उन्‍हें भूखे मरने के लिए मजबूर किया जा सकता है। इसी तरह से मजदूरों को डरा धमकाकर वे बागानों में घटिया जूते, चप्‍पल, छाते, कंबल और दवाईयॉं की आ‍पूर्ति करते हैं। बागान के पेड़–लकड़ी, चाय–पत्तियों को अवैध ढंग से बेचते हैं और एक दो घंटे बिजली देने के नाम पर मजदूरों से दो तीन सौ रूपये झटक लेते हैं। लेकिन इस तरह के किसी भी गैरकानूनी और अन्‍याय का विरोध कभी भी मेन स्‍ट्रीम के मजदूर संघों ने नहीं किया। नेवरानदी चाय बागान को सिर्फ इसलिए बंद कर दिया गया था कि वहॉं कुछ मजदूर बागान प्रबंधन की घुडकी में नहीं आ रहे थे।

हजारों ऐसे उदाहरण है जो विस्तार से लिखे जाऍं तो पूरे विश्‍व के न्‍यायप्रिय लोगों की रीढ की हड्डी को कंपकपा देने के लिए काफी होंगे। चाय मजदूरों के साथ होने वाले अमानुषिक अन्‍याय, अत्‍याचार, पक्षपात, शोषण आदि को देखते हुए त्रिपुरा के एक पूर्व मुख्‍यमंत्री ने एक बार हैरानी व्‍यक्‍त की थी कि आदिवासी क्‍यों विद्रोही नहीं बन रहे हैं। कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि मजदूर संघ मजदूरों के रहनुमा बन कर मजदूरों का ही शोषण करने में जुटे रहे। वे मजदूरों को अस्‍तीन का सॉंप बनके डसते रहे और मजदूर चिल्‍ला भी नहीं पा रहे।

चाय बागान के मजदूर अच्‍छे दिन की आशा में अपना जीवन गुजारते रहे हैं। लेकिन उनकी मौलिक गरीबी और बदहाली में कोई परिवर्तन नहीं आया है। अभी भी वे अच्‍छे दिन आने की वाट जोह रहे हैं। आदिवासी विकास परिषद उन्‍हें परिवर्तन की एक किरण दिखलाया है। लेकिन समय ही बतायगा कि वे कितनी ईमानदारी से मजदूरों की जिन्‍दगी में जगह बना पाते हैं। मजदूर संघों के पास मजदूरों के चंदे के बहुत पैसे आते हैं। इन्हीं पैसों को देखकर अनेक अवांछित तत्व मजदूर संघों में घुस जाते हैं। पैसे के मोहपाशे में बँधे लोगों से विकास परिषद कैसे निपटता है, यह भी देखा जाना है। यदि ईमानदारी बनी रहती है तो सफलता मिलने की पूरी गुंजाइश है। मजदूरों की आशा पूर्ण होगी। यदि पैसे का प्रबंधन ठीक नहीं होगा तो इतिहास अपने को फिर दोहराएगा। अपने ही लोगों द्वारा ठगे जाने का दंश बहुत कष्टदायक होता है। लेकिन इतिहास सभी को एक मौका देता है, सभी को यही आशा करना चाहिए कि विकास परिषद ईमानदारी से अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा और मजदूरों के जीवन में अमूलचूल परिवर्तन ला कर सबके दिल में जगह बनाएगा।

छल प्रपंचों के शिकार चाय मजदूरों की नयी आशा” पर एक विचार

I am thankful to you for posting your valuable comments.

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.