बच्चों को पारिवारिक शिक्षा

नेह इंदवार

👶🧠आमतौर से बच्चों का #दिमाग बहुत #जिज्ञासु होता है।
बच्चे अपने शैशवकाल से ही हर चीज को बहुत उत्सुकता और जिज्ञासु भरी नजरों से देखते हैं और उन्हें गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। यह सिर्फ मूर्त रूप में ही नहीं होता है, बल्कि बच्चे अप्रत्यक्ष और भावनात्मक स्तर पर भी जिज्ञासु होते हैं। वे लोगों के चेहरे के भावों को देखकर उन्हें पढ़ने की कोशिश करते हैं। अत्यंत छोटे बच्चे कभी किसी अन्जाने से व्यक्ति के पास प्रसन्नता पूर्वक चले जाते हैं, वहीं वे किसी के पास लाख पुचकारने पर भी नहीं जाते हैं। भावनाओं को अव्यक्त रूप में भी जानने समझने की क्षमता बच्चों में स्वाभाविक रूप में होती है, इस विषय पर हुए अध्ययनों से सैकड़ों उदाहरण मिल जाते हैं। अच्छे बुरे की पहचान की क्षमता या विवेकशीलता मनुष्य की खासियत है।
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👶🧠एक माता-पिता या घर के बड़े सदस्य के रूप में बच्चों का सही मार्गदर्शन देना और उनका सही शारीरिक और मानसिक पोषण देना परिवार का प्रथम कर्तव्य होता है। हर बच्चे का एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। उनके अनुभव करने की क्षमता और विश्लेषण की क्षमता भी दूसरों से भिन्न होती है। बच्चों के विवेकशीलता को सुसंगत लक्षणों के साथ विकसित करना परिवार के लिए बहुत मायने रखना रखता है। बच्चों में आत्मविश्वास, आत्मबल स्वाभाविक रूप में विद्यमान होता है। अपने तरीके से हर विषय पर शोध करने की मानसिक क्षमता भी जन्मजात होती है। उसे प्राकृतिक और स्वाभाविक रूप में बनाए रखना परिवार का सर्वोपरि कर्तव्य होता है।
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👶🧠अक्सर माता पिता बड़े हो रहे बच्चों के कोमल मन पर अपने बचपन से सीखे गए या अपनाए गए धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक, भाषाई, जातिवादी, नस्लवादी, वर्णवादी, राजनैतिक विचारों को बिना सोचे समझे थोपना शुरू कर देते हैं और उन्हें पूर्वकल्पित पूर्वाग्रह और विचारों का गुलाम बना देते हैं। उनके कोमल मन पर जिज्ञासा भरे सवालों को निष्पक्ष, संतुलित, ठोस वैज्ञानिक और सार्वभौमिक उदाहरणों सहित विस्तृत रूप से बताने के बजाए मामा-पिता, घर के बड़े सदस्य अपने स्तरहीन, धार्मिक, अध्ययन रहित पक्षपाती पूर्वाग्रहों को बच्चों के दिमाग में फिट करने लगते हैं। ऐसा लगातार करने से स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहे बच्चे के विवेकशील क्षमता भरे दिमाग को विश्लेषण करने के लिए संतुलित वैज्ञानिक मान्यपूर्ण डेटा ही नहीं मिलता है और वह एकपक्षीय बातों या व्यवहार या डेटा इन्पूट का शिकार हो जाता है और आधारहीन, पोंगापंथी डेटा को ही अंतिम सत्य समझ लेता है।
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👶🧠इससे उनके सत्य शोधक क्षमता का संतुलित और वैज्ञानिक टेम्पेरामेंट के आधार पर विकासित होने के बदले ऐसे मूल्यों के साथ विकसित होने लगता है, जो एक दिन उसे वैज्ञानिक टेम्पेरामेंट के सामने लज्जित करवाएगा और उनके आत्मबल और विश्वास को गहरा धक्का लगवाएगा। ऐसी शिक्षा बच्चे को धार्मिक, जातिवादी, वर्णवादी कट्टर इंसान बनाता है। कट्टरपंथी की कट्टरता की पृष्ठभूमि अक्सर उसके लालनपालन में ही होता है।

👶🧠हर बच्चा एक शोधार्थी होता है। वह अपने बचपन से अपने युवा होने की प्रक्रिया में निरंतर, रोज, नयी बातों और चीजों के साथ नये दृष्टिकोण से भी परिचय प्राप्त करता है। घर, बाहर या स्कूलों में रोज नयी बातें सीखता है। परिवार के द्वारा यदि उसे बताया जाए कि माता पिता द्वारा अपनाए गए धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक प्रतीक, भाषाई अधिकार या व्यवहार, जातिवादी भावनाएँ, नस्लवादी विचार, वर्णवादी पूर्वाग्रह, राजनैतिक झुकाव आदि ही श्रेष्ठ है और बाकी सब कागज के लुग्दी तो बच्चे के शोधार्धी मन और क्षमता के सामने एक दीवार खड़ी हो जाएगी और बच्चा एकाकी विचारों का गुलाम बन जाएगा।
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👶🧠बहुलता पूर्ण दुनिया से बच्चा का परिचय एक दोस्त के रूप में न होकर एक दुश्मन के रूप में ही होता है। उसके दिमाग को समंजस्य स्थापित करने में मुश्किल होता है। स्कूलों के वैज्ञानिक शिक्षण और परिवार के पोंगापंथी शिक्षण में जमीन असमान का अंतर बच्चे के विश्लेषण शक्ति को चक्कर में डाल देता है। उसका ऊर्जावान सोच को बंजर विचारों से बहुत हानि पहुँचता है। प्राचीन धर्म संस्कृति और परंपरा ऐसे समय में विकसित हुए थे, जब समाज 99.9% अनपढ़ और अविकसित थे। तब वैज्ञानिक ज्ञान किसी को नहीं था और लोग काल्पनिक विचारों से संचालित होते थे।
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👶🧠बच्चों के श्रेष्ठ गुणों को पल्लवित करके उन्हें श्रेष्ठ मानव बनाने में माता-पिता और परिवार का ही हाथ होता है। यदि माता-पिता सजग नहीं होगें तो वे अपने बच्चों को धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई, जातिवादी, वर्णवादी, नस्लवाद पोंगापंथी बना कर छोड़ देंगे और बच्चे को युवा होने के बाद तमाम बिन्दुओं पर फिर से अपने अनुभव के आधार पर विवेकपूर्ण विवेचना करने की आवश्यकता होगी और इस प्रक्रिया में वह एक दिग्भ्रमित व्यक्ति के रूप में विचारों के स्तर पर संघर्षरत होगा। वह मानसिक रूप से एक प्रखर व्यक्तित्व नहीं पा सकेगा।
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👶🧠यदि बच्चा उच्च शिक्षित हो जाएगा और उन्हें तमाम विषयों पर संतुलित और सकरात्मक रूप से विचार करने का महौल मिलेगा तो वह अपने माता-पिता को पूर्वाग्रह से ओतप्रोत पाएँगे और वह अपने माता-पिता को पिछड़े मानसिकता, अशिक्षा, पोंगापंथी से ग्रस्त समझेंगे। जेनरेशन गैप की जो बातें कही जाती है, उसमें ऐसी बातों का भी समावेश रहता है। परिवार में अविश्वास की मानसिक खाई अपने आप बन जाती है।
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👶🧠एक माता-पिता के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे यदि शिक्षित हैं तो अपनी शिक्षा का लाभ उठाते हुए वे उन तमाम विषयों पर प्राथमिक रूप से पर्याप्त संतुलित वैज्ञानिक रूप से मान्य ज्ञान प्राप्त करें, जिन विषयों पर बच्चे का दिमाग उत्सुक और जिज्ञासु रहता है।
बच्चा घर की बिल्ली या मुंडेर पर सुरीली ताल बिखेर रहे लिटिया चरई से लेकर चाँद-तारे तक के सवाल पूछ सकते हैं। वे किसी दार्शनिक की तरह प्रश्न पूछ सकते हैं कि “जब आप (माता-पिता) छोटे थे तो हम (बच्चे) कहाँ थे?”
👶🧠उन्हें भूगोल से लेकर विज्ञान और दर्शन तथा नैतिक शास्त्र तक की बातें सटीक और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध (Proved) बातें ही बताई जानी चाहिए। ख्याल रखें बड़े होने पर आपकी बातों का कोई ठोस आधार उन्हें नहीं मिलेगा तो वह आपको पोंगापंथी, अंधविश्वासी, अशिक्षा न समझ लें। आपका मूल्य उनकी नज़र में पहले की तरह नहीं रहेगा। व्यवहार के स्तर पर ये बातें देखी गई हैं।
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👶🧠हाल ही में मैंने एक मित्र के फेसबुक वाल पर देखा था, उन्होंने अपने सजातीय दोस्तों के लिए लिखा था, कि “हमें अपने बच्चों को नये तरह से सामाजिक मूल्यबोध सिखाने की जरूरत होगी, क्योंकि हमारे बच्चों को पिछड़े समाजों के वैज्ञानिक रूप से सचेत बच्चों के साथ जीवन संघर्ष करना होगा, अगली सदी पिछड़े समाजों के मुट्ठी में कैद होगी,वे बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।“
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👶🧠यह पोस्ट सचमुच चौंकाने वाला था। उन्होंने भाँप लिया है कि सार्वभौमिक शिक्षा ने युगों से पिछड़े समाजों के विवेक पर बिठाए गए पर्दा को उखाड़ कर फेंक दिया है और उनका समाज बड़ी तेजी से Scientific temperament प्राप्त किए जा रहे हैं। धर्म, जाति, वर्ण, नस्ल, भाषा आदि के बंधनों को जितनी तेजी से पिछड़े समाज तोड़ रहे हैं और नये कीर्तिमान स्थापित किए जा रहे हैं, वह सचमुच आश्चर्यचकित करने वाली घटनाक्रम हैं।
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👶🧠मेरा व्यक्तिगत अनुमान है कि वैज्ञानिक स्वभाव को प्राप्त करने में आदिवासी समाज दूसरे समाज से आगे रहेगा। इसका मुख्य कारण एक ओर आदिवासी समाज में व्यावहारिक स्तर पर उपलब्ध वैचारिकी स्वतंत्रता है तो दूसरी ओर बचपन से संस्कार के नाम पर धार्मिक पोंगापंथी थोपन प्रक्रिया की अनुपस्थिति है।
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👶🧠आदिवासी समाज के बच्चे शिक्षित होने के साथ-साथ वैज्ञानिक टेम्पेरामेंट की ओर गमन करने लगते हैं। जबकि बचपन से धार्मिक संस्कार, कर्मकांड, जातिवाद, वर्णवाद, ऊँच-नीच की खुराक को रोज पिलाने वाले असमानता भरे समाज में यह तुलनात्मक रूप से देर से पहुँचता है। क्योंकि उनकी स्वतंत्र सोच पर पोंगापंथी की पहरेदारी बिठाई जाती है। किसी भी विषय पर कट्टरता व्यक्ति के विवेकशीलता का हरण करता है। धार्मिक और जातिवादी कट्टरता दिमाग को पंगु बनाता है और बच्चे के शोधार्थी व्यक्तित्व का समूल नाश करता है।
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👶🧠यदि आप अपने बच्चों को सचमुच बौद्धिक रूप से उदार, संतुलित विवेकशील, नैतिक रूप से एक मुकम्मल इंसान बनाना चाहते हैं तो उन पर अपनी सड़ी गली पुरातनपंथी पूर्वाग्रह लादने के बजाय उन्हें स्वतंत्र वैज्ञानिक बातें बता कर उन्हें स्वतंत्र सीमाहीन चिंतन के लिए अनुप्रेरित करें। ऐसे महौल पाकर उनकी प्राकृतिक क्षमता स्वाभाविक रूप से विकसित होंगी। आधुनिक युग में बच्चों के पालन-पोषण का यह सर्वोतम पथ होगा। अमेरिका, स्कैनडिनेवियन आदि देशों में बच्चों को स्वतंत्र सोच विकसित करने देने की ऐसी ही नीतियों पर ही बल दिया जाता है। दुनिया के अधिकांश विकसित सूचकांकों में इन देशों का अव्वल होने का यह भी एक कारण है।
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👶🧠अबोध बच्चों को दर्शन और नैतिक शिक्षा के नाम पर धार्मिक पोंगापंथी सिखाना उचित नहीं है। युवा होने पर उन्हें धर्म, दर्शन, नैतिकता, वैज्ञानिक मान्यताओं पर विचार और चिंतन करने का भरपूर समय और अवसर मिलेगा। इसलिए बचपन के स्वर्णकाल को मिट्टी काल न बनाएँ। आखिर वे ही तो आपके चांद सूरज और ब्रह्मांड है।👶🧠नेह इंदवार👶