क्रिटिकल सोच की कमी का परिणाम

नेह इंदवार

कई लोग बहुत हैरान होते हैं, जब धार्मिक किताबों में उटांग-पटंक बातें पढ़ते हैं। पृथ्वी को बनाने वाले, पीठ में उठाए रखने वाले, निगलने वाले, हिलाने वाले, पहाड़ को उठाने वाले, नदी की धारा बदलने वाले, नये नदी को बनाने वाले, पानी में चलने वाले, आकाश में उड़ने वाले, अथाह मात्रा में खाना पैदा करने वाले, आकाश-पताल में स्वर्ग-नरक का कारोबार करने वाले आदि सैकड़ों ऐसी कथाएँ हैं, जिन्हें पढ़कर बच्चे बहुत हैरान होते हैं या बिल्कुल भी नहीं होते है। कारण हजारों हैं। जिनके पास क्रिटिकल सोच अर्थात् आलोचनात्मक दृष्टि होती है। उन्हें इन बातों के खोखलेपन का  एहसास होता है। जिन्हें पास यह दृष्टि नहीं होती है, वे सभी बातों को दिल में बैठा लेते हैं।
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आमतौर से सभी बच्चे अपने माँ-बाप, पारिवारिक बुजुर्गों से बिना शर्त प्यार दुलार पाते हैं और उनसे वे लगातार हर तरह की सीख प्राप्त करते रहते हैं इसलिए बच्चे उन्हें सब कुछ जानने समझने वाले सर्वज्ञानी समझते हैं। वे बड़ों की बातों को पूरे फेस वैल्यू में लेते हैं, इसलिए वे उनकी बातों पर जल्दी अविश्वास करना नहीं सीख पाते हैं।
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दिन दुनिया और ज्ञान-जानकारी की दुनिया का प्रथम खिड़की माँ-बाप या पारिवारिक सदस्य ही होते हैं। बचपन के स्कूल में उन्हें रटने और सोचने का अभ्यास कराया जाता है, लेकिन क्रिटिकल होने की सीख बहुत कम मिलती है। चूँकि आमतौर से बच्चों को धार्मिक किताबों को सम्मान देने की सीख मिली रहती है। धार्मिक किताबों के मुख्य पात्र एक अन्जाना, अनदेखा परम शक्ति से संपन्न ईश्वर होता है। वह परम शक्ति संपन्न होने के साथ उसे समस्त यूनिवर्स का सृष्टिकर्ता के रूप में भी बच्चों के दिमाग में बैठा दिया जाता है। इन सीख में न तो क्रिटिकल सोच की जगह होती है और न प्रश्न और प्रतिप्रश्न का।
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बच्चों को सिखाया जाता है कि परिवार के द्वारा माने जाना वाला ईश्वर ही यूनिवर्सल ईश्वर है और परिवार के द्वारा माने जाने वाला धर्म को भी उसी ईश्वर ने यूनिवर्स से खास तौर से आकाश से आकर बनाया है। यदि बच्चों को क्रिटिकल रूप से सोचने के लिए प्रेरित किया जाता तो यूनिवर्स, यूनिवर्सल ईश्वर और उस ईश्वर का उस विशेष धर्म, उस विशेष धर्म से  समाज और उसके कार्य व्यवहार, संस्कृति, परंपराओं आदि से संबंधित हजारों प्रश्न बच्चों के दिमाग में पैदा होते। लेकिन चूँकि बड़े लोग भी बचपन में उन्हीं विशेष सीमित दायरे के सोच से होकर गुजरे हुए होते हैं, इसलिए वे बच्चों को क्रिकिटल सोच से यथासंभव दूर रखने की कोशिशें करते हैं। यह परिक्रिया राउण्ड में घुम पर पूरे समाज को ही क्रिटिकल सोच से लैस होने से वंचित करता है। ऐसे क्रिटिकल सोच से वंचित समाज को कुछ धुर्त टाईप के लोग अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए खूब उपयोग करते हैं और उनसे असंख्यक लाभ उठाते हैं।
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कमोबेश यह साबित हो चुका है कि संसार के सभी धार्मिक कथाएँ कभी स्थानीय लघु दंतकथाएँ हुआ करती थीं। हर अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग दंत कथाएँ हुआ करती थीं। यदि एक ही दंतकथा अलग-अलग जगहों में प्रचलित था भी तो उसके स्वरूप और रंग-ढंग में किंचित या काफी परिवर्तन दृष्टिगत होते थे। अक्सर दादा-दादी, माँ-बाप या पारिवारिक सदस्य बच्चों को शिक्षा देने के लिए दंतकथाओं का सहारा लिया करते थे। कई दंतकथाएँ कई सदियों तक विभिन्न रंग रूप में समाज में कायम रहे। फिर कुछ लोगों ने उन दंत कथाओं को दूर-दूर के लोगों को विभिन्न अवसर सुनाया। कुछ लोग स्वभाव या पेशे से Story Teller या कथावाचक होते हैं। ऐसे लोगों को अलग- अलग कहानियों की बहुत जरूरत होती है, जो दर्शकों या श्रोताओं के कानों को बाँध कर रख सके।
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तो ऐसे लोग उन कहानियों को अपने दिल के कोने में बसा लिए और जहाँ जहाँ जाते कुछ जोड़ घटा कर आवश्यकतानुसार कहानियाँ सुना देते। फिर ऐसी ही प्रक्रिया में कुछ लिखाड़ु लोग ऐसी कहानियों को सुन कर फिर अपनी कल्पना शक्ति को उसमें जोड़कर किताबें लिख डाले। उन्हें अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए उसमें धर्म की चौंछनी डाले। चूँकि ऐसी किताबें में तथाकथित तत्कालिक विज्ञान और मनोविज्ञान की बातें भी जोड़ दी गई थी, इसलिए वे लोगों के दिमाग और सोच को अपील करने लगी थी। प्राकृतिक शक्तियों को कुछ नये ढंग से पारिभाषित करने की कोशिशें भी उनमें जुड़ी हुई थी तो वह लोगों के निगाहों में चढ़ गई, क्योंकि मध्ययुगीन समाजों में क्रिकिटल सोच की बेहद कमी थी और उत्सुकता की बाढ़ हमेशा फैली हुई होती थीं।
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फिर ऐसी कथाएँ किसी राजा, जमींदार जैसे प्रभावी और वर्चस्ववादी या बड़े भौगोलिक हिस्सों में प्रभाव रखने वाले टेरिरिस्ट जैसे खतरनाक लोगों के दिमाग में चढ़ गईं तो वे इनके मुराद बनकर उसे दूसरों पर भी थोपते गए। समाज में बच्चे को अपने बाप-दादा या समाज से जो चीजें मिलती है, उसे वह अपने खानदान और समाज की सम्पत्ति और परंपरा समझ बैठता है। कई पीढ़ियों के बाद ऐसे चीजें उस समाज में आरूढ हो जाता है, क्योंकि उसके विपरीत परंपरा और सोच उनके सामने गैरहाजिर होते हैं। विशेष मूर्ति की पूजा करना, विशेष ढंग से प्रार्थना करना, विशेष ढंग से निपटाए जाने वाले धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक क्रियाएं या परंपराएँ, विशेष विधि से खानपान करना, सामाजिक समारोह आयोजित करना, सामूहिक व्यवहार और सोच की पालन करना, ऐसी परंपरा और व्यवहार को पूरा करके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक संतुष्टि प्राप्त करना आदि कई ऐसे सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक लाभ होते हैं, जो व्यक्ति और समाज को ऐसी घटनाओं की ओर हमेशा खींचती है। आम व्यक्ति क्रिकिटल मानसिकता से रहित होने के कारण वह उन्हीं बातों के सहारे जिंदगी बिताते हैं और उन्हें ही जीवन सार भी समझ लेते हैं।
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धर्म भी इसी तरह की चीजें हैं। जैसे सामाजिक आदत और परंपरा नहीं छूटती है, वैसे ही धर्म की आदत और सोच भी नहीं छूटती है।

क्रिकिटल सोच के रास्ते में समाज और सरकार पहरेदारी बनाए रखती है। समाज और सरकार को क्रिकिटल सोच से लैस व्यक्ति को संभालने में खासे मुश्किलें होती हैं। वे न तो समाज के ठेकेदारों के चंगुल में फंसते हैं और न वे सरकार की नीतियों को सिर झूका कर स्वीकार करते हैं। वे बंद दिमाग के वोटर भी नहीं होते हैं। अपनी क्रिटिकल सोच और चिंतन से ऐसे लोग समाज और सरकार के सामने लगातार प्रश्नवाचक चिह्न लगे सवाल पेश करते रहते हैं। सरकार और समाज विश्वविद्यालय स्तर पर तो क्रिटिकल सोच के अध्ययन को मंजूरी देती है, लेकिन स्कूल के स्तर पर नहीं। स्कूल के स्तर पर तो बच्चो को अंध समाज और अंध धर्म की शिक्षा से रिहाई नहीं मिलती है। बल्कि उनकी अंधविश्वास को बढ़ाने के लिए इतिहास, परंपरा, पूरखों के नाम पर खास तौर से किताबें तैयार करके रटायी जाती है।
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फिलहाल अंध धर्म कुछ लोगों के लिए माल कमाने का अच्छा खासा बिजनेस बन गया है। जाहिर है कि ऐसे लोग लोगों को अधिक धर्म पारायण बनाने के फेरे में नई नई धार्मिक बातों का इजाद होते रहती हैं और दिमाग बंद रखने वालों पर खुलकर उनका प्रयोग करते हैं।
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धर्म सत्ता प्राप्ति करने, धन कमाने, किसी खास केन्द्र के प्रभाव और वर्चस्व को बढ़ाने-फैलाने में बड़े काम का सिद्ध होता है। भारत में तो धर्म के नाम पर धार्मिक वोटो की बारिश होती है। वोटों के धार्मिक खेल को अधिक जमाने के लिए तमाम टीवी चैनल और फिल्में भी अपनी महान भूमिका निभा रहे है और क्रिटिकल सोच के संभावित उभार और चिंतनधारा को कुंद करने में लगी हुई है। पूरी दुनिया में धर्म का कारोबार बहुत तेजी से फैल रही है। बेवकूफ लोगों को धर्म के मर्म के बारे कुछ पता नहीं रहता है, लेकिन वे बाजार में प्रचलित धर्म को ही असली धर्म समझकर चालाक लोगों के हाथों की डोर से बंधे धर्म के नाम पर हिलते डोलते रहते हैं। ऐसे लोग न सिर्फ भोले होते हैं, बल्कि धर्म और समाज के नाम पर उत्तेजित होकर ये हिंसक जानवर की तरह व्यवहार भी कर डालते हैं। धर्म के नाम पर शोषण, भेदभाव, अन्याय, पक्षपात आदि का फिलहाल कोई अंत होते नहीं दिखता है। लेकिन यदि बच्चों को बचपन से ही क्रिकिटल सोच से परिचित कराया जाए तो ऐसी स्थिति में सही निर्णय लेने में सक्षम हो सकते हैं।