क्यूं न हो पलायन कृषि है उपेक्षित

झारखण्ड में पलायन एक बड़ी समस्या बनी हुई है। कई सरकारी-गैरसरकारी संगठन पलायन रोकने व पलायित युवतियों के पुनर्वास पर काम भी कर रहे हैं, लेकिन राज्य के करीब 70 प्रतिशत मजदूरों को रोजगार मुहैया करानेवाली कृषि की उपेक्षा के कारण पलायन रुक नहीं रहा। खनिज बहुल और औद्योगिक राज्य के रूप में पहचाने जाने के कारण सूबे में कृषि शुरू से उपेक्षित रही। संयुक्त बिहार के समय तो झारखंड की भूमि को कृषि उत्पादन के सर्वथा अनुपयुक्त माना जाता रहा। नए राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद कृषि और बागवानी पर घोषनाएं तो खूब हुईं, लेकिन नीति और मानसिकता में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। परिणाम यह निकला कि राज्य गठन के समय 2001-02 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान जहां 21 प्रतिशत था, 2004-05 में घट कर 19.5 प्रतिशत हो गया। उद्योग और खनिज के विकास पर विभिन्न कारणों से लगभग विराम की सी स्थिति है। ऐसे में राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले 53 प्रतिशत गरीब भला क्या करें। एक अनुमान के अनुसार राज्य के करीब एक करोड़ कामगारों में 70 प्रतिशत कृषि कामगार हैं। इनमें किसान 58 प्रतिशत (करीब 41 लाख) व कृषि मजदूर 42 प्रतिशत (करीब 29 लाख) हैं। राज्य में महज एक प्रतिशत किसानों के पास दस हेक्टेयर से ज्यादा भूमि है, जबकि 18.5 प्रतिशत के पास दो से दस हेक्टेयर तथा 80 प्रतिशत के पास दो हेक्टेयर से कम। इस तरह कृषि मजदूरों के साथ ही सीमांत किसानों का एक बड़ा भाग कृषि कार्य के बाद बेरोजगार हो जाता है। लाख प्रयास के बाद राज्य में सिंचाई की सुविधा मात्र 7.5 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर है, जबकि राष्ट्रीय औसत 42 प्रतिशत है। सूबे के कुल राजस्व का लगभग छह प्रतिशत व्यय सिंचाई पर बताया जाता है। (जो कि अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा है)सूबे में प्रति हेक्टेयर उत्पादन मात्र 1073 किलो है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1715 किलो का है। इस उत्पादन गैप को कम कर किसानों की आय बढ़ाने का कभी कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। वहीं, सिंचाई की सुविधा नहीं होने के कारण सूबे में दो फसलें लेने की बात महज कल्पना ही है। राज्य में कृषि योग्य कुल भूमि करीब 38 लाख हेक्टेयर है, लेकिन कृषि मात्र 22.7 लाख हेक्टेयर में हो रही है। इस 15 लाख हेक्टेयर भूमि के लिए योजनाएं अभी तक जमीन पर नहीं उतर सकी हैं। वहीं, दो फसलें राज्य के मात्र 2.6 लाख हेक्टेयर भूमि पर हो रही हैं। 92 प्रतिशत फसलें मानसून के भरोसे हैं। अगर उपरोक्त 15 लाख हेक्टेयर पर कृषि और शेष 20 लाख हेक्टेयर पर दोहरी फसलों की व्यवस्था पर जोर दिया जाए तो बड़े पैमाने पर रोजगार दिवसों का सृजन होगा, जो जीडीपी में कृषि अनुपात बढ़ाने के साथ ही पलायन रोकने में भी कारगर सिद्ध होगा। आभार-दैनिक जागरण

क्यूं न हो पलायन कृषि है उपेक्षित” पर एक विचार

  1. आपके ब्लॉग पर आकर एक विशेष प्रकार का सकुन मिलता है। लगता है कि अच्छी सोच रखने वाले और गम्भीर चिन्तन करने वाले अब भी हैं। आपके लेखों का शीर्षक हपढ़कर लगता है कि आप समाज से कितनी मजबूती से जुड़े हुए हैं।

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