जनचर्चा हो गोर्खा–आदिवासी प्रदेश पर

गोर्खा–आदिवासी प्रदेश की मांग को आदिवासी विकास परिषद द्वारा सिरे से नकार देना एक हैरान कर देने वाला कदम है। यह तो स्‍पष्‍ट हो चुका है कि आदिवासी  समाज के जटिल समस्‍याओं पर भी विकास परिषद के नेतागण अपनी व्‍यक्तिगत पसंद नापसंद के अनुसार व्‍यक्तिगत स्‍तर पर अथवा दो–चार चंद लोगों द्वारा एकतरफा निर्णय लेते हैं और समाज पर उन निर्णयों को सीधे थोप देते हैं। क्‍या इन नेताओं को कोई विशेषाधिकार प्राप्‍त हैं कि वे परिषद के सभी स्‍तर और बृहत समाज में बिना विचार विमर्श किए प्रेस में अपना बयान जारी करे ?  समाज को अधिकार है कि वह पुछे कि आदिवासी समस्‍याओं पर इन नेताओं की व्‍यापक समझ क्‍या है ? क्‍या इन्‍होंने समाज के व्‍यापक हित में किसी निर्णय को लेने के पूर्व उन समस्‍याओं और उनके निदानों पर कोई अध्‍ययन किया है और यदि किया है तो क्‍या उन्‍होंने कोई रिपोर्ट तैयार की है ? क्‍या वे उन रिपोर्टों को जनता की राय जानने के लिए जनता के बीच परिचरित किए हैं और जनता से कोई लिखित राय प्राप्‍त किए हैं ?

 

पहले भी चंद नेताओं ने जनता के बीच व्‍यापक विचार विमर्श किए बिना ही, बगैर सोचे समझे,, सिर्फ अपनी व्यक्तिगत पसंद–नापसंद और विचारों के अनुसार डुवार्स और तराई के लिए छटवीं अनुसूची की मांग की। इस मांग पर सम्‍पूर्ण आदिवासी समाज को विगत डेढ वर्ष में इधर उधर भरपूर दौडाया और उनकी जिन्‍दगी में चिरप्रतीक्षित समस्‍याओं का एक सीधा सादा अचुक हल प्राप्‍त करवाने का एक भ्रम पैदा किया।

 

डुवार्स और तराई में आज आदिवासी समाज जिस स्‍तर के शोषण, अन्‍याय, पक्षपात, ठगी से जुझ रहा है, वह अभूतपूर्व है। आदिवासी समाज दूसरे समाज और सरकारी गलत नीतियों के कारण जबरन पिछडे बनाए जा रहे हैं।  उसे क्‍या छटवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुसार सुलझाया जा सकता है ? ऐसा लगता है आदिवासी समाज का नेतृत्‍व ऐसे लोग कर रहे हैं जिन्‍हें न तो छटवीं अनुसूची की, न ही संविधान की जानकारी है, न ही प्रशासनिक संरचना की। ऐसा लगता है, अनपढ और कम पढे लिखे लोग नेतृत्‍व प्रदान करने के नाम पर आदिवासी समाज को एक अंधेरे से निकालने के नाम पर दूसरे अंतहीन अंधेरे में ढकेल रहे हैं।

 

छटवीं अनुसूची का राग अलापने वाले क्‍या छटवीं अनुसूची के प्रावधानों को कभी ध्‍यान से पढे हैं अथवा दूसरों के कहने पर ऐसा राग अलाप रहे हैं। आखिर इन लोगों के सलाहकार कौन हैं ?  वे आदिवासी तो लगते नहीं हैं। कम से कम आदिवासी कल्‍याण और सुखद भविष्‍य के लिए तो ये लोग काम नहीं कर रहे हैं ?  आदिवासियों की किन समस्‍याओं को छटवीं अनुसूची के प्रावधानों के अन्‍तर्गत सुझलाया जा सकता है, इन्‍हें यह स्‍पष्‍ट करना चाहिए।

 

डुवार्स और तराई के आदिवासियों की समस्‍याओं को सूचीबद्ध करते हुए विकास परिषद ने अगस्‍त–सितंबर 2008 में एक तेरह सूत्री मांग पत्र जारी किया था। आज विकास परिषद का 13 सूत्री कार्यक्रम अथवा मांग पत्र सिकुडकर सिर्फ चार सूत्री रह गया है। सवाल उठना लाजमी है कि क्‍या आदिवासियों की बाकी समस्‍याऍं हल हो गई हैं ? या विकास परिषद सुविधानुसार समस्‍याओं की सूची बनाता है और सुविधानुसार जनता की नजरों से छुपा कर आधे को फेंक देता है।

 

आखिर 13 में से 9 समस्‍याओं से पीछा छुडाने का रहस्‍य क्‍या है ? आज आदिवासी विकास परिषद सिर्फ चार सूत्री मांग पर अपना बयान जारी करता है। वह है छटवीं अनुसूची, छह लेन का रोड, तिस्‍ता पर नया पुल और गोर्खालैंण्‍ड का अंध‍विरोध। हिन्‍दी कालेज और हिन्‍दी भाषा की मांग पर तमाम बयान जारी किया जाता है और रास्‍ते रोके जाते हैं लेकिन भाषा को लागू करने के लिए संविधान में दिए गए बाकी दूसरे प्रावधानों पर विकास परिषद कभी रास्‍ते नहीं तलाशता है।  विश्‍वविद्यालय स्‍तर में शिक्षा और परीक्षा का माध्‍यम को छटवीं अनुसूची के द्वारा कैसे हल किया जा सकता है ? इस पर आदिवासी विकास परिषद कभी प्रकाश नहीं डालता है। छटवीं अनुसूची में सिर्फ प्राथमिक विद्यालयों की स्‍थापना, संचालन और प्रबंधन का प्रावधान किया गया है। इसमें उच्‍च और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है। इसमें दिए गए किसी भी प्रावधान के अलावा किसी अन्‍य कार्यों के लिए राज्‍यपाल की पूर्व अनुमति की आवश्‍यकता होती है। राज्‍यपाल राज्‍य सरकार के सलाह के बगैर कोई भी अनुमति छटवीं अनुसूची के प्रशासन को नहीं देता है।  विश्‍वविद्यालय और तकनीकी कालेजों के अधि‍कार तो सिर्फ राज्‍य सरकार और केन्‍द्र सरकार के खाते में ही सीमित है। छटवीं अनुसूची जैसी व्‍यवस्‍था आदिवासी शिक्षा समस्‍या को सुलझाने में किसी भी तरह समर्थ नहीं है।  आदिवासी जमीन को हस्‍तांतरित होने से बचाने और पहले ही गैर आदिवासियों के द्वार हडपी गई जमीन को वापस करने जैसे कठिन कार्यो को सम्‍पन्‍न कराने में छटवीं अनुसूची की क्‍या कोई भूमिका होगी या नहीं इस विषय पर भी परिषद कुछ नहीं कहता है। उन्‍हें स्‍पष्‍ट करना चाहिए कि क्‍या विराट संख्‍यक आदिवासी बेरोजगारों को रोजगार देने में छटवीं अनुसूची सक्षम है ?  क्‍या छटवीं अनुसूची के अन्‍तर्गत कोई बडे उद्योग लगाए जा सकते हैं ? कोई विश्‍वविद्यालय, इंजीनियरिंग मेडिकल कॉलेज आदि स्‍थापित किए जा सकते हैं ?, तमाम सवाल है, अनेक मामले हैं जिन्‍हें छटवीं अनुसूची हल नहीं कर सकता है। प्रथम तो छटवीं अनुसूची का प्रावधान संविधान में सिर्फ उत्‍तर पूर्व के राज्‍यों के लिए किए गए हैं। असम के बाहर के विशेष क्षेत्रों के लिए पॉंचवीं अनुसूची बनाई गई है। यदि कहीं विशेष क्षेत्र की मांग करनी होगी तो वह पॉचवीं अनुसूची के लिए होनी चाहिए न कि छटवीं अनुसूची के लिए। छटवीं अनुसूची को असम के बाहर कहीं भी लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करने की आवश्‍यकता होगी। विकास परिषद के निर्णय लेने की शक्ति, बौद्धिकता इसकी कार्यप्रणाली आदि को देख कर ऐसा नहीं लगता है कि वह संसद में संविधान संशोधन पास करवाने में सफल होगा। जब संसद में संविधान संशोधन होगा ही नहीं तो डुवास तराई में छटवीं अनुसूची लागू करने का सवाल भी पैदा नहीं होगा।    

 

ऐसा लगता है आदिवासी विकास परिषद का नेतृत्‍व बिना होमवर्क किए ही किसी भी विषय पर अपना बयान दाग देता है। क्‍या अर्द्धसूचित, अर्द्धशिक्षित तथा राजनीति, कुटनीति और कानूनी पहलुओं तथा प्रशासनिक ढॉंचों के कार्यप्रणाली और संविधान से अन्‍जान नेतृत्‍व आदिवासी समस्‍याओं को हल करने में सक्षम है ? यह एक गंभीर सवाल बन कर आदिवासी समाज के सामने खडा है। सशक्‍त और सक्षम नेतृत्‍व के बिना समाज में कोई क्रांति नहीं आने वाली है। आज से पहले भी आदिवासी समाज का नेतृत्‍व एक ऐसा वर्ग करता रहा है जो सिर्फ बागान में नेतागिरी करता था और मजदूरों से चंदे उघा कर गैर आदिवासी नेताओं को सौंपता था। वर्तमान समय में भी लगता है आदिवासी समाज  शिक्षित आदिवासी वर्ग के नेतृत्‍व से महरूम हैं। आदिवासी समस्‍याऍं अपनी जटिलतम अवस्‍था को प्रात कर चुकी हैं। इन समस्‍याओं को अधिक जटिल बनाने में पशिचम बंगाल सरकार की नीतियॉं जिम्‍मेदार रहीं हैं। सरकार की कोई सहानुभूतिपूर्ण आदिवासी नीतियॉं नहीं है। कभी आधे से भी अधिक खेती की भूमि आदिवासियों की मिल्कियत में थी। आज नाम मात्र की भूमि आदिवासियों के पास रह गई है। आखिर गैर हस्‍तांतरयोग्‍य कृषि भूमि कैसे गैर आदिवासियों के हाथों में चली गई ? कैसे इन जमीनों के खतियन गैर–आदिवासियों के नाम पर बन गई ? इन जमीनों के लेनदेन को सफल बनाने के लिए सरकार की क्‍या भूमिका रही अथवा असफल बनाने के लिए क्‍या भूमिका निभाई गई, इसका लेखाजोखा कौन तैयार करेगा ? कम शब्‍दों में कहा जाए तो आदिवासियों को भूमिहीन बनाने में सीधे बंगाल की सरकारी नीतियॉं जिम्‍मेदार रहीं हैं। क्‍या राज्‍य स्‍तर की किसी नीतिगत फैसलों अथवा नीतियों को छटवीं अनुसूची के प्रावधानों के अन्‍तर्गत पलटा जा सकता है ?  चाय बागानों के औद्योगिक बस्तियों में छटवीं अनुसूची के माध्‍यम से कौन सी समस्‍याओं को हल किया जाएगा ? छटवीं अनुसूची जैसी कमतर व्‍यवस्‍था को मांग कर आदिवासी समाज को पंगु और क्षमताहीन बनाने की कोशिश की जा रही है। यदि आदिवासियों को एक राज्‍य मिल सकता है तो परिषद क्‍यों छटवीं अनुसूची के पीछे हाथ धो कर पडा हुआ है ?  

 

धीरे–धीरे आदिवासियों के हाथों से खेती की जमीनें छिनती जा रही है। गरीब बेरोजगार आदिवासी बडे शहरों की ओर पलायन करते जा रहे हैं। चाय बागानों में नई मजदूरी की कोई संभावना नहीं है। बागान बंद होने की स्थिति में सिर्फ एक सप्‍ताह में लोगों के चुल्‍हें जलना बंद हो जाता है। आदिवासियों को अनपढ, अर्द्धशिक्षित और बेरोजगार बनाए रखने में बंगाल सरकार हर तरह के हथकंडे अपनाती रही है। उन्‍हें स्‍वरोजगार बनाने के लिए केन्‍द्रीय सरकार द्वारा प्रदत्‍त विकास राशि और राशन तक से आदिवासियों को वंचित करने के लिए सरकारी स्‍तर पर प्रयास किए जाते हैं। नब्‍बे प्रतिशत आदिवासी शारीरिक और मानसिक रूप से अस्‍वस्‍थ हैं लेकिन उनके लिए तमाम तरह के सुविधाऍं उपलब्‍ध होने पर भी उन्‍हें कार्यन्वित नहीं किया जाता है। आज तक पश्चिम बंगाल सरकार आदिवासियों को स्‍वरोजगार बनाने के लिए कोई  ऋण दिया न ही कोई स्‍कूल और प्रशिक्षण संस्‍थान खोला। आदिवासी क्षेत्रों में पर्याप्‍त शिक्षा संस्‍थान भी नहीं स्‍था‍पित किया। कुल मिला कर आदिवासी समाज को बंगाल में इन्‍सानी समुदाय के रूप में गिना ही नहीं जाता है। खुद आदिवासी समाज में ही एक वर्ग आज शोषक की भूमिका में कार्यरत है और आदिवासियों का निर्बाध शोषण किए जा रहे हैं। एक ओर समाज अपनी ही कमजोरियों यथा नशाखारी और गरीबी के बीच पीस रहा है, दूसरी ओर सरकारी नीतियॉं खुली रूप में आदिवासियों को पिछडा बनाने में लगी हुई है। विकास परिषद के द्वार पिछले डेढ वर्ष में आंदोलनरत होने पर भी सरकार प्राथमिक स्‍कूलों के लिए निकाली गई योग्‍यता पात्रता में आदिवासी उम्‍मीदवारों के लिए उच्‍च अंक निर्धारित करने का साहस करता है। जबकि केन्‍द्र सरकार का स्‍पष्‍ट निर्देश है कि आदिवासियों के लिए रोजगार सुनिश्चित करने के लिए उन्‍हें यथासंभव अंकों में छूट दी जाए। प्राथमिक शिक्षकों के लिए निकाले गए विज्ञापन के अनुसार शिक्षकों की नियुक्ति लिखित परीक्षा में उतीर्ण करने वाले उम्‍मीदवारों की होगी, न कि मैट्रिक में प्राप्‍त अंकों के आधार पर। इसके बावजूद आदिवासी उम्‍मीदवारों को अधिक संख्‍या मे बंचित करने, उन्‍हें परीक्षा में बैठने से रोकने के लिए उच्‍च अंकों को लेकर चाल खेली। सरकार ने सामान्‍य उम्‍मीदवारों के लिए तो परीक्षा में आवेदन करने के लिए 60 प्रतिशत निम्‍नतम अंक निर्धारित की लेकिन आदिवासियों के लिए 62 प्रतिशत । पश्चिम बंगाल सरकार की कुटिल चाल को समझने के लिए यह एक ही षडयंत्र काफी है। ऐसी चाल बताती है कि सरकारी स्‍तर पर आदिवासियों के विकास के विरूद्ध कैसे कैसे षडयंत्र रची जाती है। बंगाल में भाषाई और सांस्‍कृतिक अल्‍पसंख्‍यकों को हमेशा निरूत्‍साहित किया गया है और आगे भी बंगाल सरकार का रवैया बदलने वाला नहीं है। अर्थात नीतिगत रूप से बंगाल सरकार आदिवासी विरोधी है। लेकिन आदिवासी विकास परिषद बंगाल सरकार की नीतिगत विभेद, भेदभाव, अन्‍याय और चालाकी को समझने में असफल दिखता है। ऐसा इसलिए क्‍योंकि विकास परिषद् जनता की आशाओं आकांक्षों को मूर्त रूप देने के लिए आज तक कोई विचार मंथन नहीं किया है। विकास परिषद पश्चिम बंगाल में रह कर ही विकास कर लेने की भ्रम के जाल में फंसा हुआ है। परिषद के पदाधिकारी कहते हैं कि यदि सरकार उनकी मांगे नहीं मानी तो वह हिंसा का सहारा लेंगे। यह एक बचकानी रणनीति का हिस्‍सा ही है। इस तरह की रणनीति से समाज को गंभीर हानि होने की आशंका है। सुभाष धिसिंग ने ऐसी ही गलती करके हजारों गोर्खाओं की बली ले ली थी।   

 

छटवी अनुसूची अथवा पांचवी अनुसूची की तमाम मांग करने के बावजूद पशिचम सरकार टस से मस नही होने वाली। बंगाल सरकार में नीति निर्धारण करने वाले मुख्‍य सचिव पहले ही स्‍पष्‍ट कर चुके है कि सरकार आदिवासियों की मांग पर कोई विचार नहीं कर रही है। विकास परिषद पहले ही कह चुका है कि वह बंगाल से अलग कोई स्‍वशासन नहीं चाहता है। ऐसे में सरकार के पास कोई दबाव नहीं है। उसे तो बिन मांगे, बिन दाम चुकाए एक ऐसे दल अथवा ग्रुप का समर्थन मिल गया है जो सरकार की ओर से गोर्खालैण्‍ड की मांग करने वालों से दो–दो हाथ कर सके। अब सरकार को अलग गोर्खालैंण्‍ड मांगने वालों से लडाई के लिए पारामिलिटरी की भी आवश्‍यकता नहीं है, क्‍योंकि लडाने के लिए आदिवासी समाज है जिसका नेतृत्‍व एक ऐसा वर्ग कर रहा है, जिन्‍हें राजनैतिक मोलतोल अथवा लेनदेन करने का कोई अनुभव नहीं है और रणनीति बनाने में भी चतुरता नहीं दिखा पाता है। कुल मिल कर यही कहा जा सकता है आदिवासी विकास परिषद अपनी बारगेन पावर को सरकार के हाथों गिरवी रख चुका है, और अपने अविवेकपूर्ण बयानों से मौके को गवॉं चुका है।  ऐसे में यदि वह कहता है कि वह गोर्खा–आदिवासी प्रदेश की मांग को खारिज करता है तो लगता है वह न तो किसी रणनीति में विश्‍वास करती है न ही उसे आदिवासी समाज के कल्‍याण और भविष्‍य की चिंता है।

 

भारत में एक राज्‍य संविधान के अन्‍तर्गत केन्‍द्र सरकार से सिर्फ कुछ ही मामलों में कमतर और कम शक्तिशाली होता है। अनेक मामलों में उसे केन्‍द्र सरकार से भी अधिक क्षमता प्राप्‍त है। उन्‍हीं क्षमताओं को कार्यान्वित करते हुए राज्‍य अपने नागरिकों के कल्‍याण के लिए कल्‍याणकारी परियोजनाओं को पूरा करती है और अपने राज्‍य में सर्वोच्‍च शक्तियों को लगाते हुए किसी भी समाज अथवा क्षेत्र को पिछडापन से मुक्‍त कराती है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गोवा केरल, म‍णिपुर आदि ऐसे दर्जनों उदाहरण है जो संविधान में दिए गए अपनी विशेष सर्वोच्‍च शक्तियों का उपयोग करते हुए लोगों की जिन्‍दगी का कायापलट करके दिखा चुकीं हैं। राज्‍य को जो शक्तियॉं प्राप्‍त होती हैं वह किसी भी छटवी अथवा पांचवी अनुसूची में प्राप्‍त नहीं होती है। अत्‍यत निम्‍म प्रकार के अधिकारों को, किसी क्षेत्र विशेष के स्‍थानीय प्रशासनिक मामलों की व्‍यवस्‍था संभालने के लिए छटवी अनुसूची को दिया गया है। आदिवासियों की समस्‍याऍं इतनी जटिल है कि उन्‍हें सिर्फ राज्‍य स्‍तर के नीतियों में बदलाव लाकर और परियोजनाऍं चला कर ही किसी हद तक सुलझाया जा सकता है। न कि स्‍थानीय प्रशासन के लिए बनाई गई किसी कमजोर स्‍थानीय प्रावधानों से। आज आदिवासियों को राजनीति में नीतिगत स्‍तर को प्राप्‍त करने की कोशिश करनी चाहिए न कि निम्‍नस्‍तर की व्‍यवस्‍था को। निम्‍नस्‍तर की क्षमताओं से आदिवासियों की हालात में बदलाव तो नहीं आएगा हॉं हालात और भी खराब होंगी यह तय है।   

 

आज गोर्खा–आदिवासी प्रदेश की बात की जा रही है। यह आदिवासियों के हित में है या नहीं है इसका फैसला आदिवासी विकास परिषद किसी प्राइवेट लिमिटेड पार्टी अथवा किसी निरंकुश सत्‍ताशीन हुकुमत की तरह नहीं कर सकता है। विकास परिषद लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई कोई पार्टी अथवा सत्‍ता नहीं है। यह सिर्फ एक एनजीओ है, जिसे विकल्‍पहीनता की परिस्थिति में लोगों का भरपूर समर्थन मिला और लोगों ने इसे अन्‍यायीपूर्ण व्‍यवस्‍था से छूटकारा पाने का एक जरिया समझा। शोषण और अन्‍याय की चक्‍की में पिसती हुई एक विराट जनसंख्‍या और समाज के एकछत्र नेता नहीं है विकास परिषद । एक लोकतांत्रिक देश में सभी को हक है कि वह अपना भविष्‍य और अधिकारों पर स्‍वयं निर्णय ले। लोगों के हक, अधिकार और निर्णय लेने की शक्तियों और स्‍वभाव को विकास परिषद हरण नहीं कर सकता है। एक लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक अधिकारों की लडाई लोकतांत्रिक पद्धति से ही हो सकती है। हर बडे निर्णय लेने के लिए व्‍यापक बहस, चर्चा और पर्याप्‍त समय की जरूरत होती है। अलोकतांत्रिक ढंग से काम करने वाली शक्तियों, दलों को कानूनी रूप से मान्‍यता प्राप्‍त नहीं है। समाज भी ऐसी किसी परंपरा को मान्‍यता नहीं देती है।

 

आज गोर्खा–आदिवासी प्रदेश के गुण–अवगुण को देखने सुनने और वाचने की जरूरत है। डेढ सौ साल से आदिवासी और गोर्खा दुख और सुख में एक साथ रहते आए हैं। दोनों ही मजदूर वर्ग बन कर जीवन जीया है। दोनों ही ढगी, चालाकी, अन्‍याय, शोषण और पक्षपात के शिकार रहे हैं। डुवार्स और तराई में आदिवासी और गोर्खा की समस्‍या एक जैसी है। यदि कहीं विभिन्‍नता भी रही है तो वह नजरांदाज करने जैसी भिन्‍नता है। यहॉं मुख्‍य सवाल है अस्तित्‍व की रक्षा और स्‍वभाव‍भिमान की। शोषण और अन्‍याय के सरकारी चक्र से बचने का। यदि गोर्खा–आदिवासी प्रदेश आदिवासियों के हित में नहीं है तो क्‍यों नहीं है इस पर जोरदार सार्वजनिक बहस किया जाए।  क्‍या वर्तमान व्‍यवस्‍था आदिवासियों के हित में है ? छटवी अनुसूची और एक राज्‍य में क्‍या अंतर है ? यदि नया राज्‍य आदिवासियों के हित में नहीं है तो छटवी अनुसूची कैसे आदिवासियों के हित में होगी ? क्‍या एक नया राज्‍य के अन्‍तर्गत आदिवासियों के लिए छटवीं अथवा पांचवी अनुसूची नहीं बनाया जा सकता है ? एक नये राज्‍य में यदि आदिवासी बहुसंख्‍यक होंगे तो गोर्खा अथवा बंगाली अथवा कोई गैर आदिवासी समुदाय कैसे आदिवासियों का शोषण करेंगे ? नये राज्‍य में आदिवासी बहुसंख्‍यक होंगे तो आदिवासी समुदाय ही राज्‍य की नीति निर्धारण करेगे तो क्‍या तब भी आदिवासी शोषण के शिकार होंगे ? ऐसे तमाम सवाल है जिन्‍हें एक झटके में हल नहीं किया जा सकता है। आज जरूरत है कि आदिवासी समाज में पढे–लिखे लोग निर्भय, निष्‍पक्ष होकर पूर्वग्रह से मुक्‍त होकर समाज के पक्ष में सोंचे, विचार करें बहस करे और तब स्‍वयं कोई निर्णय लें। अपनी व्‍यक्तिगत पसंद, नापसंद और विचारों से प्रभावित होकर कार्य करने वाले किसी एनजीओ अथवा चंद अर्द्धकौशल अर्द्धशिक्षित और अनुभवहीन लोगों को लाखों लोगों की जिन्‍दगी का फैसला लेने के लिए अधिकृत नहीं किया जा सकता है।

जनचर्चा हो गोर्खा–आदिवासी प्रदेश पर” पर एक विचार

  1. My friends and I read your postings, the one posted here and the other “Dooars Naya Rajya” (henceforth DNR), and we would like to congratulate you on the research, relative fairness of reporting, the insight and overview of the subjects dealt as well as the objective conclusions. Needless to say, we would like to hear much more from you.
    In DNR you mention that the problems faced by the Adibashis and the Gorkhas are more or less the same (may we add: both the communities settled in the Dooars about 1-2 centuries ago, both were and are substantially employed in the tea gardens, forests, road building etc, both were exploited by the British masters and subsequently by the masters from Kolkata, the languages of both these communities are and were different from the ruling clases and even the Hinduism professed by the two communities differ in many ways from that practiced in the vast Bengal expanse.) Despite the convergence of the past history and the similarity of the aspirations, we have not been able to stand united, and often are at loggerheads with each other. We do agree that the Adibashis look more exploited than the Gorkhas and part of that is because of the heavy enrollment of the Gorkhas in the Army, a facility which the Adibasis could have exploited or are not given equal breadth in enrollment, which assures many Gorkhas of a marginally better oppertunity in living conditions and future pospects. BUT the basic problems, otherwise, remain the same and a solution must be sought.
    Initially when the Gorkha Jana Mukti Morcha was launched the Dooars area demarkated for Gorkhaland had all the lands that the Adibasi Vikas Parishad had claimed for, be it in the 6th Schedule or othewise. Within this so earmarked area there is little doubt that the Adibasis constituted a clear majority and interestingly the Gorkhas stood a minority EVEN WHEN THE THREE HILL SUB-DIVISIONS WERE INCLUDED. Whatever the proposed state’s name, theoritically the Adibasis were provided with the olive (?golden) branch join hands and even to dominate in the elections. This notion was not made public lest the Gorkhas themselves revolted against the GJMM. However, i was believed that the AVP would see the ground reality of the propopsal and grasp the opportunity. Unfortunately, it missed the reality behind the loosely disguised gift and instead opposed tooth and nail the formation of a new state and especially so with a nomenclature that did not suit it. It would have been totally fatal for the GJMM to publically announce that in its achievement it could lose out governance to some other community and the only hope was that an alliance would set that right. But now that is water under the bridge.
    The new strategy thus came into operation: to incorporate the areas where the Gorkha community is the single largest community and so a new map was drawn which roughly follows the areas north of the National Highway and there seems to be very little cause left to return to the old map. The State and the Centre was informed and the mouzas clearly defined. The State and the Centre is now agreeable to a verification of the population and let be noted that the Centre has already conducted a rough survey. Despite the redrawing of the map the Adibasi population is still substantial and this gives them, I wish I could say a strong but, some say in the matter. If the AVP has its feet placed firmly on terra firma it should negotiate with the GJMM at this juncture. Your Blog’s heading itself has Gorkha-Adibashi Pradesh and Bimal Gurung has mentioned several times the nomenclature can be changed. Consequently, along with the nomenclature change the AVP could bargain for Cabinet Ministerial berths (Tribal Minister, Minister for the Dooars Affairs, a few State Ministers etc) including guarenteed welfare schemes like ‘X’ numger of Hindi schools and college, reservations in employment, regularization of land rights etc etc and etc. You as well as us know these things will not come from the WB government. Today’s world is a world of give and take and stubborness will not pay. Both the communities have suffered enough under successive governments and it is time to fight the common foe. We doubt such an oppertunity will ever come the AVP’s way and should this golden potential be given the slip it is not difficult to figure out who will be the greater loser. It is time to embrace reality and unite. It is now or never.

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