नेह अर्जुन इंदवार
22 जुलाई 2012 तक भारत के नये राष्ट्रपित का चुनाव सम्पन्न होना है। अभी सत्ता प्रतिष्ठान और राजनैतिक केन्द्रों में भारत के तेरहवें राष्ट्रपति के चुनाव की गहमा-गहमी, दॉव-पेंच का खेल चल रहा है। सत्ताधारी यूपीए और लोकसभा में विपक्ष की कुर्सी संभाले एनडीए अपनी तुरूप के पत्तों को धीरे-धीरे खोल रहे हैं और विपक्षी के पत्तों पर पानी उॅढेल रहे हैं। लेकिन राजनैतिक गठबंधन के युग में क्षेत्रीय दलों का दबाव काफी प्रभावी साबित हो रहा है क्योंकि राज्यों के सत्ता में काबिज दल भी अपने वोट के बल तोलमोल की शक्ति को प्रदर्शित कर रहे हैं। राष्ट्रपति के चुनाव में ममता, मुलायम, पवार, जया और करूणानिधि के पसंददीदा उम्मीदवार को ही कांग्रेस मैदान में उतारेगी यह तो तय है। जाहिर है कि राष्ट्रपति का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होता है और अपनी पसंद के व्यक्ति को देश का प्रथम नागरिक बनाने के अनेक फायदे भी राजनैतिक दलों को हासिल होता है। गठबंधन के इस युग में अपने विचारधाराओं का समर्थक राष्ट्रपति बने यह हर राजनैतिक पार्टियों की दिली तमन्ना होती है।
राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक होता है और देश की समस्त शासकीय शक्तियॉं उन्हीं के हाथों में सिमटी हुई होती है। लेकिन व्यावहारिक रूप में वे शक्तियों का इस्तेमाल सिर्फ विशेष परिस्थितियों में ही कर सकता है। देश के इतिहास में कई ऐसी घटना घट चुकी है जब राष्ट्रपति ने अपने विवेक के आधार पर एकल फैसला लिया और देश की राजनैतिक धारा को एक नये मोड से बहने के लिए मजबूर कर दिया। दिवंगत राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के द्वारा राजीव गॉंधी को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्ति या आपातकाल की घोषणा आदि ऐसी घटनाऍं की श्रृंखला है।
राष्ट्रपति का पद आपातकालीन स्थितियों में बहुत शक्तिशाली जरूर होता है, लेकिन सामान्य काल में यह आलंकारिक पद समझा जाता है1 शायद इसीलिए इस पद को शोभित करने के लिए प्राय: सभी प्रमुख समुदायों को एक बार प्रतिनिधित्व देने की कोशिशें की गई है और उसी परिपाटी में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, र्डसाई, अनुसूचित जाति आदि के सदस्यों को इस पद पर बैठाया गया है। भारत जैसे बहुपंथी, बहुलवादी विराट देश समय-समय पर सभी प्रमुख समुदायों को सर्वोच्च पदों पर प्रतिनिधित्व की भागीदारी देकर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में जोडने का कार्य किया गया है। लेकिन देश में एक आदिवासी को राष्ट्रपति के पद पर आसीन करने की कोई पहल अब तक नहीं हुई है।
इसी विधारधारा से प्रेरित होकर देश के अनेक राजनीतिज्ञ और गणमान्य व्यक्तियों सहित आदिवासी राजनीतिज्ञों, नेताओं और संगठनों की कई बैठकें नई दिल्ली सहित देश के कई क्षेत्रों में हो चुकी है, जिसमें भूतपूर्व लोकसभा अध्यक्ष पूर्णो संगमा ने महती भूमिका निभाया है। सत्ता के गलियारों में इस विषय पर गहन विचार करने के बाद देश के तेरहवें राष्ट्रपति के रूप में एक आदिवासी को नामित करवाने का एक अभियान चलाया है और सभी प्रमुख राजनैतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व से भेंट किया गया और इस विषय पर अनुरोध-पत्र भी भेजा गया। इन संगठनों का कहना है कि देश में अब तक प्राय: सभी प्रमुख समुदायों के काबिल सदस्यों को इस पद पर आसीन होने का मौका मिला है। लेकिन देश में दस प्रतिशत जनसंख्या की हिस्सेदारी रखने वाला आदिवासी समुदाय से किसी को राष्ट्रपति बनाने की कोई मुहिम अब तक नहीं चलाया गया है। मेघालय से संबंध रखने वाले दिवंगत जी जी स्वेल, झारखण्ड के स्व. निरल एनेम होरो जैसे आदिवासी नेताओं ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जरूर राष्ट्रपति पर के लिए अपनी उम्मीदवारी दी थी। उन्हें कई क्षेत्रीय दलों ने अपना समर्थन भी दिया था। लेकिन राष्ट्रपति के पद पर किसी स्वतंत्र उम्मीदवार की जीत का सपना देखना राष्ट्रपति के चुनाव प्रक्रिया की वास्तविकताओं से मूँह मोडने के बराबर ही है।
देश में आज आदिवासी अंचलों में जबरजस्त हलचलें मची हुई है। देश के उत्तर पूर्वी राज्यों सहित नौ राज्यों में पॉचवीं अनुसूची के अन्तर्गत घोषित ‘शिड्युल्ड एरिया’ के जिलों में चरमपंथियों के साथ अर्धसैनिक बलों का संघर्ष जारी है और रोज जान-माल की हानि की खबरें छन-छन कर बाहर आती है। बम, गोली, लैंडमाइन, मूठभेड, अपहरण, कॉंबिंग ऑपरेशन आदि शब्दों से ही इन क्षेत्रों के खबरें संचार माध्यमों में छायी रहती है। कभी किसी बेकसूर विदेशी, कभी किसी ब्यूरोक्रेट, कभी किसी राजनैतिक कार्यकर्ता के अपहरण की नकरात्मक घटनाओं से ही देश का ध्यान इन क्षेत्रों में जाता है। देश के अर्धसैनिक बलों के अधिकतर जत्था इन्हीं राज्यों में कानून और शांति की रक्षा में लगी हुई है। लेकिन देश के इन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की दयनीय हालत पर शायद ही मुख्य धारा के संचार माध्यमों में कोई मुकम्मल और प्रभावी खबरें आती है। देश में विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं के कार्यान्वयन के नाम पर आदिवासियों के मानवाधिकारों के हनन और शोषण की जितनी घटनाऍं घटती है वह एक स्वाधीन लोकतांत्रिक और सभ्य देश के लिए किसी भी तरह से शुभ नहीं कहा जा सकता है। राष्ट्रीय विकास की धारा से आदिवासी समाज के हिस्से एक बूँद ‘जल’ भी प्राप्त नहीं हो रहा है। जाहिर है कि इस देश में आदिवासियो के साथ किसी भी स्तर पर न्याय का व्यवहार नहीं हो रहा है। अन्याय, शोषण, पक्षपात और अनदेखी किए जाने का दंश आदिवासी क्षेत्रों में अलगाववाद और विद्रोह की भावना को हवा दे रहा है। नक्सलवाद और माओवाद की अलगाववादी विचारों की फसलें आदिवासी इलाके में ही लहलहा रही है। इन इलाकों में हिंसा के फसलों को कहॉं से खाद और पानी मिल रहा है, इस पर देश में अभी तक गहराई से न तो विचार हुआ है और न ही अध्ययन। आधे-अधूरे, बेमन से कार्यान्वित विकास योजनाऍं भ्रष्टाचार की भेंट चढ रही है। आदिवासी सामाजिक परंपरा में जड जमाए शांति और संतोष के मुख्य विशेषताओ के विपरीत पनप रहे चरमपंथियों के हिंसा का जवाब सरकारी हिंसा से देने की कोशिशें जारी है। इसका खामियाजा आम आदिवासी को चुकाना पड् रहा है। आदिवासी इलाकों में ढॉचागत सुविधाऍं पहले भी नहीं थी। जो नये बनाए गए वे चरमराने लगीं हैं। शिक्षा-स्वास्थ्य और हाट-बाजार की आर्थिक प्रक्रियाओं सहित सामाजिक समरसता की व्यवस्था से आदिवासी वंचित होने लगे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि विकास का पहिया थम सा गया है और ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था गतिशील होने की जगह निगेटिव ग्रोथ दर्ज कर रहा है। स्पष्ट है कि देश में विकास की जो ऑंधी चल रही है उस ऑंधी का एक झोंका भी आदिवासी इलाकों में नहीं आ रहा है। देश के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए जिस तंत्र को जिम्मेदारी दी गई है वह तंत्र माओवाद और नक्सलवाद को कानून और श्र्ँखला की समस्या के रूप में देखता है और उसका समाधान भी बंदूकों में ही ढूँढता है। आदिवासी समाज के प्रति शासन और प्रशासन में घर कर गए इस तरह के विचारों के रहते आदिवासियों की समस्याओं का कोई वास्तविका और अंतिम समाधान खोज जा पाएगा इसकी संभावना कम ही है। राजनैतिक निर्णय प्रक्रिया और सत्त की वास्तविक भागीदारी के बिना भारत जैसे प्राचीन देश में इस देश के मूलवासी ही विकास की मुख्य धारा से अलग-थलग रह गया है। यह इस देश की विडंबना ही है।
देश भर में आदिवासी उपक्षेत्रों में फैली इस हताशा के वातावरण को एक आदिवासी के राष्ट्रपति बनाए जाने पर दूर किया जा सकता है, ऐसा मानने वालो की संख्या बहुत कम नहीं है। दूर की कौडी माने जाने वाला यह विचार देश के 12 करोड मूल निवासियों को देश के मुख्य धारा से जोडने की एक अहम कडी साबित हो सकती है। एक आदिवासी के राष्ट्रपति बनने पर देश में आदिवासी समाज के प्रति आम भारतीयों सहित शासकीय स्तर में योजनागत विचारों और कार्यान्वयन के स्तर में अमूलचूल परिवर्तन आ सकता है। एक शिक्षित, अनुभवी, चिंतक, आदिवासी समाज के अंदरूनी वास्तिविकताओं से वाकिफ और आदिवासी सामाजिक विकास पर समीक्षात्मक पैनी नजर रखने वाला राष्ट्रपति आदिवासी योजनाओं, कार्यान्वयन आदि पर सरकार को निगरानीत्मक उचित दिशा-निर्देश जारी कर सकता है और देश के दस प्रतिशत जनसंख्या को विकास के नये सोपानों से जोडने में महती भूमिका निभा सकता है। एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाए जाने से देश में अनेक सुखद दूरगामी राजनैतिक परिणाम आने की प्रबल संभावना है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और शासन प्रणाली में आदिवासी समाज को अनदेखा करने के तर्क और इस तर्क पर आधारित चरमपंथियों द्वारा प्रायोजित हिंसाचार को बंद करने में सहायता मिलेगी। योजनागत परिकल्पानाओं में वास्तविक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अधिक पारदर्शी और अंतिम धरातल तक पहॅुचने के प्रयास तेज होंगे। आदिवासी समाज में विकास और देश से जुडाव का एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडेगा जो किसी सरकारी योजना के कार्यान्वयन से नहीं आ सकता है। देश के आदिवासी अंचलों में अमन-चैन की आमद और देश के विरल संसाधनों का उचित और विवेकपूर्ण उपयोग देश के विकास की गति को त्वरित प्रदान करेगा, इसमें दो राय नहीं है।
लेकिन सवाल वहीं खडा है कि क्या गठबंधन के जोडतोड और राजनैतिक उठापटक के गुणा-घटाव में व्यस्त राजनैतिक दल दलगत भावना से उपर उठ कर एक आदिवासी को राष्ट्रपति भवन में बैठाने के लिए आगे आऍंगे।