वर्चस्ववाद का शिकार आदिवासी समाज

नेह अर्जुन इंदवार

आज आदिवासी समाज का बड़ा हिस्सा हर क्षेत्र में वर्चस्ववाद का शिकार हुआ दिखता है। देश में जहाँ भी कहीं भी आदिवासी समाज है वह दूसरे तथाकथित अगड़ी समाज के सांस्कृतिक, भाषाई, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक, जीवन दर्शन और विचारधारा वर्चस्ववाद या अधिपत्य का शिकार बना हुआ है। उसका अपना मूल और मौलिक आदिवासीयत से परिपूर्ण नैसर्गिक मूल्य कहीं खो गया है या विलुप्ति के कागार पर है।

आदिवासी इलाकों से दूर विभिन्न कारणों से आदिवासी जहाँ कहीं भी रहता है,  दूसरे तथाकथित विकसित समाज की संस्कृति, भाषा, राजनीति, इतिहास का पिछलग्गु बन जाता है। वह जाने अनजाने, कभी कभी तथाकथित रूप से शिक्षित होने के क्रम में दूसरे समाज के विचारों, व्यवहारों के वर्चस्व का शिकार हो जाता है, उसे वह आत्मसात कर लेता है और उसका नकल भी करने लग जाता है।

आज अधिकतर शिक्षित आदिवासी परिवार अपने घरों में मातृभाषा के रूप में किसी अन्य समाज की भाषा का प्रयोग करता है। ऐसा करने में उन्हें ग्लानी का अनुभव नहीं होता है। क्योंकि वह मानसिक रूप से दूसरे समाज के वर्चस्ववाद को स्वीकार कर लिया है और वह उस वर्चस्ववाद को अपने अगली पीढ़ी को भी पारिवारिक या सामाजिक विरासत के रूप में सौंप रहा है। यह वर्चस्ववाद किसी समाज की अपनी विशिष्ट पहचान को धीरे-धीरे हमेशा के लिए विलुप्त कर देता है। आज पूरे देश में आदिवासी समाज इसी वर्चस्ववाद का शिकार हो रहा है और विडंबना इस बात की है कि समाज का बड़ा और प्रभावशाली तबका इसे मानसिक रूप से स्वीकार कर लिया है।

यह वर्चस्ववाद क्या है? आईए पहले हम वर्चस्ववाद के परिभाषा को समझने का प्रयास करते हैं।

वर्चस्ववाद, आधिपत्य, नेतृत्व, नायकत्व, अंगे्रजी शब्द Hegemony का हिंदी रूपांतर है। इसका शब्दिक अर्थ आधिपत्य, प्राधान्य होता है। Hegemony is political or cultural dominance or authority over others.

इटली के माक्र्सवादी चिंतक अंतोनियो ग्राम्शी के अनुसार शासक या सत्तारूढ वर्ग अपने सोच-विचार, विश्वास, मान्यता, मूल्य, कल्पना, परंपरा, आदर्श को श्रेष्ठ सार्वभौमिक बता कर उसे प्रजा पर थोपता है। वह अपने अक्षम नेतृत्व या अमानवीय, अकल्याणकारी नीतियों को भी सक्षम नेतृत्व और सर्वकल्याणकारी साबित करने के लिए शासक और उसकी बेतुकी नीतियों का मार्केटिंग करता है। इसके लिए शासक या सत्तारूढ़ वर्ग शोषित के विरूद्ध हेरफेर और षड़यंत्र करता है, और उसे (कमजोर  समाज को) अपनी भाषा, संस्कृति अपनाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मजबूर करता है। अपनी भाषा को थोपने के लिए उसे शिक्षा, रोजगार, विकास के कार्यकलापों के साथ जोड़ देता है।  

इस प्रक्रिया में शासक और प्रभु वर्ग शोषित समाज के मौलिक सोच-विचार, विश्वास, मूल्य, कल्पना-परिकल्पना, आदर्श, परंपरा, व्यवहार, भाषा, संस्कृति, राजनीति, अर्थनीति, रंग रूप और सामाजिक स्थिति को घटिया सिद्ध करने का प्रयास करता है और इसके लिए वह विभिन्न प्रकार के साम, दाम, भेद की नीति अपनाता है।

बहुल सांस्कृतिकवाद की जगह एकल संस्कृतिवाद के लक्षित प्रक्रिया को ग्राम्शी ने वर्चस्ववाद कहा है। स्थूल रूप से शक्तिशाली देश या राष्ट्र के द्वारा कमजोर देशों या राष्ट्र पर धौंस को कुटनीति की भाषा में वर्चस्ववाद कहा जाता है। वर्तमान समय में पूरे संसार में अमेरिकी शक्ति की धौंस कमजोर देशों में चल रहा है।

यह ध्यान देने की बात है कि बौद्धिक रूप से क्षमताहीन, साधनहीन वर्ग, प्रभु वर्ग के षड़यंत्र को समझ नहीं पाता है और अपनी संस्कृति, भाषा और सामाजिक थाथी को प्रभु वर्ग द्वारा घटिया बताए जाने पर वह भी घटिया मान लेता है। इस प्रक्रिया में वह धीरे-धीरे प्रभु वर्ग की भाषा, संस्कृति, व्यवहार, मान्यता, विश्वास, मूल्य और इतिहास को अपना लेता है और उसका पिछलग्गु बन जाता है।

साधनहीन, अशिक्षित लोग जो साधारणता बौद्धिकतापूर्ण वैचारिक चर्चा से या तो अनजान होते हैं या फिर ऐसी चर्चा और चर्चा के माध्यम तक उनकी पहुँच नहीं होती हैं । फलस्वरूप वे  सत्तारूढ़ वर्ग के चालाकी, सतत व्यवहार, प्रयास या षड़यंत्र को समझ नहीं पाते हैं और कालांतर में वह अपनी सामाजिक, ऐतिहासिक, पारंपारिक मूल्यों को तिलांजली देकर शासक वर्ग के मूल्य, विश्वास, आदर्श, मान्यता, व्यवहार सोच और दृष्टिकोण इत्यादि को अपना लेते हैं।

लेकिन पिछड़े समाज के शिक्षित जनों द्वारा इस तरह के वर्चस्ववाद का बढ़चढ़ कर स्वागत करना और उसे अपनाना शिक्षित समाज के चिंतनधारा पर प्रश्नचिन्ह् खड़ी करता है। इसे आदिवासी समाज के परिपेक्ष्य में गहराई से समझा जा सकता है।

आज आदिवासी समाज अपनी भाषा, परंपरा, विश्वास, मूल्य, मान्यताओं को छोड़ कर गैर-आदिवासी समाजों में प्रचलित मूल्य और परंपराओं को अपना रहा है। यद्यपि अशिक्षित समाज अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से आज भी कमोबेश जुड़ी हुई है लेकिन आदिवासी मूल्यों रहित शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिक्षित आदिवासी सबसे पहले अपने सामाजिक मूल्यों से पीछा छूड़ा लेता है। वह गैर आदिवासी भाषाओं को अपने घर का भाषा बना लेता है। चाल चलन, पर्व त्यौहार, सामाजिक रूप से दूसरे समाज के सांस्कृतिक मूल्यों को अपने घर का स्थायी निवासी बना लेता है और अपने पारंपारिक मूल्यों को अपने अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करने के बजाय वह अपने बच्चों को गैर आदिवासी भाषाओं, मूल्यों से न सिर्फ परिचय कराता है बल्कि अपने परिवार और वातावरण में गुंफित करते लग जाता है और नयी पीढ़ी सिर्फ शरीर, नाम, गोत्र और परिचय के लिए आदिवासी बना रहता है, लेकिन मानसिक और आत्मिक से वह गैर-आदिवासी में परिवर्तित हो जाता है।

बच्चों को स्वार्थहीन आदिवासी सामाजिक मूल्यों को परोसने की जगह उनके नन्हें दिमागों में सामंतवादी, शोषणमूलक प्रतिस्पर्धात्मकपूर्ण जीवन मूल्यों को परोसा जाता है। जिसके कारण बच्चे अपने ही सामाजिक मूल्यों के प्रति हेय दृष्टि विकसित करते हैं और मानसिक रूप से एक समतापूर्ण सामाजिक मनुष्य की जगह एक कंपिटिटर मनुष्य बनते जाते हैं। एक कंपिटिटर मनुष्य सहअस्तित्व पर विश्वास नहीं करता है बल्कि वह जीवन को एक रेस के रूप में देखता है जहां उसे सिर्फ दौड़ना होता है, सबसे आगे निकलने के लिए। यह कंपिटिटर सामाजिक मूल्य का प्रतिफल है कि जीवन में अथाह संपत्ति और सफलता प्राप्त करने की मानसिकता लिए आदमी जीवन भर शांति और सुकुन के लिए भटकता है।

आज हिंदी प्रांतों में शिक्षित आदिवासियों की घरेलु भाषा हिंदी हो गई है, वहीं बंगाल में लाखों परिवार घर में बंगला, असम में असमिया, उड़िसा में उड़िया, महाराष्ट्र में मराठी आदि बोलते हुए नजर आते हैं। घर के बाहर सामाजिक समागमों में भी आदिवासी गैर-आदिवासी भाषाओं का ही प्रयोग करते हैं और गैर-आदिवासियों से तो शत-प्रतिशत गैर आदिवासी भाषाओं में ही बातचीत करते हैं, भले आदिवासी दस हों और सामने सिर्फ एक गैर आदिवासी। ऐसी स्थिति शहरों में ही है ऐसी बात नहीं है, बल्कि आदिवासी बहुत क्षेत्र में भी यही स्थिति दृष्टिगत होती है।

आज शिक्षा लेने के क्रम में अधिकतर आदिवासी सिर्फ साक्षर हो रहे हैं डिग्रीधारी बन रहे हैं, लेकिन शिक्षित नहीं हो पा रहे हैं। उन्हें गैरआदिवासी मूल्यों, इतिहास, भाषा, संस्कृति पढ़ाया जा रहा है और वे साक्षर और शिक्षित होने के क्रम में आदिवासीयत से दूर होते जा रहे हैं। उनकी सोच और विश्वास में गैर आदिवासीयत मूल्य भरे जा रहे हैं। वे शिक्षा का उपयोग अपने सामाजिक सोच-विचार विश्वास, मान्यता, मूल्य, कल्पना, परंपरा, आदर्श, व्यवहार, भाषा, इतिहास संस्कृति, राजनीति, अर्थनीति और सामाजिक स्थिति को सुदृढ़ करने में नहीं कर रहे हैं या नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इनके लिए उन्हें शिक्षा ही नहीं दी गई है । उन्हें गैर आदिवासी वातारण में शिक्षा देने के क्रम में एक शिक्षित सामाजिक प्राणी बनाने की जगह उन्हें एक डिग्रीधारी, नौकरी के लिए उपयुक्त कौशल से युक्त प्राणी बनाया जा रहा है। अर्थात् उत्पादन प्रक्रिया में खपा कर काम करने वाला एक उपकरण-प्राणी। प्रभु और शोषक वर्ग का वर्चस्ववाद या अधिपत्यवाद कैसे काम करता है इसे जानने के लिए उपकरण के रूप में तैयार एक शिक्षित व्यक्ति का अध्ययन करके सहज ही जाना जा सकता है।

आदिवासी मूल्यों से रहित शिक्षित आदिवासी शिक्षा का उपयोग अपने समाज और सामाजिक थाथी को सुदृढ़ करने में नहीं करता है, बल्कि उसे खोखला और जड़हीन बनाने के औजार के रूप में प्रयोग करता आ रहा है।

जब समाज में शिक्षा का सही प्रयोग बढ़ता है और शिक्षा को सामाजिक जागरूकता को बढ़ाने, सामाजिक एकता को सुदृढ़ करने में, प्रतिकूल परिस्थतियों में संघर्ष करने में उपयोग किया जाता है तो उससे जागरूकता की एक नयी जमीन तैयार होती है। समाज में अपने मूल्यों के प्रति लोगों में नया विश्वास जगता है। अपनी संस्कृति के उच्चमूल्यों से समाज परिचित होता है और दूसरे शोषक या शासक वर्ग के सांस्कृतिक, भाषाई, राजनैतिक और आर्थिक वर्चस्व से समाज की रक्षा करने की चाहत पैदा होती है। समाज किसी अन्य समाज का पिछलग्गु नहीं बनता है बल्कि अपनी जमानी मूल्यों से एक सशक्त पहचान बनाता है और सभी तरह के शोषण, अत्याचार, भेदभाव, अन्याय से समाज सहज रूप से लड़ाई करता है। समाज में शिक्षितगण एक नौकरी की मशीनरी में प्रयोग होने वाले एक पूर्जे की तरह नहीं बल्कि चेतनाशील सामाजिक रूप से अत्यंत सक्रिय कार्यशील बुद्धिजीवी की तरह कार्यरत्त होते हैं और वे बौद्धिकता के बल पर सामाजिक विकास के लिए अनिवार्य सभी परिस्थितियों का निर्माण अपने तई करते हैं।

आदिवासी भाषाएँ भारत की प्राचीनतक भाषाएँ हैं। तमाम आधुनिक भारतीय भाषाएँ,  आदिवासी भाषाओं के हजारों वर्षों बाद की पैदाईश है। आज संस्कृत और तमिल को क्लासिकल भाषा की पदवी से नवाजा गया है, लेकिन आदिवासी भाषाएँ तो आर्यों के आने के दसियों हजारों वर्षों से पहले से ही विद्यमान हैं। पिछले कई हजार साल से लेकर पिछले सौ दो सौ वर्षों तक हमारे पूर्वजों ने इन भाषाओं को सहेज, समेट कर पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित बचा कर रखा। हमारा पूरा इतिहास, सामाजिक व्यवहार, संस्कृति और सामाजिक संपन्नता आदि तमाम जानकारियाँ इन्हीं भाषाओं में रच बस कर आधुनिक काल तक निर्झर पानी की तरह बहता रहा है।

लेकिन जैसे ही हम तथाकथित रूप से शिक्षित होने की प्रक्रिया में शामिल हुए, सबसे प्रथम भारी आघात हमने अपनी ही भाषा, सामाजिक परंपरा, धर्म और संस्कृति को लगाया और उसे नष्ट और मटियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। इतिहास में ऐसी विडंबनापूर्ण स्थिति और कहाँ होगी ?? अपने ही सामाजिक प्राचीन थाथी का हत्यारा होने के आरोप से शिक्षित और तथाकथित रूप से विकसित आदिवासी कैसे इंकार कर सकता है ?? आधुनिक शिक्षा और ज्ञान अपने ही विरासत का हत्यारा निकला। वर्चस्ववाद का शिकार हुए हमारे विशाल सामाजिक और सांस्कृतिक अट्टालिकाओं का भग्नावशेष भी हम बचा कर रख पाने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। कैसी है हमारी शिक्षा और क्या है इसके लक्ष्य ??

आदिवासी समाज अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक अस्मिता के लिए अलग ही पहचाना जाता है। समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा और स्वतंत्रता हासिल है। समाज में शोषक वर्ग का कहीं उदय नहीं हुआ और ऊॅंच नीच का कोई स्थान नहीं । अमीर और गरीब में रोटी बेटी का रिश्ता नयी बात नहीं है। समाज सामूहिकता में विश्वास रखता है। खेत-खलिहान सामूहिक मिल्कियत का होता है। खेती करने वाला सिर्फ तत्कालिक मालिक होता है। अपनी अधिक भूमि या संसाधन को आदिवासी दूसरे के शोषण के लिए इस्तेमाल नहीं करता है।

आदिवासी नृत्य और संगीत प्रेमी होते हैं। हर मौसम और हर पर्व त्यौहार या शादी विवाह, सुख दुख के लिए पारंपारिक नृत्य और गीत अलग-अलग होते हैं। सिसई के एक गाँव तथा राउरकेला के नजदीक एक गाँव के शादी में मैने करीबन बारह तरह के नृत्य-गीत और उसी के अनुसार अलग ढंग से ढोल और नगाड़े की आवाज देखा और सुना। शादी के नेग दस्तुर में प्राकृतिक पूजन की विविधता, मनोरंजन के अनेक रंग व्याप्त देखा। वहीं जलपाईगुड़ी और असम के कुछ भागों में मैंने सरना शादी में दुल्हा दुल्हन को राजा-महाराजाओं की तरह मुकुट पहन कर शादी करते देखा। कई चर्च शादी में जिंदगी भर कोट-पैंट का शक्ल नहीं देखते वाले शख्स को कोट-पैंट और टाई पहने शादी करते देखा। इन शादियों  में  सिर्फ एक ही धुन पर ढाँक  बजते और एक ही प्रकार से नाचते लोगों को देख कर सहज ही नृत्य-गीत-संगीत में बाहरी प्रभाव या वर्चस्व को महसूस किया जा सकता है। अब तो अनेक जगहों में शादी विवाह या अन्य त्यौहारों में गैर आदिवासियों के “रप्टा” बाजा को आमंत्रित करते हुए सहज की देखे जा सकते हैं।

कई आदिवासी फिल्मेँ देखे हर फिल्म में हिंदी फिल्मों के भौंडे़ नकल ही देखने को मिला। सृजनात्मक सोच में भी जब वर्चस्ववाद की लकीरें दिखाई देती है तो मौलिक सोच के बारे चिंता होना स्वाभाविक ही है।

दुनिया में हर समाज भौतिक विकास कर रहा है। लेकिन अपनी भाषा, अस्मिता, परंपरा, सोच, सामाजिक व्यवहार को तिलांजली देकर नहीं। इजरायल जैसे देश भी है जो हजारों वर्ष पूर्व विलुप्त हुए अपनी भाषा को पुनर्जिवित करके आज वैज्ञानिक प्रगति का लोहा सबको मनवा लिया है। तेजी से क्षयग्रस्त होते आदिवासी भाषाओं, पहचान, संस्कृति, खेल-खलिहान को बचाने की कोशिश की जाए तो हम जरूर कामयाब होंगे। लेकिन इजरायली लोगों की तरह ही हमें समर्पित और दृढ़निश्चियी होने होंगें।

आज आदिवासी समाज में सतत सक्रिय बुद्धिजीवियों का अभाव है तो उसका कारण पिछले सौ वर्षों में दूसरे समाज के वर्चस्ववाद का शिकार होना ही है। समाज में साक्षर होने की प्रक्रिया जारी रही, अनेक स्कूल, कालेजों में, जिनकी स्थापना तीस चालीस के दशक में हुआ, आदिवासी समाज से शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या बढ़ती रही। लेकिन समाज में मौजूद तुलनात्मक रूप से उच्च और मूल्यवान मूल्यों को बचा कर रखने के लिए शिक्षितों का कोई समूह आगे नहीं आया, न ही उच्चकोटी के समाज सुधारक, मार्गदर्शक, लेखक, कवि, कहानीकार, चिंतक, सिद्धांतकार, कलाकार, पत्रकार, सम्पादक, विश्लेषक, समीक्षक, भाषाविद्, बैरिस्टर, कानूनविद्, जज, वैज्ञानिक, अविष्कारक, राजनीतिज्ञ, कुटनीतिज्ञ, रणनीतिज्ञ, उद्भट विद्वान, व्यापारी, उद्योगपति आदि का उत्पादन या पैदाईश हुई।

पूरा समाज बाहरी समाज और लोगों के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक शिक्षाओं का पिछलग्गु और दास बना रहा और उन्हीं मूल्यों में मनुष्यता के विकास की खोज करते रहे । भाषा संस्कृति, खेत, खलिहान, जंगल झार, नदी, तलाब, आदिवासी अंचल-क्षेत्र, स्त्री-पुरूष, बच्चे लुटते रहे और समाज जर्जर होते रहा। लेकिन शिक्षित आदिवासी बस टुकुर टुकुर देखने के सिवाय कुछ नहीं कर सके। नैसर्गिक क्षमताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो वर्चस्ववाद के शिकार आदिवासी अपने पुरखों के सामने कहीं नहीं टिकते हैं। वे विकास के स्वप्न में विनाश को गले लगाते रहे। जिन बाहरी समाज और लोगों ने हमारे पूर्वजों को अपनी चालाकी, धुर्तता और धोखे से ठगा उन्हीं के विचारों, मूल्यों और आस्थाओं को आदिवासी आज इसलिए ढोने में शान समझता है कि जन्म से ही वह उन मूल्यों के खोल में जीवन जीता रहा है। जिन्होंने उनके पूर्वजों को ठगी और चालाकी का शिकार बनाया उन्हें ही वे सम्मानीय समझते हैं।

आदिवासियों के वर्चस्ववाद के शिकार होने का सबसे बड़ा पहलु आर्थिक वर्चस्ववाद का शिकार है। गरीबी में आटा गिला के कहावत यहाँ चारितार्थ हुई है। जो नगणन्य संख्या में सक्षम शिक्षित थे, बौद्धिकता से लैस थे, उनका भी आर्थिक अभाव के कारण हाथ पाँव  शिथिल हो गया था। वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि वे भी वर्चस्ववाद के कई पहलुओं के व्यक्तिगत शिकार थे। आज आदिवासी समाज संविधान के पाँचवी अनुसूची के क्षेत्र, सम्पन्नता के भरा खनिज लवंग के क्षेत्र का निवासी होते हुए भी बाजार के आर्थिक गतिविधियों से अलग थलग है । उनकी जमीन, क्षेत्र, वातावरण, जलवायु, नदी, तलाब, वन जंगल का आर्थिक गतिविधियों में बखूबी प्रयोग हो रहा है लेकिन इन गतिविधियों से प्राप्त हो रहे अरबों के लाभ में आदिवासियों को कोई हिस्सा प्राप्य नहीं है। वरण ये आर्थिक गतिविधियां आदिवासी समाज को समाप्त करने के उपकरण के रूप में प्रयोग हो रहीं हैं। आर्थिक वर्चस्ववाद का ऐसा उदाहरण संसार के किसी हिस्से में देखने को नहीं मिलता है।

आज आदिवासी समाज भारत में प्रभु वर्ग या शोषक वर्ग का उपनिवेश बना है तो इसके कई कारण हैं। हमें वर्चस्ववाद के कई उदाहरण से हमें इसे समझना होगा, तभी हम वर्चस्ववाद के कुचक्र से लड़ सकेंगे और विजयी होने के लिए कार्यसूची और नीति और कार्यक्रम बना सकेंगे।

संसार के सभी देशों और महादेशों में यह वर्चस्ववाद का खेल चल रहा है। भारत में करीब 1500 से अधिक भाषाएँ हैं और उनमें पाँच सौ से अधिक  साहित्य और लोकसाहित्य से संपऩ्न हैं लेकिन देश में सिर्फ 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है और पूरे भारतवासी को इन्हीं भाषाओं के वर्चस्ववाद का शिकार बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जब एक भाषा के वर्चस्ववाद का शिकार एक विशाल जनसंख्या होता है तो उस भाषा के माध्यम से उस विशाल जनसंख्या की सोच, चिंतन, व्यवहार, संस्कृति और भाषाओं पर वर्चस्ववाद का प्रभाव पड़ता है और उनके जीवन यापन में अनेक बाहरी प्रभाव परिलक्षित होते हैं। आर्थिक रूप से उस विशेष भाषा के ग्राहक बढ़ जाते हैं, अधिक किताबें, पत्रिकाएँ, अखबार, टीवी, सिनेमा और अन्य कलात्मक और संस्कृतिजन्य वस्तुओं, मूल्यों के ग्राहक बढ़ जाते हैं और उनका बाजार और प्रभाव बढ़ जाता है। उन्हीं भाषाओं का विद्यालय कालेज, पाठ्यपुस्तकें और जीवन दृष्टि के सब कायल हो जाते हैं। लेकिन वर्चस्ववाद के शिकार समुदाय को दृष्टगत आर्थिक क्षति से भी अधिक अदृष्टिगत हानि होती है और उसके सम्पूर्ण विशिष्ट अस्तित्व पर संकट मंडराने लगता है, या वह पूरी तरह नष्ट हो जाता है। यह किसी समुदाय या राष्ट्रीयता का मृत्यु ही होती है।

अंग्रेजी का बाजार आज पूरे संसार में सबसे बड़ा है। सिर्फ अंग्रेजी के एक उपन्यास के आय पर उसके लेखक करोड़पति बन जाता है। सिर्फ एक हॉलीवुड फिल्म की कमाई कई देशों के सकल आय से अधिक होती है। यह अंग्रेजी के वर्चस्ववाद का प्रतिफल है। दुनिया के हर देश और जनता अंग्रेजी सीखने के लिए खूब व्यय करता है। पुरी दुनिया में अंग्रेजी भाषा का सिर्फ एक दिन का बाजार ही कई अरब रूपये का है। फिर भी अमेरिकी, यूके, आस्ट्रलिया आदि अंग्रेजी भाषी देश सारी दुनिया में मुफ्त अंग्रेजी सीखाने के लिए सैकड़ों संस्थाएँ, वेबसाइट, प्रकाशन, रेडियो स्टेशन आदि में बेशुमार पैसा खर्च करते हैं। क्योंकि वे अपने वर्चस्व को बनाए रखना चाहते हैं। इस भाषाई वर्चस्ववाद से सिर्फ अमेरिका को सैकड़ों बिलियन डॉलर की कमाई होती है। हॉलीवुड तय करता है कि दुनिया में कौन सा फैशन का चलन होगा या कौन सा संगीत सुना जाएगा। पूरी दुनिया हर मामले में अमेरिका का नकल करने के लिए दिन-रात लगा रहता है। अमेरिका एक्सेंट में बातें करने वाला अपने को अन्यों से उच्च महसूस करता है। यह वर्चस्ववाद का ही प्रभाव है।

हमारे देश में अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण एक सत्ताधारी वर्ग का उदय हुआ है जो सिर्फ भाषाई ज्ञान के कारण पूरे देश को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर रखा है। किसी भी पार्टी का की सरकार बने उसके वर्चस्ववाद का बाजार कभी खत्म नहीं होता है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री और हिंदी टेलिविजन कंपनियाँ और क्रिकेट वर्चस्ववाद के ऐसे उदाहरण है, जहाँ पूरे देश की कमाई सिर्फ चंद मुट्ठी भर लोगों के पास पहुँच जाती है। हिंदी और चंद राज्यों की राजभाषा सैकड़ों भाषाओं के मार्ग में तरह-तरह से बाधाएँ खड़ी करती हैं।

तमिलनाडु में हिंदी का विरोध इसके वर्चस्ववाद का विरोध ही है। तमिल चैनल, फिल्म, अखबार, विज्ञापन, शिक्षण पाठ्यक्रम का एक अलग ही अर्थव्यवस्था है, जिसकी कमाई बॉलीवुड और दिल्ली तक नहीं पहुँचती है, बल्कि वह तमिलनाडु में ही रह जाती है। जिसके कारण लाखों लोगों की आय बढ़ती है और आत्मनिर्भरता की ओर एक कदम अधिक बढ़ाते हैं।

भाषाई और सांस्कृतिक वर्चस्व को समाज चाहे तो बहुत आसानी से महज एक दशक की अवधि में खत्म कर सकता है। भाषा, साहित्य, सिनेमा, टीवी, धर्म, के रास्ते बढ़ते बाहरी नकरात्मक वर्चस्व को समाज अपनी पौरूषता से तोड़ सकता है। तामिलनाडु इसका एक उदाहरण है। सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक वर्चस्व को खत्म करना आदिवासीयत से भरे बुद्धिजीवियों का काम है। आदिवासी मूल्यों से परिपूर्ण सोच और चिंतन से यह काम भी एक दशक की अवधि में ही किया जा सकता है। लेकिन इसके पूर्व प्रत्येक तरह के वर्चस्ववाद को चिन्हित, रेखांकित और  विश्लेषण किया जाए । जनचर्चा के माध्यम से वैकल्पिक आदिवासी मॉडल रखे जाएँ। जागरूकता बढ़ाने का एक विशाल अभियान छेड़ा जाए । इसके लिए बुद्धिजीवियों की एक विशाल फौज चाहिए। समाज को बडी मात्रा में बुद्धिजीवियों के उत्पादन करने का रास्ता निकालना होगा।

आदिवासी भाषाएँ, संस्कृति, जीवन मूल्य,  सोच, दर्शन और परंपराएँ इस देश की मौलिक विरासत है। इनकी विलुप्ति सम्पूर्ण आदिवासी जीवन धारा की मृत्यृ होगी। इसे बचाने के लिए अपनी सोच और चिंतन तथा जीवन और समाज में इसे जगह देना होगा। विशाल भारतीय समाज में विविधता और बहुलता बनी रही इसके लिए तो खुद आदिवासी समाज को ही आदिवासीयत के संरक्षण के लिए नयी सोच के साथ आगे आना होगा। बाहरी वर्चस्ववाद का मुकाबला अपनी भाषाओं, संस्कृतियों, परंपराओं, सोच-विचार, विश्वास, मूल्य, कल्पना-परिकल्पना, आदर्श, व्यवहार को बचा कर ही किया जा सकता है।