चुनावी रंग

एक सिक्‍के के दो पहलू होते हैं। इसके रंग एक हो सकते हैं अथवा दो। लेकिन यह परिस्थिति के अनुसार रंग नहीं बदलता है। परिस्थिति के अनुसार रंग बदलने की कला सिर्फ गिरगिट को आता है। इसीलिए हर बार नये–नये चोले बदलने वालों को, नये रंग और ढंग में अपने को दिखाने की चाहत रखने वालों को गिरगिट की उपमा दी जाती है।

डुवार्स–तराई के आदिवासी समाज में एक हलचल मची हुई है। आदिवासियों को लगता है कि समाज में एक क्रांति आ रही है। कइयों को लगता है एक सामाजिक क्रांति करवट ले रही है। लेकिन समाज का नेतृत्‍व करने वाला अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद हर परिस्थिति में बार–बार अपना रंग बदल रहा है।

विकास परिषद असंख्‍य बार दावा किया है कि वह विशुद्ध सामाजिक संगठन है,  राजनीति और राजनीति के तिकड़मी रंग ढंग से उसे कुछ लेना देना नहीं है। पीपीपी (प्रोग्रेसिव पीपल्‍स पार्टी) और डेमोक्रेटिक फ्रंट के गठन को विकास परिषद ने समाज तोड़क कह कर न सिर्फ इन राजनीतिक संगठनों की निंदा की बल्कि उनकी सभाओं में जाने वालों आदिवासियों को भी जबरदस्‍ती रोकने–टोकने की कोशिश की। उनके साथ हिंसा से पेश आने से भी अपने समर्थकों को नहीं रोका।

लेकिन आज आदिवासी विकास परिषद सामाजिक चोला उतार फेंक राजनीति का चोला धारण करने के लिए न सिर्फ बेताब है, बल्कि हाथ पॉंव मारते–मारते दिल्ली दरबार में कांग्रेस नेतृत्व के यहॉं भी नतमस्‍तक होकर आ गया है। आज वह शुद्ध राजनैतिक पा‍र्टियों की तरह बात कर रहा है और दूसरी पार्टियों में अपना दबाव बना रहा है कि डुवार्स तराई की सीट उनके लिए फ्री छोड दी जाए।

आदिवासी विकास परिषद् पर डुवार्स–तराई के लोगों का भरोसा है। वे अपने भविष्य और सामाजिक सम्मान को इससे जोड़ कर देखते हैं। आदिवासी समाज के स्‍वाभिमान और सम्‍मान को गिरवी रख कर राजनैतिक पार्टियों के नेताओं के आगे–पीछे फिरने और उनके दरबारों में दर्शन देने के इस दिल्‍ली दर्शनी–दौरा करने वाले नेताओं को समाज किन नजरों से देखेगी यह तो भविष्य ही बताएगा। दर्जनों बार आदिवासी विकास परिषद को विशुद्ध आदिवासी समाज का सामाजिक संगठन घोषित करने वाले आज किस मुँह से आदिवासी विकास परिषद के नाम पर ही राजनीति की रोटियॉं सेंकने के लिए बेताब हैं, यह हैरान करनी वाली बात है।

हमने इस विषय पर पहले ही कहा था (पढिए मधुबागानियार में दायीं ओर प्रकाशित’’सामाजिक संस्थाओं की राजनीतिक  इच्छाऍं’’) कि समाज को आदिवासी सामाजिक एकता के नाम पर एकजुट करके कुछ मुट्ठी भर चालाक लोग अपने व्‍यक्तिगत स्‍वार्थपूति के एजेंडे को पूरा कर रहे हैं। यदि विकास परिषद के नेताओं को एमपी और एमएलए बनने और बनाने में अधिक रूचि था अथवा है तो नैतिकता का तकाजा कहता है कि उन्‍हें पहले ही इसे स्‍पष्‍ट कर देना था और बार–बार परिषद को एक सामाजिक संगठन घोषित न करके उसे एक राजनैतिक संगठन घोषित कर देना चाहिए था। उनकी स्‍पष्‍टवादिता और सीधी बात आदिवासी जनता को पसंद आती। समाज का बिनाशर्त समर्थन लेना और समाज से तथ्‍य और उद्देश्‍यों को छुपाना ठगी कहलाता है।

विकास परिषद ने डुवार्स और तराई के आदिवासियों की करूण हालातों के लिए हमेशा राजनैतिक पार्टियों और उनकी नीतियों को दोषी ठहराया है। विकास परिषद के इन विचारों और निष्‍कर्ष  से सभी सहमत रहे हैं। यह वास्‍तविक है  कि राजनैतिक पार्टियॉं मजदूरों को अपने चंगुल में बॉंध कर आपस में लड़ाती रही और उनके वोट लेती रही, लेकिन उनके हित में कोई काम नहीं कर रही थी। मजदूरों की आपसी लडाइयों में असंख्‍य आदिवासी मजदूर मारे जाते रहे। यहॉं तक कि दूसरी पार्टी के सदस्‍यों के साथ रोटी–बेटी का रिश्‍ता  भी मजदूरों को पसंद नहीं  होता था। पार्टियों और मजदूर संघों में पूरी तरह बंट चुके आदिवासियों को एक मंच पर लाने, एकता की डोरी में बॉंधने के लिए सिर्फ सामाजिक संगठन ही कार्य कर सकता था और वही कार्य विकास परिषद ने किया।

विकास परिषद की सामाजिक एकता की सोच को सभी ने स्‍वीकारा और इसमें बढ़ चढ़ कर भी हिस्‍सा लिया। विकास परिषद द्वारा कांग्रेस, सीपीएम, आरएसपी, भाजपा जैसी पार्टियों की दोहरी नीतियों के खिलाफ की गई संघर्ष को आदिवासी एकता के राह में एक सीढ़ी समझा गया। लेकिन आज उन्हीं वोटों के फेरे में आकर विकास परिषद कांग्रेस, सीपीएम, आरएसपी, भाजपा जैसी पार्टियों के नक्‍शे कदम पर चलने के लिए तैयार हो गया है। वोटों के खातिर परिषद के लोग क्‍या –क्‍या गुल खिलाऍंगे यह तो कुछ महीनों के अंदर ही पता चल जाएगा। वोटों के इसी लालच ने जॉन बारला को राजेश लकडा  और किरण कालिंदी को गद्दार कहने के लिए विवश कर दिया, उन्‍हें डर है कि राजेश लकडा और किरण कालिंदी की पार्टी कहीं उनके वोटों को कम न कर दें और उनकी राजनैतिक आकांक्षा अधूरी रह न जाए। जॉन बारला ने तो लगे हाथ लकड़ा और कालिंदी के बारे अपना निष्कर्ष सुना दिया है, लेकिन उन्‍हें जवाब देना चाहिए कि बीरपाडा में एक आदिवासी विधवा को मारवड़ीपट्टी के अपने घर से भगाने के लिए मारवाडियों से पैसा लेने वालों आदिवासियों के विरूद्ध में उन्‍होंने क्‍या कदम उठाया है ? क्‍यों कुछ कार्यकर्ताओं के विरूद्ध मामले दर्ज किए गए हैं ?

गत बार कालचीनी उपचुनाव के समय ही विकास परिषद की दोहरी चालाकी नीति लोगों के सामने आ गई थी। एक ओर तो वह चुनाव में भाग भी लेना चाहता था। लेकिन दूसरी ओर वह अपना नाम भी सामने लाना नहीं चाहता था। जीत जाते तो कह देते विकास परिषद का उम्‍मीदवार था। हार गए तो उम्‍मीदवार रहे संदीप और राजू बाडा को संगठन विरोधी कार्यकलाप के लिए बाहर का रास्‍ता दिखला दिया गया था।

हमने पहले ही कहा था जनतंत्र में राजनैतिक पार्टियों का स्‍थान महत्‍वपूर्ण होता है। बिना राजनैतिक पार्टियों के आप सत्‍ता पर कभी भी अधिकार नहीं जमा सकते हैं। विकास परिषद में भी इस विषय पर चर्चा हुई और यह महसूस किया गया कि एक आदिवासी पार्टी बनाई जाए। लेकिन विकास परिषद के शीर्ष पर बैठे नेतृत्‍व ने हमेशा इस बात को दरकिनार किया। क्‍योंकि नई पार्टी बन जाने पर उनके नेता अलग होते जो उनके पॉकेट–नीतियों को नहीं मान कर स्‍वतंत्र नीति और लाइन पकड़ सकते थे। पीपीपी के गठन को भी इसी तर्ज पर दरकिनार किया गया कि राजनैतिक पार्टी बनाना विकास परिषद का उद्देश्‍य नहीं है। जबकि पीपीपी परिषद के ही भूतपूर्व सदस्‍यों के द्वारा बनाया गया।

बार–बार लोगों को समझाया गया कि विकास परिषद एक सामाजिक संगठन है और राजनीति कार्यकलापों तथा गतिविधियों के लिए इसके संविधान में कोई जगह नहीं है। विकास परिषद के नेतृत्‍व ने कई बार यह भी कहा कि ‘जरूरत होने पर हम राजनैतिक पार्टी भी बनाऍंगे।‘ लेकिन इस विषय पर कभी कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया, न ही परिषद के संविधान में कोई संशोधन ही किया गया। आज जब चुनाव के बिगुल बज चुके हैं तो यही नेतृत्‍व अपनी अपरिपक्‍वता को जाहिर करता हुआ विकास परिषद के नाम पर ही चुनावी राजनीति के मैदान में उतर गया है। जाहिर है कि राजनीति के दंगल में सामाजिक संगठन का चोला गया बाजार तेल लेने के लिए।

डुवार्स तराई के विशाल आदिवासी समाज में एक अभूतपूर्व एकता पहली बार नजर आई है, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस एकता को बनाए रखने और सामाजिक स्‍तर पर अभूतपूर्व कार्य और क्रांति ला सकने वाला नेतृत्‍व आदिवासी समाज को नहीं मिल पाया। जो हैं, वे उच्‍च्‍ शिक्षित नहीं हैं न ही ज्ञान और व्‍यवहार में पके हुए हैं। यही कारण है कि यह नेतृत्‍व एक सामाजिक संगठन को अपनी सु‍विधा के अनुसार कभी सामाजिक संगठन के रूप में उपयोग कर रहा है तो कभी उसी संगठन को राजनीति के कीचड में घसीट रहा है। यह एक सोचनीच स्थिति है।

आज यह संगठन कांग्रेस पार्टी को अपना सहयोग देने के लिए दिल्‍ली हो कर आ गया है। इनके नेता घोषणा करते हैं कि यदि कांग्रेस के साथ गठबंधन न बना तो यह कोई दूसरी पार्टी से नाता जोडेगा। यदि किसी भी पार्टी से न बना तो वह सभी सीटों पर अपना स्‍वतंत्र उम्‍मीदवार खडा करेगा। कुल मिला कर यही उद्देश्‍य है कि हर हालत में चुनाव लड़ा जाए। यदि इसके उम्‍मीदवार जीत जाते हैं तो वे सिर्फ इनके अधीन कार्य करेंगे। नहीं जीते तो पूरा आदिवासी समाज पराजित समाज कहलाएगा। एक विशुद्ध सामाजिक संगठन को राजनैतिक संगठन में बदल कर वर्तमान नेतृत्‍व ने एक प्राचीन सांस्‍कृतिक और भाषाई जनसमूह को पॉंच वर्षीय चुनावी दलदल में फंसा दिया है और पार्टी और मजदूर संघ के उसी पुरानी स्‍तरहीन कीचड में सने रहने के लिए फिर से रास्‍ता साफ कर दिया है। शायद इन्‍हें लगता है कि एक चुनाव जीत जाने पर आदिवासियों की समस्‍याऍं भी सुलझ जाएगी।

एक सामाजिक संगठन किसी भी समाज का सबसे महत्‍वपूर्ण सम्‍पदा और थाती होता है। यदि उस विशेष संगठन को समाज के अधिकतर लोगों का समर्थन और सहयोग मिलता है तो उस संगठन को समाज का मुखिया और गर्जियन समझा जाता है। ऐसे में उस संगठन की पवित्रता को बचाए रखने की हर संभव कोशिश की जाती है। ऐसे संगठन के सर्वोच्‍च स्‍तर पर लिए गए निर्णयों को लोग सामाजिक लोकनिर्णय के रूप में लेते हैं। संगठन की सर्वोच्‍चता और पवित्रता बनी रही, इसके लिए उस संगठन के पक्ष और नाम पर कोई भी ऐसा निर्णय और चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं की जा‍ती है जिससे की सामाजिक हैसियत, संरचना और भविष्य पर कोई आंच आए।

विश्‍व स्‍तर पर कार्यरत मिशनरी संस्‍थाऍं, आरएसएस, आर्यसमाज आदि ऐसी संस्‍थाऍं हैं, जहॉं मौसमी अथवा अस्‍थायी और विवादस्‍पद विषयों पर सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं की जाती है न ही इन संस्‍थाओं को राजनीति जैसी नैतिकता‍विहीन, सिद्धांतविहीन मामलों में घसीटा जाता है।  राजनीति से इन संगठनों के कर्ताधर्ता दूर नहीं रहते हैं, लेकिन वे इसके लिए परोक्ष रूप से अन्‍य संगठन खड़ी करते हैं और दूसरे संस्‍थाओं और संगठनों के द्वारा राजनीति के खेल खेलते हैं।

विकास परिषद के नेतागण दूरदृष्टिसंपन्‍न होते तो इस तरह की संगठन पहले ही बना चुके होते। यदि वे ऐसी संगठन चाह कर भी नहीं बना पाए हैं तो वे धीरज से काम लेते। खुद चुनाव में शामिल नहीं होकर दूसरी राजनैतिक पार्टियों को अपने एजेंडे उठाने के लिए न सिर्फ कहते, बल्कि उनके उम्‍मीदवारों  के चयन में भी अपनी पकड़ बनाते। इससे आदिवासी वोट सही सलामत तो रहता ही, सही और योग्‍य उम्‍मीदवार भी चुन कर आते। आदिवासी मुद्दों को दूसरी पार्टियों के एजेंडे में शामिल कराना एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव होता। फिर कोई भी पार्टी चुनाव जीतते  इससे कोई फर्क नहीं आता बल्कि आदिवासी मुद्दे मुख्‍य धारा में आकर प्राथमिकता पाते। मुख्य बात किसी को पाँच वर्षीय नेता बनाना नहीं, बल्कि लम्बी आदिवासी हितों की रक्षा करना है।

परिषद के नेतृत्‍व की राजनैतिक समझ कितनी विकसित है यह उस घटना से साबित होता है कि उन्‍होंने कांग्रेस नेता श्री प्रणव मुखर्जी के इस बयान को मान लिया कि चुनावी आचार संहिता के लागू हो जाने के कारण कांग्रेस डुवार्स–तराई में छटवीं अनुसूची के लिए कोई घोषणा नहीं कर सकती। चुनाव आचार संहिता सरकार पर लागू होती है न कि किसी राजनैतिक पार्टी पर, भले ही वह सत्‍तारूढ पार्टी हो । राजनैतिक पार्टियॉं तो चुनाव के मौसम में ही सबसे अधिक वादे और घोषणा करती है। जब चुनाव के मौसम में ही कांग्रेसी नेता परिषद को गुमराह करने में कामयाब रहे तो चुनाव के बाद उनका रवैया क्‍या रहेगा सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है।

आदिवासी विकास परिषद छटवीं अनुसूची के लिए यदि सरकार से विधिवत मांग करता तो वह राष्‍ट्रपति के पास जाता न कि प्रणव मुखर्जी के पास,  पश्चिम बंगाल के कांग्रेसी नेता प्रणव मुखर्जी के पास जाकर क्‍या मिलेगा ? परिषद के नेताओं ने कभी भी जनता को छटवीं अनुसूची और पॉंचवी अनुसूची के बीच फर्क नहीं बताया। उनकी खुद की संवैधानिक धाराओं के बारे समझ कितनी है यह अभी तक स्‍पष्‍ट नहीं हुई है।

अब तक के घटनाक्रम को देखने पर तो यही लगता है कि आदिवासी विकास परिषद चुनावी दलदल में पहले से ही उतरने का मन बना चुका था। लेकिन उनके पास राजनीतिज्ञ अथवा राजनैतिक चतुरता उपलब्‍ध नहीं है, इसीलिए वह चतुरतापूर्वक कोई कारगर रणनीति नहीं अपना सका। डुवार्स में चुनाव लड़ रहे किसी भी पार्टी ने आदिवासी विकास परिषद के किसी भी मांगों को गंभीरतापूर्वक अपनी पार्टी के खाते में शामिल करने की कोई घोषणा नहीं की है। जबकि डुवार्स तराई में आदिवासी मतदाता अधिक हैं और उनमें आदिवासी विकास परिषद का प्रभाव भी अधिक है। आदिवासी मतदाताओं को लुभाने की कोई कोशिश्‍ पार्टियों द्वारा नहीं किए जाने का एक मतलब यह भी है कि राजनैतिक पार्टियॉं आदिवासी विकास परिषद के तमाम मांगों के बारे लापरवाही भरा रवैया रखते हैं। यदि आदिवासी विकास परिषद का नेतृत्‍व सजग होता तो सारी पार्टियॉं आज सिर्फ आदिवासी मांगों के बारे ही अलाप कर रहे होते।

आदिवासी विकास परिषद समाज में अपनी भूमिका को लेकर अभी भी भ्रम में है। उसे यही पता नहीं है यहॉं ऐतिहासिक भूमिका निभाना है या चुनावी मौसमी भूमिका। कभी वह कुछ दिनों के मेहमान रहे वाममोर्चा नेताओं और सरकार के दरबारों में हाजिरी देते रहे तो कभी गिनती के दिन गिन रहे मुख्‍यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के सामने उनके ही आम सभा में अपनी मांगे रखते हैं, फिर चुनाव की घोषणा होते ही कांग्रेस के नेताओं से गलबहियॉं करते हैं। लेकिन दिल्‍ली से वापस आकर कहते हैं कि यदि तृणमूल कांग्रेस अपना उम्‍मीदवार डुवार्स में उतारेगी तो वह कांग्रेस से नाता तोड लेगा। सामाजिक मुद्दों पर कोई सिद्धांत का खुलासा कभी नहीं किया। सामाजिक से ज्यादा राजनीति की बातों में ज्यादा रूचि दिखाता रहा।आदिवासी समाज का एकमात्र–एकछत्र नेतृत्‍व देने का दावा करने वाले परिषद में कब किस तरह की बातें की जाएगी शायद कोई नहीं जानता है। अब तक तो परिषद को इसलिए ज्‍यादा जाना जाता है कि वह आदिवासी मुद्दों से अधिक गोर्खा विरोध में व्‍यस्‍त रहता है और वाममोर्चा तथा अमराबंगाली और बंगला भाषा बचाओं संगठनों के साथ समन्‍वय  रख कर अपना कार्यक्रम चलाते रहता है।

गिरगिट की तरह रंग बदल कर एक विचारहीन–अदूरदर्शी नेतृत्‍व एक समाज का कैसा बंटाधार करता है यह डुवार्स तराई के वादियों में चल रहे स्‍वार्थी खेल को देख कर सहज ही पता लगाया जा सकता है।

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