उत्तर बंग विश्वविद्यालय का द्वितीय कैंपस जलपाईगुडी इंजीनियरिंग कालेज के बगल में बनाया जा रहा है। उत्तर बंग विश्वविद्यालय (एनबीयू) के कुलपति अरूनाभ बसुमजूमदार ने जलपाईगुडी में द्वितीय कैंपस के उदघाटन के अवसर पर घोषणा करते हुए कहा कि द्वितीय कैंपस में विश्वविद्यालय के आठ नये पाठ्यक्रमों यथा गणित–एमएससी, हिन्दी-एमए, सिविल इंजीनियरिंग व तकनीकी-एमएससी, पर्यावरण विज्ञान, फुड व न्युट्रिशियन, इलेक्ट्रनिक भूविज्ञान में एमएससी समेत और भी अन्य विषय पढ़ाये जायेंगे। विश्वविद्यालय के पदाधिकारियों ने यह भी कहा है कि डुवार्स और तराई के आदिवासियों के द्वारा हिन्दी माध्यम में पढाई की मांग की जा रही है जिसे देखते हुए द्वितीय कैंपस में हिन्दी में एमए की पढाई शुरू की जाएगी।
आमतौर से इस तरह की घोषणाओं का मुक्त कंठ से स्वागत किया जाता है और इसका भी किया जाना चाहिए। भले देर आए दुरूस्त आए। हिन्दी में एमए की पढाई का स्वागत है। एनबीयू के पदाधिकारियों को धन्यवाद।
तथापि कई परत इस घोषणा के अन्दर छुपे हैं जिसे विश्वविद्यालय द्वारा स्पष्ट किया जाना चाहिए। तभी इस तरह की घोषणाओं में सच्ची शिक्षा सुधारों और विकास की भावनाओं की झलक मिलेगी।
यह सर्वविदित है कि नये पाठ्यक्रमों और विषयों की घोषणा करना विश्वविद्यालय प्रशासन तथा विद्वत परिषद् का स्वाधिकार है। उनके इस अधिकार के उपर सिर्फ राज्य सरकार और कुलाधिपति अर्थात् राज्यपाल हैं, जो सम्मिलित रूप से राज्य और इसके नागरिकों के विकास के लिए नैतिक, सामाजिक और संवैधानिक रूप से जिम्मेदारी ग्रहण करते हैं। राज्य के सर्वांगीण विकास और कल्याण करने का सर्वोच्च जिम्मेदारी, अधिकार और सर्वविवेक राज्य सरकार का होता है। उत्तर बंगाल के 6 जिलों में उच्चशिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को फैलाने के लिए 1962 में एनबीयू को स्थापित किया गया था। अपने अधिकारक्षेत्र की जनता को विश्वविद्यालय कितना उच्चशिक्षा दे पाया है यह एक अलग ही अध्ययन का विषय है।
अक्सर विश्वविद्यालय अपने प्रशासकीय क्षेत्राधिकार के अन्दर समाए अंचल की जनता की शिक्षण आवश्यकता तथा आकांक्षाओं के अनुरूप अपने कार्यक्रम, विषय, भाषा, पाठ्यक्रम, कालेज, संस्थान आदि तय करता है। विश्वविद्यालय की वित्तीय सेहत भी अंचल की जनता के जनसंख्या के आधार पर बनाए जाते हैं। विश्वविद्यालय को राज्य का और यूजीसी के माध्यम से केन्द्र सरकार का भी वित्तपोषण प्राप्त होता है। उत्तर बंगाल में बंगला, हिन्दी, नेपाली, उर्दू आदि प्रमुख भाषाऍं बोली जाती हैं और इसी के अनुसार बंगला, नेपाली उर्दू आदि भाषाओं में विश्वविद्यालयी अध्यापन और अध्ययन के प्रावधान बनाए गए हैं। लेकिन संविधान की धारा 343 में केन्द्र सरकार की भाषा बनी हिन्दी को विश्वविद्यालयी स्तर की भाषा बनने से वंचित किया गया। यह किन विचारों और भावनाओं से प्रेरित होकर किया गया, इस पर न जाकर भी यह कहा जा सकता है कि यह देश में लागू किए गए त्रिभाषा फमूर्ला के विपरीत उठाया गया कदम था। यह कदम समग्र रूप से विशाल और संख्याबद्व समुदायों के लिए अनुचित, पक्षपाती और अन्यायपूर्ण था और अब भी है। उत्तर बंगाल के लाखों बच्चे हिन्दी के माध्यम से उच्च माध्यमिक स्तर तक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं लेकिन उन्हें स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर की परीक्षाओं में हिन्दी में प्रश्नोत्तर लिखने की सुविधाओं से दशकों तक वंचित किया गया। उन्हें स्नातक और स्नातकोत्तर की परीक्षाओं के लिए अंग्रेजी माध्यम का सहारा लेना पडता है। स्थिति की विद्रुपता और विडम्बना यह है कि हिन्दी माध्यम के कई दर्जन विद्यालय न सिर्फ राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं, बल्कि शिक्षकगण भी राज्य सरकार के वेतनभोगी हैं। हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले अधिकतर बच्चे डुवार्स और तराई के चाय बागानों के रहे हैं जिनके अभिभावक मजदूरी करके अपने बच्चों को पढाते हैं। मजदूरों के लिए बनाए गए प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं होने के कारण इन बच्चों की अंग्रेजी भाषा का ज्ञान स्तरीय नहीं होता है। फलत: हिन्दी माध्यम के बच्चे स्नातक और स्नातकोत्तर की परीक्षाऍं पास नहीं कर पाते हैं। यदि कुछ बच्चे पास कर भी लेते हैं तो भी उनके प्राप्तांक कम होने के कारण रोजगार के क्षेत्र में वे पिछड जाते हैं। पिछले कई दशकों से संविधान के तहत बने सरकार और सर्वहारा के नुमाईंदों के द्वारा हिन्दी माध्यम के बच्चों के साथ इस तरह का अन्याय और पक्षपात किया जा रहा है। लेकिन सर्वहारा के नाम पर चुनकर आए और संविधान की रक्षा करने के लिए शपथ लेने वाली सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। समस्या के समाधान के लिए तमाम तरह के आंदोलनों और मांगों को उचित माध्यम से प्रस्तुत करने पर भी वामफ्रंट के मंत्रियों ने हिन्दी के विद्यार्थियों के साथ हो रहे अन्याय को दूर करने का सार्वजनिक रूप से इन्कार करते रहे। जनता के नायक होने का दावा करने वाले नेतागण कैसे खलनायकी का काम करते रहे हैं इसकी बानगी शायद किसी भी लोकतांत्रिक शासन पद्वति और राज्य में नहीं मिलेगी। धुर वामपंथी होने का दावा करने वाले कैसे धुर दक्षिणपंथी विचारों से ओतप्रोत हो सकते हैं इसका यह एक ज्वलंत उदाहरण हैं।
उत्तर बंगाल में हिन्दी भाषा से सरोकार रखने वाली जनता की संख्या बहुत बडी है। आदिवासी समुदाय अपनी अलग आदिवासी भाषाऍं होने के बावजूद हिन्दी को सहज रूप से ग्रहण करते हैं और इसे शिक्षा के रूप में सरलता से स्वीकार करते हैं। इसीलिए आदिवासी समुदाय ने हिन्दी कालेजों की मांग रखी है। उत्तर बंग विश्वविद्यालय द्वारा एम ए हिन्दी एक विषय की शुरूआत की जा रही है। शिक्षा ही विकास का रामवाण है। आदिवासी जनता यदि शिक्षा की सहुलियत चाहती है तो किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का कर्तव्य बनता है कि वह उसके न्यायोचित मांग पर खुले मन से विचार करे और शिक्षण सुविधाऍं मुहैया कराऍं। उत्तर बंग विश्वविद्यालय और राज्य सरकार कितनी सच्ची भावना से आदिवासी विकास चाहती है, यह तो तब प्रकट होगी जब स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर में परीक्षाऍं लिखने के लिए हिन्दी को मान्यता दी जाएगी। हिन्दी में एमए करने की सुविधा को पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। अखिर हिन्दी में कितने बच्चे एमए करेंगे।
देश को आजादी बहुत मुश्किल से मिली थी। देश की आजादी पर सबका समान हक है। आजाद देश में सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा, यह आशा न सिर्फ की गई थी वरन इसे संविधान में मूल अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है। लेकिन उत्तर बंगाल में शैक्षणिक और आथिर्क रूप से कमजोर तबके के साथ लम्बे अरसे से किया जा रहा अन्याय और पक्षपात आजादी और समानता की भावना को जमीनी स्तर पर महसूस करने से रोक रही है। देश में भाषा के नाम पर किसी समुदाय को अलग-थलग करना और उन्हें अविकसित रखने के लिए शिक्षा सुविधाओं से वंचित रखना न सिर्फ प्रशासनिक अत्याचार है, बल्कि मानवता के नाम पर एक कलंक भी है। इसे किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता है। इस तरह की संकुचित दृष्टिकोण को जितनी जल्दी दूर कर लिया जाए वही अच्छा है। अन्यथा दशकों से दबा आक्रोश और असंतोष किस करवट लेगा और किस रूप में फूट पडेगा यह कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है। लेकिन इसकी गूंज दूर तक जाएगी और इसकी आंच से पूरी तंत्र झूलसेगी इतना तय है।