एक हाइड्रोजेल गोली करेगा पानी को साफ

वैज्ञानिकों ने एक ऐसी पद्धति का अविष्कार किया है, जिसके द्वारा नहीं पीने लायक पानी को साफ करके पीने लायक बनाया जा सकता है। यह अविष्कार एक गोली के रूप में विकसित की गई है। इस नव निर्मित हाइड्रोजेल टैबलेट दूषित पानी को तेजी से शुद्ध करके विश्व स्तर पर पीने की पानी की कमी को संभावित रूप से कम कर सकता है। यह एक हाइड्रोजेल टैबलेट है, जो जल शोधक के रूप में कार्य करता है। यह नदी के एक लीटर पानी को कीटाणुरहित कर सकता है। इस प्रक्रिया से यह एक घंटे या उससे कम समय में न पीने योग्य पीने को पीने लायक बना सकता है। यह बहु-कार्यात्मक हाइड्रोजेल टैबलेट उपयोग में आसान, अत्यधिक कुशल और संभावित रूप से बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए मापनीय है।

यह बहु-कार्यात्मक हाइड्रोजेल टैबलेट उपयोग में आसान, अत्यधिक कुशल और संभावित रूप से बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए मापनीय है।

लोग अक्सर पानी को शुद्ध करने के प्राथमिक तरीके के रूप में पानी को उबालते या करते हैं। हालांकि, प्रक्रिया समय और ऊर्जा लेने वाली है। साथ ही, इन प्रक्रियाओं के लिए कई संसाधनों के बिना दुनिया के कुछ हिस्सों में लोगों के लिए यह कर पाना भी संभव नहीं है।

विशेष हाइड्रोजेल 99.999% दक्षता के साथ बैक्टीरिया को बेअसर करने के लिए हाइड्रोजन पेरोक्साइड उत्पन्न करते हैं। सक्रिय कार्बन कणों के साथ, हाइड्रोजन पेरोक्साइड बैक्टीरिया के आवश्यक सेल घटकों पर हमला करता है और उनके चयापचय को बाधित करता है।

हाइड्रोजेल गोली

ऑस्टिन में टेक्सास विश्वविद्यालय के इंजीनियरों द्वारा विकसित एक हाइड्रोजेल टैबलेट एक घंटे या उससे कम समय में नदी के एक लीटर पानी को शुद्ध कर सकता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा इनपुट की आवश्यकता नहीं होती है। यह हानिकारक उप-उत्पाद भी उत्पन्न नहीं करता है। जल शोधन के बाद, हाइड्रोजेल को आसानी से हटाया जा सकता है क्योंकि यह कोई अवशेष नहीं छोड़ता है।

मैककेटा डिपार्टमेंट ऑफ केमिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर कीथ जॉनस्टन, जिन्होंने परियोजना का सह-नेतृत्व किया, ने कहा, “एक अत्यधिक सतर्क और होशियार स्नातक छात्र, यंग गुओ ने इन हाइड्रोजेल को अप्रत्याशित रूप से कुछ और करते हुए खोजा, यानी सूरज की रोशनी के साथ पानी का शुद्धिकरण।” एक गोली नदी के एक लीटर पानी को कीटाणुरहित कर सकती है और इसे एक घंटे या उससे कम समय में पीने के लिए उपयुक्त बना सकती है। पानी के शुद्धिकरण के अलावा, हाइड्रोजेल टैबलेट सौर आसवन नामक एक प्रक्रिया में भी सुधार कर सकता है।

टी टूरिज्म चाय मजदूरों के लिए बर्बादी का पैगाम

नेह इंदवार
🎄🌿🍀Kind Attention #Dooars_Terai
लेख लम्बी है, लेकिन चाय मजदूरों और उनके लिए काम करने वालों के लिए महत्वपूर्ण है।
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भूमिहीन चाय मजदूरों को अपने आवासीय पट्टा देने के बजाय, टी ट्यूरिज्म के नाम पर पश्चिम बंगाल सरकार के द्वारा 150 एकड़ तक बागान भूमि को चाय बागान मालिकों को देने की नीति का घोषणा चाय मजदूरों के लिए अत्यंत अन्यायकारी है। इसका दूरगामी प्रभाव होगा और जो जमीन को मजदूर अपनी माँ समझते आए हैं वहाँ उनके लिए भविष्य में कोई ठौर -ठिकाना नहीं होगा।
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सरकार के इस कदम से चाय मजदूरों को एक नये पैसा का लाभ नहीं मिलेगा, बल्कि उनके शोषण का दायरा बढ़ जाएगा और चाय बागानों में बाहरी उच्च प्रशिक्षित आबादी बढ़ जाएगी, जिनकी आय चाय बागान मजदूरों से सैकड़ों गुणा ज्यादा होगी, और वे आर्थिक शोषण के बल कर बागानियार लोगों के सर्वेसर्वा बन जाएँगे। सरकार के नये कदम से मजदूरों को चाय बागान में मजदूरी करने के बजाय़ पर्यटकों की खिदमदगिरी करनी होगी और वे होटल में काम करने वाले घरेलू नौकर के रूप में तब्दिल हो जाएँगे। इस नीति के माध्यम से चाय बागानियारों को अल्पसंख्यक बनाने और बागानों से विस्थापित करने की पृष्टभूमि तैयार की जा रही है। इसी षड़यंत्र के तहत मजदूरों की मजदूरी नहीं बढ़ाई जा रही है और न ही उन्हें आवासीय पट्टा दी जा रही है।
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आईए देखते हैं सरकार की नयी नीति में क्या-क्या संभावित तब्दिली होने की संभावना है।
1. 🍀चाय बागानों के कुल क्षेत्रफल में अब 5 प्रतिशत की जगह 15 प्रतिशत भूमि पर चाय के अलावा अन्य वाणिज्यिक कार्यकलाप किए जा सकेंगे। यह कदम इसलिए उठाया गया है ताकि चाय उत्पादन के बढ़ते उत्पादन खर्च की भरपाई अन्य स्रोत से होने वाली आय से की जा सके।
2. 🍀सरकार ने चाय बागान की आय में वृद्धि करने और नये रोजगार के सृजन के लिए यह कदम उठाया है।
3. 🍀चाय बागान प्रबंधन को इसके लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनाई गई एक समिति के पास आवेदन करना होगा, और समिति पर्यटन संबंधित कुछ नियम और शर्तों को पूरा करने की शर्त पर चाय बागान प्रबंधन को 15 प्रतिशत भूमि को अन्य कार्य में उपयोग करने के लिए अनुमति देगी।
4. 🍀चाय बागान अधिकतम 15 प्रतिशत भूमि को ही चाय पर्यटन के लिए उपयोग कर पाएँगे। लेकिन बागान इसके लिए चाय पौधों को नहीं उखाड़ पाएंगे और सिर्फ ऐसे जमीन का ही उपयोग करेगा, जो अब तक परती (unused) पड़ी हुई है। इसके अलावा बागान को परती जमीन के सिर्फ 40 प्रतिशत भाग पर ही विनिर्माण (Constructions) कार्य करने की अनुमति होगी।
5. 🍀चूँकि भूमि सरकार की स्वामित्व में है और कंपनी को लीज पर दी गई है, इसलिए जब तक सरकार भूमि के चरित्र (Character of the land) में परिवर्तिन करने की अनुमित नहीं देगी, पर्यटन परियोजना को शुरू नहीं की जा सकेगी।
6. 🍀तृत्रमूल कांग्रेस की सरकार ने 2013 में चाय बागान में 5 प्रतिशत भूमि में टी टूरिज्म की अनुमित दी थी। लेकिन चाय बागान मालिक अधिक क्षेत्रफल में चाय पर्यटन के लिए अनुमित की मांग कर रहे थे। इसलिए सरकार ने यह कदम उठाया। सरकार मानती है कि यह कदम रूग्ण होते चाय उद्योग में नया जीवन का संचार करेगा।
7.🍀इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए राज्य के वाणिज्य मंत्रालय और उद्योग मंत्रालय नोडल मंत्रालय के रूप में कार्य करेंगे। इच्छुक चाय बागान टी टूरिज्म के लिए इन मंत्रालयों में आवेदन करेंगे, जिसे मूल्यांकन के बाद मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली समिति को भेज दी जाएगी। इस समिति में पर्यावरण मंत्रालय, कृषि मंत्रालय और टी बोर्ड के प्रतिनिधि भी शामिल रहेंगे।
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फिलहाल उपरोक्त बातें कानूनी रूप से परिदृष्य में नहीं आया है। लेकिन उपरोक्त बातों से स्पष्ट हो गया है कि सरकार का सारा ध्यान चाय बागान मालिकों के आर्थिक विकास करने और उनका स्थायी उपनिवेश स्थापित करने में है। सरकार की नजर में 150 वर्षों से रह रहे चाय मजदूरों के चाय बागानों में आवासीय अधिकार होने के दावों और मांग के बारे कोई मूल्य नहीं है वे उन अधिकारों के बारे न तो सोचना चाहती है और न ही मजदूरों के हक की बात को स्वीकार करती है। भले ही इन चाय बागानों को उनके पूर्वजों ने अपने हाड़ मांस गला कर सजाया संवारा है और उसे अपना माना है।
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सरकार, सरकारी नेताओं, बाबुओं को वित्तीय पोषण करने वाले पूँजीवादियों को चाय बागान में स्थायी राजत्व, जमींदारी देने के लिए कमर कस ली है और वे चाय बागान के मजदूरों को धीरे-धीरे चाय बागानों से विस्थापित करने का प्लान लेकर चल रही है।
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तृणमूल की सरकार ने 2013 में ही चाय बागान की कुल भूमि में से 5 प्रतिशत जमीन टी टूरिज्म के लिए अनुमति दी थी। इस अनुमति का कितने चाय बागानों ने लाभ उठाया ? टी बोर्ड के एक रिपोर्ट के अनुसार 8 से 100 हेक्टर वाले चाय बागानों की संख्या 14 बागान है। 100 से 200 हेक्टर वाले चाय बागानों की संख्या 13 है। 200 से 400 हेक्टर वाले चाय बागानों की संख्या 47 है जबकि 83 चाय बागानों के पास 400 हेक्टर से अधिक जमीन है। 400 हेक्टर वाले चाय बागानों में 15 प्रतिशत भूमि करीब 60 हेक्टर होता है।
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सरकार बताए कि इतने बड़े क्षेत्र में डुवार्स तराई या दार्जिलिंग के पहाड़ी क्षेत्रों में कितने लोगों की क्षमता वाले पर्यटन केन्द्र बनेंगे। 60 हेक्टर का मतलब 148 एकड़ या 444 बीघा जमीन होता है। क्या चाय बागानों के पर्यटन के लिए 444 बीघे जमीन की आवश्यकता है ? सीधे-सीधे जमीन हथिया कर किसी दूसरे काम के लिए रास्ता तैयार करने का यह कदम है।
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डुवार्स तराई में चल रहे प्रोजेक्ट चाय बागानों, बस्तियों तथा गोरूमारा, मदारीहाट, जयंती, चिलापाता आदि जगहों में एक बीघा जमीन पर Home stay accommodations बना कर पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है वहीं चाय बागानों में सरकार एक छोटे शहर बनने जितने बड़ी भूमि को इसके लिए दरवाजा खोल रही है। क्या सरकार पागल हो गई है या मजदूरों को खत्म करने का कोई प्लान है?
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क्या सरकार ने 2013 को दी गई अनुमति और उस पर हुए पर्यटन संबंधी नीति की कोई समीक्षा की है? यदि की है तो उसे वह सार्वजनिक बहस के लिए सामने रखे। यदि उन्होंने नहीं की है तो वह बताए कि किस आधार पर उनसे नई नीति की घोषणा की है ?
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सरकार की नीति में चाय टूरिज्म के लिए ऐसी भूमि का उपयोग किया जाएगा, जो परती या unused है। लेकिन सरकारी नियम यह भी कहता है कि जिस सरकारी भूमि को जिस घोषित उद्देश्य के लिए आबंटित की गई है, यदि पाँच वर्ष तक लगातार उसका उपयोग नहीं किया जाता है तो उस जमीन की लीज अनुमति अपने आप खत्म हो जाती है।
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अब सरकार बताए कि जिस जमीन पर पिछले सौ साल में चाय बागान नहीं लगाया गया है, वह कैसे बागान के लीज स्वामित्व में मौजूद होगा ? पाँच वर्ष के बाद ही बागान की स्वामित्व उस जमीन से खत्म हो गई है तो वह कैसे उस जमीन का उपयोग पर्यटन के लिए कर सकती है?
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अनेक चाय बागान की लीज तो किसी और के नाम पर है और बागान कोई और चला रहा है। ऐसे में सरकार की नीति क्या होगी ? अनेक चाय बागान लीज सलामी का भूगतान किए ही बागान संचालित किए जा रहे हैं, ऐसे बागानों की कानूनी स्टेट्स क्या है ? क्या बागान में मजदूरी से वंचित करके मजदूरों को पलायन के लिए मजबूर करके हड़पी जमीन पर पर्यटन उद्योग के लिए विनिर्माण कार्य किए जाएँगे ?
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सरकार की मनसा सच्ची होती तो वह टी टूरिज्म के बजाय चाय बागानों में होर्टिकल्चर की अनुमति देने के लिए कदम बढ़ाती। होर्टिकल्चर के माध्यम से चाय बागानों की कायापलट की जा सकती है। चाय उद्योग कृषि जनित कार्यकलाप है ओर होर्टिकल्चर का विकास चाय बागानों में सफलता पूर्वक किया जा सकता है। मजदूर होर्टिकल्चर के बागानों में उसी तरह कार्य कर सकते हैं, जैसे वे चाय बागानों में करते हैं। लेकिन पर्यटन उद्योग का चरित्र ही कृषि कार्यों के उलट है और इसके लिए अलग चाल-चरित्र की जरूरत होती है।
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आखिर पर्यटन उद्योग को क्यों सरकार चाय उद्योग के हवाले करना चाहती है? क्या इसलिए कि चाय उद्योगपति सत्ताधारी पार्टी को अरबों का चंदा देते हैं? एक पूर्वगामी उद्य़ोग और एक पश्चिमगामी, पूरे विरोधी चाल-चरित्र के उद्योगों को क्यों डुवार्स तराई और दार्जिलिंग के हरित क्षेत्रों में सरकार मिलाना चाहती है? सरकार ने टी टूरिज्म के लिए कोई नीति की घोषणा कानून बना कर नहीं की है, बल्कि एक समिति के हवाले से इस नीति को लागू करने की मंशा बनाई है। यह मंशा ही अपने आप में बड़े झोल होने का संकेत कर रहा है। ऐसा लगता है जो सरकारी पक्ष और नेताओं का झोला भरेगा, उसे ही यह अनुमित प्राप्त होगी और जो नहीं भरेगा, उसके आवेदन को कचरे की पेटी में फेंक दी जाएगी।
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एक बार जमीन हथिया कर उसमें टूरिज्म उद्योग स्थापित नहीं करके फिर से किसी अन्य उद्योग के उपयोग की अनुमति ली जाएगी और स्थानीय वासियों को वहाँ से भगाया जाएगा। क्योंकि उनके पास नये उद्योग के लिए skills नहीं होगी और वे नये उद्योग के लिए अनफिट हो जाएँगे। देश के अनेक भागों में यह हो चुका है।
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सरकार बताए कि टी टूरिज्म का आकार-प्रकार और उसके वाणिज्यिक कार्यकलाप का क्षेत्र क्या होगा ? वह चाय बागान कंपनी के अधीन ही चाय उत्पादन का एक अंग होगा, या उसके लिए अलग कंपनी बनाई जाएगी और पर्यटन में दक्ष कंपनियों को उसके संचालिन के लिए बुलाया जाएगा ? उसके लिए अलग से प्रशिक्षित कर्मचारी नियोग किए जाएँगे ? पर्यटन उद्योग से प्राप्त आय को बागान के आय के रूप में शामिल किया जाएगा, या उसके लाभ-हानि का अलग से एकाउण्ट बनाया जाएगा और उसके हिसाब-किताब को अलग से रखा जाएगा और उसके वेतनमान पर्यटन उद्योग के अनुसार तय किया जाएगा ?
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सरकार नये रोजगार उत्पन्न करना चाहती है। वह बताए कि इस नीति से किनके लिए रोजगार का सृजन होगा ? पर्यटन उद्योग में Tourism Management किए हुए लोगों की जरूरत होती है। बागान मजदूर इसके लिए कितने पात्रता रखते हैं ? सैकड़ों सवाल है। लेकिन इन सवालों को कौन राजनैतिक पार्टी या मजदूर संघ उठाएगा ? क्या सरकार इन सवालों का जवाब भी देगी ?
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यदि चाय उद्योग के आर्थिक पक्ष की सरकार को बहुत चिंता है तो वह बताए कि उसे मजदूरों के आर्थिक पक्ष की चिंता है या नहीं ? आखिर वह क्यों मजदूरों को आवासीय पट्टा या प्रजा पट्टा नहीं दे रही है ? यदि वह मजदूरों को आवासीय पट्टा देगी तो क्या मजदूर मिल कर Home Stay Accommodation नहीं चला सकते हैं ? सरकार की चिंता मजदूरों के सशक्तिकरण की नहीं है, बल्कि वह पूँजीपतियों के Empowerment की चिंता अधिक कर रही है? आखिर इसकी मूल वजहें क्या है ? नेह इंद।

चोंचलेबाज धर्म

नेह इंदवार

• धर्म के चोंचलेबाजी खोखले विचारों ने सदियों से मनुष्य के सोचने की स्वभाविक प्राकृतिक शक्ति को तहस-नहस करके रख दिया है। मनुष्य को यह कृत्रिमता की गहरे खड्डे में फेंक देता है और बड़ी अजीबोगरीब व्यवहार करने के लिए मजबूर करता है।
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किसी को यह पूरब की ओर मुँह रखने को कहता है तो किसी को पश्चिम की ओर। किसी को दाड़ी मूँछ रखने के लिए कहता है तो किसी को मूँछ निकाल कर सिर्फ दाड़ी रखने के लिए कहता है। किसी को यह बडे़-बडे़ लबादा ओढने के लिए कहता है तो किसी को भरे बाज़ार में भी नंगे रहने के लिए मजबूर करता है। किसी को गुरूवार को पवित्र काम करने को कहता है तो किसी को शुक्रवार को और किसी को रविवार। किसी को यह 12 बज कर 20 मिनट के बाद बड़ा काम शुरू करने के लिए कहता है तो किसी को रात को बाल काटने से मना करता है और सूरज ढलने के बाद खाना खाने से भी मना करता है। कोई-कोई धर्म तो पेशाब-पैखाना करने का भी नियम बना डाला है। किस दिशा में खड़े होकर या बैठ कर या सोते हुए प्राकृतिक कार्य न करें, इसका भी बड़े जतन से बखान किया है।
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धर्मोें में इतनी चोंचलीबाजी मौजूद है कि इस पर लिखने बैठो तो एक हजार पृष्ट के कुल साढे़ बीस खण्डों में एक नया धार्मिक (पवित्र 😝) पोथी ही तैयार हो जाएगा। गुमनामी निठल्लों को इतिहास में नया विश्व स्तरीय धर्म प्रवर्तक बनने के लिए यह एक धाँसू विषय है।
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• धार्मिक लोग (असली या नकली) इन चोंचलेबाजी बातों को ईश्वरीय आदेश मानते हैं। इन विविधता भरी आदेशों के मूल स्रोतों के बारे पूछो तो वे अलग अलग पृष्टभूमि में लिखे सैकड़ों पोथियों की ओर इशारा करते हैं। उनका विश्वास है कि इन पोथियों में जो भी लिखा है वह अंतिम सत्य है। यह अंतिम सत्य क्या होता है ?? पूछने पर उनका दिमाग बगले झांकने लगता है। दुनिया में उपलब्ध इन अलग अलग किताबों में एक बात अवश्य लिखी होती है और वह है “यह खुद ईश्वर द्वारा रचित है।” यही एक स्थायी वाक्य है जिसे धर्म के ठेकेदार खूब प्रचारित करते हैं और दुनिया के भोले-भाले लोगों के दिमाग में ठूँसते रहते हैं। लेकिन सवाल है कि ये ईश्वर हर किताब में अलग-अलग बातें लिख कर पूरी सभ्यता को कंफ्यूज करके कौन सा तीर मार लिया है ? हर किताब में एक ही विषय पर अलग-अलग बातें, अलग-अलग दावे और अलग-अलग परम सत्य। क्या प्रकृति की हर बातों या विषयों के अलग-अलग परम सत्य हो सकते हैं ? यदि ऐसा है तो इसका मतलब है, एक नहीं अनेक ईश्वर हैं और सारे ईश्वर एक दूसरे के घोर विरोधी हैं।
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• संसार में धार्मिक विविधता या चोंचलेबाजी की जमींदारी को अच्छुन्न बनाए रखने के लिए मनुष्य जाति ने पिछले कई हजार सालों से पृथ्वी के 50 प्रतिशत उर्जा और संसाधनों को इसमें झोंक दिया है। धर्म के नाम पर पृथ्वी के एक भी मनुष्येत्तर प्राणी ने एक केजी ऊर्जा और संसाधन का अपव्यय नहीं किया है। आज भी सबसे अधिक उर्जा और संसाधन इन्हीं खोखले धार्मिक विचारों के रक्षण में लगाए जा रहे हैं। जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ रहा है। किसी को किसी सब्जी के मसाले से दुश्मनी है तो किसी को खास मनुष्यों से नफरत और खास जानवरों से प्यार है।
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• धर्म ने मानव जाति को जितना बेवकूफ बनाया है, उतना और किसी ने नहीं। धार्मिक किताबों में लिखी तमाम रहस्यजनक समझे जाने वाली बातों के छिलके को विज्ञान एक एक करके उतार रहा है। अधिकतर का कचूमर निकाल ही दिया है। धार्मिक आदमी विज्ञान के इन छिलकों और कचूमर का सार्वजनिक उपयोग तो करता है लेकिन व्यक्तिगत दिमाग के अंदरूनी हिस्से पर काबिज़ धार्मिक मन उसे मानता नहीं।
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* वास्तव में धार्मिक मन और मनोवैज्ञानिक भावनाओं को जन्म और मृत्यु के रहस्यों के बंधनों से कस कर बाँध दिया गया है और तमाम करोडों वैज्ञानिक उपलब्धियों को देखते हुए भी तुरंत सिर घुमा कर नज़रों को धार्मिक बातों की ओर मोड़ लेता है। हर अनसुलझे रहस्य के लिए शुतुरमुर्गों की तरह धर्म की शरण में मुँह छुपा लेना और उसमें छिछले रूप से उसका कारण और उलजूलूल तर्क ढूँढना धर्म और असली-नकली धार्मिकों का शगल रहा है।
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• लेकिन विडंबना देखिए इन किताबों में हर रहस्य का ज्ञान होने के तमाम दावों के बाद भी आज तक कोई भी बड़बोले दावों को वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुरूप व्यावहारिक रूप में साबित नहीं कर पाया है। कुल मिला कर घुमा फिरा कर मानसिक शांति के चोंचेलबाजी विचारों की ओर बहस को खींच लिया जाता है। धार्मिक पोथियों के वजन को बढ़ाने के लिए समय समय पर उलटे सीधे दावे किए जाते रहते हैं। मानसिक अशांति के लिए दायी समस्याओं को खत्म करने की कोशिश करने के लिए प्रेरित करने के बजाय धार्मिक मनोविज्ञान धर्म में घुस कर मृगमरीचिकामयी शांति तलाशने के लिए निदेश देता है।

• कभी कहा जाता है कि इन किताबों में विमान बनाने की विधि लिखी हुई है तो कहीं पोथी में किसी बैनेरी तारे के किसी ग्रह में आत्माओं का अंतिम ठिकाना होने का दावा। अनेक बार लोगों को सरगोशी की आवाज में काले पीले, नीले या हरे रंग के जीवित ईश्वर होने की आशा बंधायी जाती है। मतलब धार्मिक गुलाम बनाने के नये नये उपाय किए जाते रहते हैं और इसका शिकार मानसिक रूप से पिछड़ा समाज सबसे अधिक होता है। क्योंकि उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सर्वदा अभाव रहता है। लकड़ी, पत्थर, मिट्टा की मूर्तियों, रोटी के टुकड़ों की प्राण प्रतिष्ठा करके उसे जीवित ईश्वर में बदला जाता है। लेकिन मृत व्यक्ति के शरीर में प्राण नहीं डाला जा सकता है। जबकि मृत शरीर के जी उठने की संभावना सबसे ज्यादा हो सकती है। यूएफओ, परग्रही एलियन की बातों को भी स्वर्ग से उतर कर आने वाले देवदूत, ईश्वर के रूप में चर्चा करके वैज्ञानिक विमर्श को ही उलटने की कोशिश इस वैज्ञानिक युग के दरमियान भी चालू ही है।
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• आज भी पुरानी पोथियों की पढ़ाई बद्दस्तूर चालू है। जितनी पढ़ाई इन किताबों की करते हैं, उतने ही धार्मिक चोंचलेबाजी के चक्कर में पड़ते जाते हैं। आज मनुष्य-मनुष्य के बीच जो लडाईयाँ चल रही और समाज में जो विभेद दिखाई देता है, उसकी चोंचलेबाजी पृष्टभूमि भी इन्हीं किताबों ने तैयार की है। संसार की आधी जनसंख्या इन्हीं किताबों की गुलामी करती है। इन किताबों के बाज़ार और धर्म के मुनाफा-जमींदारी-सिद्धांत ने आधुनिक राजनीति के न्याय सिद्धांत को मटियामेट कर दिया है। देश की अधिकांश जनता को राजनीति के नाम पर धार्मिक कायदों से गुलाम बना दिया गया है। धर्म के नाम पर पूरे क्षेत्र को और समुदाय को दुश्मन मान लिया जाता है। धर्म के आफीम से संचालित समुदाय इसे ही सामाजिक न्याय की राजनीति समझ लेता है। धार्मिक पोथियों की चालाकी से निकले चोंचलेबाजी की किरणें वहाँ-वहाँ तक पहुँचती है, जहाँ-जहाँ किसी कवि की कल्पना नहीं पहुँचाती है। धर्म के चोंचलेबाजी-कसरती कल्पना से धाँसू कवि और लेखक भी मात खा जाते हैं।
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• लेकिन चालाक लोग इन किताबों की गुलामी से खुद को मुक्त कर चुके हैं और इन किताबों का उपयोग सहज रूप से दूसरों के दिमाग को गुलाम बनाने के लिए उपकरण के रूप में कर रहे है। घाघ राजनीतिज्ञ इसी वर्ग के मनुष्य होते हैं। बाकी के चालाक लोग कौन हैं इसे जानने के लिए दिमाग के परतों को खोलने की जरूरत है। लेकिन दिमाग तब खुलेगा जब आदिम जमाने में लिखी किताबों से सोचने की शक्ति पर लगाया गया नियंत्रण को हटाया जाएगा। नहीं तो चोंचलेबाजी-सभ्यता अगली सदी में भी प्रमुख सभ्यता के रूप में जिंदा रहेगी। — नेह।

वर्चस्ववाद का शिकार आदिवासी समाज

नेह अर्जुन इंदवार

              आज आदिवासी समाज का बड़ा हिस्सा हर क्षेत्र में वर्चस्ववाद का शिकार हुआ दिखता है। देश में जहाँ कहीं भी आदिवासी समाज है वह दूसरे तथाकथित अगड़ी समाज के सांस्कृतिक, भाषाई, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक, जीवन दर्शन, विचारधारा के वर्चस्ववाद (नायकत्व) का शिकार बना हुआ है। उसका अपना मूल और मौलिक आदिवासीयत से परिपूर्ण नैसर्गिक मूल्य कहीं खो गया है या विलुप्ति के कगार पर है।

आदिवासी इलाकों से दूर विभिन्न कारणों से आदिवासी जहाँ कहीं भी रहता है,  दूसरे तथाकथित विकसित समाज की संस्कृति, भाषा, राजनीति, इतिहास का पिछलग्गु बन जाता है। वह जाने अनजाने तथाकथित रूप से शिक्षित होने के क्रम में दूसरे समाज के विचारों, व्यवहारों के वर्चस्व का शिकार हो जाता है, उसे वह आत्मसात कर लेता है और उसकी नकल भी करने लग जाता है।

आज अधिकतर शिक्षित आदिवासी परिवार अपने घरों में मातृभाषा के रूप में किसी अन्य समाज की भाषा का प्रयोग करता है। ऐसा करने में उसे ग्लानि का अनुभव नहीं होता है,क्योंकि वह मानसिक रूप से दूसरे समाज के वर्चस्ववाद को स्वीकार कर लिया है और उस वर्चस्ववाद को अपनी अगली पीढ़ी को भी पारिवारिक या सामाजिक विरासत के रूप में सौंप रहा है। यह वर्चस्ववाद किसी समाज की अपनी विशिष्ट पहचान को धीरे-धीरे हमेशा के लिए विलुप्त कर देता है। आज पूरे देश में आदिवासी समाज इसी वर्चस्ववाद का शिकार हो रहा है और विडंबना इस बात की है कि समाज का बड़ा और प्रभावशाली तबका इसे मानसिक रूप से स्वीकार कर लिया है।

यह वर्चस्ववाद क्या है? आईए पहले हम वर्चस्ववाद की परिभाषा को समझने का प्रयास करते हैं।

वर्चस्ववाद, आधिपत्य, नेतृत्व, नायकत्व, अंगे्रजी शब्द Hegemony का हिंदी रूपांतर है। इसका शब्दिक अर्थ आधिपत्य, प्राधान्य होता है। Hegemony is political or cultural dominance or authority over others.

इटली के माक्सवादी चिंतक अंतोनियो ग्राम्शी के अनुसार शासक या सत्तारूढ़ वर्ग अपने सोच-विचार, विश्वास, मान्यता, मूल्य, कल्पना, परंपरा, आदर्श को श्रेष्ठ सार्वभौमिक बता कर उसे प्रजा पर थोपता है। इसके लिए शासक या सत्तारूढ़ वर्ग शोषित के विरूद्ध हेरफेर और षड़यंत्र करता है, और उसे अपनी भाषा, संस्कृति अपनाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मजबूर करता है।

इस प्रक्रिया में शासक और प्रभु वर्ग शोषित समाज के मौलिक सोच-विचार, विश्वास, मूल्य, कल्पना-परिकल्पना, आदर्श, परंपरा, व्यवहार, भाषा, संस्कृति, राजनीति, अर्थनीति, रंग रूप और सामाजिक स्थिति को घटिया सिद्ध करने का प्रयास करता है और इसके लिए वह विभिन्न प्रकार के साम, दाम, भेद की नीति अपनाता है।

बहुल सांस्कृतिकवाद की जगह एकल सांस्कृतिकवाद के लक्षित प्रक्रिया को ग्राम्शी ने वर्चस्ववाद कहा है। स्थूल रूप से शक्तिशाली देश या राष्ट्र के द्वारा कमजोर देश या राष्ट्र पर धौंस को कूटनीति की भाषा में वर्चस्ववाद कहा जाता है। वर्तमान समय में पूरे संसार में अमेरिकी शक्ति की धौंस कमजोर देशों में चल रही है।

यह ध्यान देने की बात है कि बौद्धिक रूप से क्षमताहीन, साधनहीन वर्ग प्रभु वर्ग के षड़यंत्र को समझ नहीं पाता है और अपनी संस्कृति, भाषा और सामाजिक थाथी को प्रभु वर्ग द्वारा घटिया बताए जाने पर वह भी घटिया मान लेता है। इस प्रक्रिया में वह धीरे-धीरे प्रभु वर्ग की भाषा, संस्कृति, व्यवहार, मान्यता, विश्वास, मूल्य और इतिहास को अपना लेता है और उसका पिछलग्गु बन जाता है।

साधनहीन, अशिक्षित लोग जो साधारणता बौद्धिकतापूर्ण वैचारिक चर्चा से या तो अनजान होते हैं या फिर ऐसी चर्चा और चर्चा के माध्यम तक उनकी पहुँच नहीं होती है,  वे  सत्तारूढ़ वर्ग की चालाकी, सतत व्यवहार, प्रयास या षड़यंत्र को समझ नहीं पाते हैं और कालांतर में  अपनी सामाजिक, ऐतिहासिक, पारंपारिक मूल्यों को तिलांजलि देकर शासक वर्ग के मूल्य, विश्वास, आदर्श, मान्यता, व्यवहार सोच और दृष्टिकोण इत्यादि को अपना लेते हैं।

लेकिन पिछड़े समाज के शिक्षित जनों द्वारा इस तरह के वर्चस्ववाद का बढ़चढ़ कर स्वागत करना और उसे अपनाना शिक्षित समाज की चिंतनधारा पर प्रश्नचिन्ह् खड़ी करता है। इसे आदिवासी समाज के परिपेक्ष्य में गहराई से समझा जा सकता है।

आज आदिवासी समाज अपनी भाषा, परंपरा, विश्वास, मूल्य, मान्यताओं को छोड़ कर गैर-आदिवासी समाज में प्रचलित मूल्य और परंपराओं को अपना रहा है। यद्यपि अशिक्षित समाज अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से आज भी कमोबेश जुड़ा हुआ है, लेकिन आदिवासी मूल्य रहित शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिक्षित आदिवासी सबसे पहले अपने सामाजिक मूल्यों से पीछा छुड़ा लेता है। वह गैर आदिवासी भाषाओं को अपने घर की भाषा बना लेता है। चाल चलन, पर्व त्यौहार, तथा सामाजिक रूप से दूसरे समाज के सांस्कृतिक मूल्यों को अपने घर का स्थायी निवासी बना लेता है और अपने पारंपारिक मूल्यों को अपनी अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करने के बजाय  अपने बच्चों को गैर आदिवासी भाषाओं, मूल्यों से न सिर्फ परिचय कराता है बल्कि उसे अपने परिवार और वातावरण में गुंफित करने लग जाता है और नयी पीढ़ी सिर्फ शरीर, नाम, गोत्र और परिचय के लिए आदिवासी बना रहता है,  मानसिक और आत्मिक रूप से वह गैर-आदिवासी में परिवर्तित हो जाता है।

बच्चों को स्वार्थहीन आदिवासी सामाजिक मूल्यों को परोसने की जगह उनके नन्हे दिमाग में सामंतवादी, शोषणमूलक प्रतिस्पर्धात्मकपूर्ण जीवन मूल्यों को परोसा जाता है। जिसके कारण बच्चे अपने ही सामाजिक मूल्यों के प्रति हेय दृष्टि विकसित करते हैं और मानसिक रूप से एक समतापूर्ण सामाजिक मनुष्य की जगह एक कंपिटिटर मनुष्य बनते जाते हैं। यह कंपिटिटर मनुष्य सहअस्तित्व पर विश्वास नहीं करता है  वह जीवन को एक रेस के रूप में देखता है जहाँ उसे सिर्फ दौड़ना होता है, सबसे आगे निकलने के लिए। यह कंपिटिटर सामाजिक मूल्य का प्रतिफल है कि जीवन में अथाह संपत्ति और सफलता प्राप्त करने की मानसिकता लिए आदमी जीवन भर शांति और सुकून के लिए भटकता है।

आज हिंदी प्रांतों में शिक्षित आदिवासियों की घरेलू भाषा हिंदी हो गई है, वहीं बंगाल में लाखों परिवार घर में बंगला, नेपाली, असम में असमिया, उड़िसा में उड़िया, महाराष्ट्र में मराठी आदि बोलते हुए नजर आते हैं। घर के बाहर सामाजिक समागमों में भी आदिवासी गैर-आदिवासी भाषाओं का ही प्रयोग करते हैं और गैर-आदिवासियों से तो शत-प्रतिशत गैर आदिवासी भाषाओं में ही बातचीत करते हैं, भले आदिवासी दस हों और सामने सिर्फ एक गैर आदिवासी। ऐसी स्थिति शहरों में ही है ऐसी बात नहीं है, बल्कि आदिवासी बहुल क्षेत्र में भी यही स्थिति दृष्टिगत होती है।

आज शिक्षा लेने के क्रम में अधिकतर आदिवासी सिर्फ साक्षर हो रहे हैं, डिग्रीधारी बन रहे हैं, लेकिन शिक्षित नहीं हो पा रहे हैं। उन्हें गैरआदिवासी मूल्य, इतिहास, भाषा, संस्कृति पढ़ाया जा रहा है और वे साक्षर तथा शिक्षित होने के क्रम में आदिवासीयत से दूर होते जा रहे हैं। उनकी सोच और विश्वास में गैर आदिवासीयत मूल्य भरा जा रहा है। वे शिक्षा का उपयोग अपने सामाजिक सोच-विचार, विश्वास, मान्यता, मूल्य, कल्पना, परंपरा, आदर्श, व्यवहार, भाषा, इतिहास, संस्कृति, राजनीति, अर्थनीति और सामाजिक स्थिति को सुदृढ़ करने में नहीं कर रहे हैं या नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि इसके लिए उन्हें शिक्षा ही नहीं दी गई है । उन्हें गैर आदिवासी वातावरण में शिक्षा देने के क्रम में एक शिक्षित सामाजिक प्राणी बनाने की जगह  एक डिग्रीधारी, नौकरी के लिए उपयुक्त कौशल से युक्त प्राणी बनाया जा रहा है, अर्थात् उत्पादन प्रक्रिया में खपा कर काम करने वाला एक उपकरण-प्राणी। प्रभु और शोषक वर्ग का वर्चस्ववाद या आधिपत्यवाद कैसे काम करता है इसे जानने के लिए उपकरण के रूप में तैयार एक शिक्षित व्यक्ति का अध्ययन करके सहज ही जाना जा सकता है।

आदिवासी मूल्यों से रहित शिक्षित आदिवासी शिक्षा का उपयोग अपने समाज और सामाजिक थाती को सुदृढ़ करने में नहीं करता है, बल्कि उसे खोखला और जड़हीन बनाने के औजार के रूप में प्रयोग करता आ रहा है।

जब समाज में शिक्षा का सही प्रयोग बढ़ता है और उसका उपयोग सामाजिक जागरूकता को बढ़ाने, सामाजिक एकता को सुदृढ़ करने, तथा प्रतिकूल परिस्थतियों में संघर्ष करने में  किया जाता है तो उससे जागरूकता की एक नयी जमीन तैयार होती है। समाज में अपने मूल्यों के प्रति लोगों में नया विश्वास जगता है। अपनी संस्कृति के उच्चमूल्यों से समाज परिचित होता है और दूसरे शोषक या शासक वर्ग के सांस्कृतिक, भाषाई, राजनैतिक और आर्थिक वर्चस्व से समाज की रक्षा करने की चाहत पैदा होती है। समाज किसी अन्य समाज का पिछलग्गु नहीं बनता है बल्कि अपने जमीनी मूल्यों से एक सशक्त पहचान बनाता है और सभी तरह के शोषण, अत्याचार, भेदभाव, अन्याय से समाज सहज रूप से लड़ाई करता है। समाज में शिक्षितगण एक नौकरी की मशीनरी में प्रयोग होने वाले एक पुर्जे की तरह नहीं, बल्कि चेतनशील और सामाजिक रूप से अत्यंत सक्रिय कार्यशील बुद्धिजीवी की तरह कार्यरत्त होते हैं और वे बौद्धिकता के बल पर सामाजिक विकास के लिए अनिवार्य सभी परिस्थितियों का निर्माण अपने तई करते हैं।

आदिवासी भाषाएँ भारत की प्राचीनतम भाषाएँ हैं। तमाम आधुनिक भारतीय भाषाएँ,  आदिवासी भाषाओं के हजारों वर्षों बाद की पैदाइश हैं। आज संस्कृत और तमिल को क्लासिकल भाषा की पदवी से नवाजा गया है, लेकिन आदिवासी भाषाएँ तो आर्यों के आने के दसियों, हजारों वर्षों से पहले  से ही विद्यमान हैं।  कई हजार साल से लेकर पिछले सौ दो सौ वर्षों तक हमारे पूर्वजों ने इन भाषाओं को सहेज, समेट कर पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित बचा कर रखा। हमारा पूरा इतिहास, सामाजिक व्यवहार, संस्कृति, सामाजिक संपन्नता आदि तमाम जानकारियाँ इन्हीं भाषाओं में रच बस कर आधुनिक काल तक निर्झर पानी की तरह बहता रहा है।

लेकिन जैसे ही हम तथाकथित रूप से शिक्षित होने की प्रक्रिया में शामिल हुए, सबसे प्रथम भारी आघात हमने अपनी ही भाषा, सामाजिक परंपरा, धर्म और संस्कृति को लगाया और उसे नष्ट तथा मटियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। इतिहास में ऐसी विडंबनापूर्ण स्थिति और कहाँ होगी ?? अपने ही सामाजिक प्राचीन थाथी का हत्यारा होने के आरोप से शिक्षित और तथाकथित रूप से विकसित आदिवासी कैसे इंकार कर सकता है ?? आधुनिक शिक्षा और ज्ञान अपनी ही विरासत का हत्यारा निकला। वर्चस्ववाद का शिकार हुए हमारे विशाल सामाजिक और सांस्कृतिक अट्टालिकाओं का भग्नावशेष भी हम बचा कर रख पाने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। कैसी है हमारी शिक्षा और क्या है इसका लक्ष्य ??

आदिवासी समाज अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक अस्मिता के लिए अलग ही पहचाना जाता है। समाज में महिलाओं को बराबरी का दर्जा और स्वतंत्रता हासिल है। समाज में शोषक वर्ग का कहीं उदय नहीं हुआ और ऊँच नीच का कोई स्थान नहीं । अमीर और गरीब में रोटी बेटी का रिश्ता नयी बात नहीं है। समाज सामूहिकता में विश्वास रखता है, खेत-खलिहान सामूहिक मिल्कियत का होता है। खेती करने वाला सिर्फ तत्कालिक मालिक होता है। अपने अधिक भूमि या संसाधन को आदिवासी दूसरे के शोषण के लिए इस्तेमाल नहीं करता है।

आदिवासी नृत्य और संगीत प्रेमी होते हैं। हर मौसम, पर्व-त्यौहार,शादी- विवाह या सुख-दुख के लिए पारंपारिक नृत्य और गीत अलग-अलग होते हैं। सिसई के एक गाँव तथा राउरकेला के नजदीक एक गाँव की शादी में मैंने करीबन बारह तरह के नृत्य-गीत और उसी के अनुसार अलग ढंग से ढोल- नगाड़े की आवाज को देखा और सुना। शादी के नेग दस्तुर में प्राकृतिक पूजन की विविधता, मनोरंजन के अनेक रंग व्याप्त देखा। वहीं जलपाईगुड़ी और असम के कुछ भागों में मैंने सरना शादी में दुल्हा-दुल्हन को राजा-महाराजाओं की तरह मुकुट पहन कर शादी करते देखा। कई चर्च शादी में जिंदगी भर कोट-पैंट की शक्ल नहीं देखने वाले शख्स को कोट-पैंट और टाई पहने शादी करते देखा। इन शादियों  में  सिर्फ एक ही धुन पर ढाँक  बजते और एक ही प्रकार से नाचते लोगों को देख कर सहज ही नृत्य-गीत-संगीत में बाहरी प्रभाव या वर्चस्व को महसूस किया जा सकता है। अब तो अनेक जगहों में शादी-विवाह या अन्य त्यौहारों में गैर आदिवासियों के “रप्टा” बाजा को आमंत्रित करते हुए सहज ही देखा जा सकता है।

कई आदिवासी फिल्में देखी, हर फिल्म में हिंदी फिल्मों की भौंडी नकल ही देखने को मिली। सृजनात्मक सोच में भी जब वर्चस्ववाद की लकीरें दिखाई देती है तो मौलिक सोच के बारे चिंता होना स्वाभाविक ही है।

दुनिया में हर समाज भौतिक विकास कर रहा है, लेकिन अपनी भाषा, अस्मिता, परंपरा, सोच, सामाजिक व्यवहार को तिलांजलि देकर नहीं। इजरायल जैसे देश भी है, जो हजारों वर्ष पूर्व विलुप्त हुए अपनी भाषा को पुनर्जीवित करके आज वैज्ञानिक प्रगति का लोहा सबको मानवा लिया है। तेजी से क्षयग्रस्त होते आदिवासी भाषाओं, पहचान, संस्कृति, खेल-खलिहान को बचाने की कोशिश की जाए तो हम जरूर कामयाब होंगे। लेकिन तब, जब हम इजरायली लोगों की तरह ही  समर्पित और दृढ़निश्चियी  होंगे।

आज आदिवासी समाज में सतत सक्रिय बुद्धिजीवियों का अभाव है तो उसका कारण पिछले सौ वर्षों में दूसरे समाज के वर्चस्ववाद का शिकार होना ही है। समाज में साक्षर होने की प्रक्रिया जारी रही, अनेक स्कूल, कालेजों में, जिनकी स्थापना तीस चालीस के दशक में हुई, आदिवासी समाज से शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या बढ़ती रही। लेकिन समाज में मौजूद तुलनात्मक रूप से उच्च और मूल्यवान मूल्यों को बचा कर रखने के लिए शिक्षितों का कोई समूह आगे नहीं आया, न ही उच्चकोटि के समाज सुधारक, मार्गदर्शक, लेखक, कवि, कहानीकार, चिंतक, सिद्धांतकार, कलाकार, पत्रकार, सम्पादक, विश्लेषक, समीक्षक, भाषाविद्, बैरिस्टर, कानूनविद्, जज, वैज्ञानिक, अविष्कारक, राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, रणनीतिज्ञ, उद्भट विद्वान, व्यापारी, उद्योगपति आदि का उत्पादन या पैदाइश हुई।

पूरा समाज बाहरी समाज और लोगों के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक शिक्षाओं का पिछलग्गु और दास बना रहा और उन्हीं मूल्यों में मनुष्यता के विकास की खोज करता रहा । भाषा संस्कृति, खेत, खलिहान, जंगल, झार, नदी, तालाब, आदिवासी अंचल-क्षेत्र, स्त्री-पुरूष, बच्चे लुटते रहे और समाज जर्जर होता रहा,  शिक्षित आदिवासी बस टुकुर टुकुर देखने के सिवाय कुछ नहीं कर सका। नैसर्गिक क्षमताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो वर्चस्ववाद का शिकार आदिवासी अपने पुरखों के सामने कहीं नहीं टिकता है। वह विकास के स्वप्न में विनाश को गले लगाता रहा। जिन बाहरी समाज और लोगों ने हमारे पूर्वजों को अपनी चालाकी, धूर्तता और धोखे से ठगा उन्हीं के विचारों, मूल्यों और आस्थाओं को आदिवासी आज इसलिए ढोने में शान समझता है कि जन्म से ही वह उन मूल्यों के खोल में जीवन जीता रहा है। जिन्होंने उनके पूर्वजों को ठगी और चालाकी का शिकार बनाया उन्हें ही वह सम्मानीय समझता है।

आदिवासियों के वर्चस्ववाद के शिकार होने का सबसे बड़ा पहलू आर्थिक वर्चस्ववाद का शिकार है। गरीबी में आटा गीला की कहावत यहाँ चारितार्थ हुई है। जो नगण्य संख्या में सक्षम शिक्षित थे, बौद्धिकता से लैस थे, उनका भी आर्थिक अभाव के कारण हाथ पाँव  शिथिल हो गया था। वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि वे भी वर्चस्ववाद के कई पहलुओं के व्यक्तिगत शिकार थे। आज आदिवासी समाज संविधान की पाँचवी अनुसूची का क्षेत्र, सम्पन्नता से भरा खनिज लवण के क्षेत्र का निवासी होते हुए भी बाजार के आर्थिक गतिविधियों से अलग थलग है । उनकी जमीन, क्षेत्र, वातावरण, जलवायु, नदी, तालाब, वन-जंगल का आर्थिक गतिविधियों में बखूबी प्रयोग हो रहा है लेकिन इन गतिविधियों से प्राप्त हो रहे अरबों के लाभ में आदिवासियों को कोई हिस्सा प्राप्य नहीं है,  ये आर्थिक गतिविधियाँ आदिवासी समाज को समाप्त करने के उपकरण के रूप में प्रयोग हो रहीं हैं। आर्थिक वर्चस्ववाद का ऐसा उदाहरण संसार के किसी हिस्से में देखने को नहीं मिलता है।

आज आदिवासी समाज भारत में प्रभु वर्ग या शोषक वर्ग का उपनिवेश बना है तो इसके कई कारण हैं।  वर्चस्ववाद के कई उदाहरण से हमें इसे समझना होगा, तभी हम वर्चस्ववाद के कुचक्र से लड़ सकेंगे और विजयी होने के लिए कार्यसूची और नीति तथा कार्यक्रम बना सकेंगे।

संसार के सभी देशों और महादेशों में यह वर्चस्ववाद का खेल चल रहा है। भारत में करीब 1500 से अधिक भाषाएँ हैं, उनमें पाँच सौ से अधिक  साहित्य और लोकसाहित्य से संपऩ्न हैं, लेकिन देश में सिर्फ 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है और पूरे भारतवासियों को इन्हीं भाषाओं के वर्चस्ववाद का शिकार बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है। जब एक भाषा के वर्चस्ववाद का शिकार एक विशाल जनसंख्या होती है, तो उस भाषा के माध्यम से उस विशाल जनसंख्या की सोच, चिंतन, व्यवहार, संस्कृति और भाषाओं पर वर्चस्ववाद का प्रभाव पड़ता है और उनके जीवन यापन में अनेक बाहरी प्रभाव परिलक्षित होते हैं। आर्थिक रूप से उस विशेष भाषा के ग्राहकों की बढ़ोतरी हो जाती है, अधिक किताबें, पत्रिकाएँ, अखबार, टीवी, सिनेमा अन्य कलात्मक और संस्कृतिजन्य वस्तु मूल्यों का बाजार तथा प्रभाव बढ़ जाता है। उन्हीं भाषाओं के विद्यालय, कॉलेज, पाठ्यपुस्तकों और जीवन दृष्टि के सब कायल हो जाते हैं। लेकिन वर्चस्ववाद के शिकार समुदाय को दृष्टगत आर्थिक क्षति से भी अधिक अदृष्टिगत हानि होती है और उसके सम्पूर्ण विशिष्ट अस्तित्व पर संकट मंडराने लगता है, या वह पूरी तरह नष्ट हो जाता है। यह किसी समुदाय या राष्ट्रीयता की मृत्यु ही होती है।

अंग्रेजी का बाजार आज पूरे संसार में सबसे बड़ा है।  अंग्रेजी के एक उपन्यास के आय पर उसका लेखक करोड़पति बन जाता है। सिर्फ एक हॉलीवुड फिल्म की कमाई कई देशों के सकल आय से अधिक होती है। यह अंग्रेजी के वर्चस्ववाद का प्रतिफल है। दुनिया का हर देश और जनता अंग्रेजी सीखने के लिए खूब व्यय करता है। पूरी दुनिया में अंग्रेजी भाषा का सिर्फ एक दिन का बाजार ही कई अरब रूपये का है, फिर भी अमेरिकी, यूके, आस्ट्रेलिया आदि अंग्रेजी भाषी देश सारी दुनिया में मुफ्त अंग्रेजी सिखाने के लिए सैकड़ों संस्थाएँ, वेबसाइट, प्रकाशन, रेडियो स्टेशन आदि में बेशुमार पैसा खर्च करते हैं, क्योंकि वे अपने वर्चस्व को बनाए रखना चाहते हैं। इस भाषाई वर्चस्ववाद से सिर्फ अमेरिका को सैकड़ों बिलियन डॉलर की कमाई होती है। हॉलीवुड तय करता है कि दुनिया में कौन से फैशन का चलन होगा या कौन सा संगीत सुना जाएगा। पूरी दुनिया हर मामले में अमेरिका का नकल करने के लिए दिन-रात लगा रहता है। अमेरिका एक्सेंट में बातें करने वाला अपने को अन्यों से उच्च महसूस करता है। यह वर्चस्ववाद का ही प्रभाव है।

हमारे देश में अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण एक सत्ताधारी वर्ग का उदय हुआ है, जो सिर्फ भाषाई ज्ञान के कारण पूरे देश को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर रखा है। किसी भी पार्टी  की सरकार बने उसके वर्चस्ववाद का बाजार कभी खत्म नहीं होता है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री, हिंदी टेलिविजन कंपनियाँ और क्रिकेट वर्चस्ववाद के ऐसे उदाहरण है, जहाँ पूरे देश की कमाई सिर्फ चंद मुट्ठी भर लोगों के पास पहुँच जाती है। हिंदी और चंद राज्यों की राजभाषा सैकड़ों भाषाओं के मार्ग में तरह-तरह से बाधाएँ खड़ी करती हैं।

तमिलनाडु में हिंदी का विरोध इसके वर्चस्ववाद का विरोध ही है। तमिल चैनल, फिल्म, अखबार, विज्ञापन, शिक्षण पाठ्यक्रम का एक अलग ही अर्थव्यवस्था है, जिसकी कमाई बॉलीवुड और दिल्ली तक नहीं पहुँचती है, बल्कि वह तमिलनाडु में ही रह जाती है, जिसके कारण लाखों लोगों की आय बढ़ती है और आत्मनिर्भरता की ओर वे एक कदम अधिक बढ़ाते हैं।

भाषाई और सांस्कृतिक वर्चस्व को समाज चाहे तो बहुत आसानी से महज एक दशक की अवधि में खत्म कर सकता है। भाषा, साहित्य, सिनेमा, टीवी, धर्म के रास्ते बढ़ते बाहरी नकारात्मक वर्चस्व को समाज अपनी पौरूषता से तोड़ सकता है। तमिलनाडु इसका एक उदाहरण है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक वर्चस्व को खत्म करना आदिवासीयत से भरे बुद्धिजीवियों का काम है। आदिवासी मूल्यों से परिपूर्ण सोच और चिंतन से यह काम भी एक दशक की अवधि में ही किया जा सकता है, लेकिन इसके पूर्व हर तरह के वर्चस्ववाद को चिन्हित, रेखांकित और  विश्लेषण किया जाए । जनचर्चा के माध्यम से वैकल्पिक आदिवासी मॉडल रखा जाए। जागरूकता बढ़ाने का एक विशाल अभियान छेड़ा जाए । इसके लिए बुद्धिजीवियों की एक विशाल फौज चाहिए। समाज को बड़ी मात्रा में बुद्धिजीवियों के उत्पादन करने का रास्ता निकालना होगा।

आदिवासी भाषाएँ, संस्कृति, जीवन-मूल्य,  सोच, दर्शन और परंपराएँ इस देश की मौलिक विरासत है। इनकी विलुप्ति सम्पूर्ण आदिवासी जीवन धारा की मृत्यृ होगी। इसे बचाने के लिए हमें अपनी सोच, चिंतन, जीवन और समाज में इसे जगह देना होगा। विशाल भारतीय समाज में विविधता और बहुलता बनी रही इसके लिए तो खुद आदिवासी समाज को ही आदिवासीयत के संरक्षण के लिए नयी सोच के साथ आगे आना होगा। बाहरी वर्चस्ववाद का मुकाबला अपनी भाषाओं, संस्कृतियों, परंपराओं, सोच-विचार, विश्वास, मूल्य, कल्पना-परिकल्पना, आदर्श, व्यवहार को बचा कर ही किया जा सकता है।

 

क्‍या है सरना धर्म

नेह अर्जुन इंदवार

सरना धर्म क्‍या है ? यह दूसरे धर्मों से किन मायनों में जुदा है ? इसका आदर्श और दर्शन क्‍या है ? अक्‍सर इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं। कई सवाल सचमुच जिज्ञाशा का पुट लिए होते हैं और कई बार इसे शरारती अंदाज में भी पूछा जाता है, कि गोया तुम्‍हारा तो कोई धर्मग्रंथ ही नहीं है, इसे कैसे धर्म का नाम देते हो ? लब्‍बोलुआब यह होता है कि इसकी तुलना और कसौटी किन्‍हीं पोथी पर आधारित धर्मों के सदृष्‍य बिन्‍दुवार की जाए।

सच कहा जाए तो सरना एक धर्म से अधिक आदिवासियों के जीने की पद्धति है जिसमें लोक व्‍यवहार के साथ पारलौकिक आध्‍यमिकता या आध्‍यत्‍म भी जुडा हुआ है। आत्‍म और पर-आत्‍मा या परम-आत्‍म का आराधना लोक जीवन से इतर न होकर लोक और सामाजिक जीवन का ही एक भाग है। धर्म यहॉं अलग से विशेष आयोजित कर्मकांडीय गतिविधियों के उलट जीवन के हर क्षेत्र में सामान्‍य गतिविधियों में गुंफित रहता है।

सरना अनुगामी प्राकृतिक का पूजन करता है। वह घर के चुल्‍हा, बैल, मुर्गी, पेड, खेत खलिहान, चॉंद और सूरज सहित सम्‍पूर्ण प्राकृतिक प्रतीकों का पूजन करता है। वह पेड काटने के पूर्व पेड से क्षमा याचना करता है। गाय बैल बकरियों को जीवन सहचार्य होने के लिए धन्‍यवाद देता है। पूरखों को निरंतर मार्ग दर्शन और आशीर्बाद देने के लिए भोजन करने, पानी पीने के पूर्व उनका हिस्‍सा भूमि पर गिरा कर देते हैं। धरती माता को प्रणाम करने के बाद ही खेतीबारी के कार्य शुरू करते हैं।

लेकिन यह पूजन कहीं भी रूढ नहीं है। कोई भी सरना लोक और परलोक के प्रतीकों में से किसी का भी पूजन कर सकता है और किसी का भी न करे तो भी वह सरना ही होता है। कोई किसी एक पेड की पूजा करता है तो जरूरी नहीं कि दूसरा भी उसी पेड की पूजा करे। दिलचस्‍प और ध्‍यान देने वाली बात तो यह है कि जो आज एक विशेष पेड की पूजा कर रहा है जरूरी नहीं कि वह कल भी उसी पेड की पूजा करे। यहॉं पेड किसी मंदिर, मस्जिद या चर्च की तरह रूढ नहीं है। वह तो विराट प्रकृति का सिर्फ एक प्रतीक है और हर पेड प्रकृति का जीवंत प्रतीक है, इसलिए किसी एक पेड को रूढ होकर पूजन करने का कोई मतलब नहीं। अमूर्त शक्ति की उपासना के लिए एक मूर्त प्रतीक की सिर्फ आवश्‍यकता-वस वह उस या इस पेड का पूजन करता है।

सरना धर्म किसी धार्मिक ग्रंथ और पोथी का मोहताज नहीं है। पोथी आधारित धर्म में अनुगामी नियमों के खूँटी से बॉधा गया होता है। जहॉं अनुगामी एक सीमित दायरे में आपने धर्म की प्रैक्टिस करता है। जहॉं वर्जनाऍं हैं, सीमा है, खास क्रिया क्रमों को करने के खास नियम और विधियॉं हैं, जिसका प्रशिक्षण खास तरीके से दिया जाता।

पोथीबद्ध धर्म के इत्‍तर सरना धार्मिकता के उच्‍च व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता की गारंटी देयता का धर्म है। जहॉं सब कुछ प्राकृतिक से प्रभावित है और सब कुछ प्रकृतिमय है। कोई नियम, वर्जनाऍं नहीं है। आप जैसे हैं वैसे ही बिना किसी कृत्रिमता के सरना हो सकते हैं और प्राकृतिक ढंग से इसे अपने जीवन में अभ्‍यास कर सकते हैं। जीवंत और प्राणमय प्रकृति, जो जीवन का अनिवार्य अंग है, आप उसके एक अंग है। आप चाहें तो इसे मान्‍यता दें या न दें। आप पर किसी तरह की बंदिश नहीं है।

आप प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा की अभिव्‍यक्ति कहीं भी कर सकते हैं या कहीं भी न करें तो भी आपको कोई मजबूर नहीं करेगा, क्‍योंकि हर व्‍यक्ति की भक्ति की शक्ति या शक्ति की भक्ति के अपनी अवधारणाऍं हैं। एक समूह का अंग होकर भी आपके ”वैचारिक और मानसिक व्‍यक्तित्‍व” समूह से इतर हो सकता है। अपने वैयक्तिक आवधारणा बनाए रखने और उसे लोक व्‍यवहार में प्रयोग करने के लिए आप स्‍वतंत्र है। यही सरना धर्म की अपनी विशेषता और अनोखापन है।

यह किसी रूढ बनाए या ठहराए गए धार्मिक, सामाजिक या नैतिक नियमों से संचालित नहीं होता है। आप या तो सरना स्‍थल में पूजा कर सकते हैं या जिंदगी भर न करें। यह आपके व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता का भरपूर सम्‍मान करता है। आप चाहें तो अपने बच्‍चों को सरना स्‍थल में ले जाकर वहॉं प्रार्थना करना सिखाऍं या न सिखाऍं । कोई आप पर किसी तरह की मर्जी को लाद नहीं सकता है।

आप धार्मिक, सामाजिक और ऐच्छिक रूप से स्‍वतंत्र हैं। आपको पकड कर न कोई प्रार्थना रटने के लिए कहा जाता है न ही आपको किसी प्रकार से मजबूर किया जाता है कि आप धार्मिक स्‍थल जाऍं और वहॉं अपनी हाजिरी लगाऍं और कहे गए निर्देशों का पालन करें । सरना धर्म के कर्मकांड करने के लिए कहीं किसी को न प्रोत्‍साहन किया जाता है न ही इससे दूर रहने के लिए किसी का धार्मिक और सामाजिक रूप से तिरस्‍कार और बहिष्‍कार किया जाता है। सरना धर्म किसी को धार्मिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से नियंत्रित नहीं करता है और न ही उन्‍हें अपने अधीन रखने के लिए किसी भी तरह के बंधन बना कर उन पर थोपता है।

सरना बनने या बने रहने के लिए कोई नियम या सीमा रेखा नहीं बनाया गया है। इसमें घुसने के लिए या बाहर निकले के लिए आपको किसी अंतरण अर्थात (धर्मांतरण) करने की जरूरत नहीं है । कोई किसी धार्मिक क्रिया कलाप न में शामिल न होते हुए भी सरना बन के रह सकता है उसके धार्मिक झुकाव या कर्मकांड में शामिल नहीं होने या दूर रहने के लिए कोई सवाल जवाब नहीं किया जाता है। सरना धर्म का कोई पंजी या रजिस्‍टर नहीं होता है। इसके अनुगामियों के बारे कहीं कोई लेखा जोखा नहीं रखा जाता है, न ही किसी धार्मिक नियमों से संबंधित जवाब के न देने पर नाम ही काटा जाता है।

सरना अनुगामी जन्‍म से मरण तक किसी तरह के किसी निर्देशन, संरक्षण, प्रवचन, मार्गदर्शन या नियंत्रण के अधीन नहीं होते हैं। उसे धार्मिक रूप से आग्रही या पक्का बनाने की कोई कोशिश नहीं की जाती है। वह धार्मिक रूप से न तो कट्टर होता है और न ही धार्मिक रूप से कट्टर बनाने के लिए उसका ब्रेनवाश किया जाता है। क्‍योंकि ब्रेनवाश करने, उसे धार्मिकता के अंध-कुँए में धकेलने के लिए कोई तामझाम या संगठन होता ही नहीं है। इसीलिए इसे प्राकृतिक धर्म भी कहा गया है। प्राकृतिक अर्थात् जो जैसा है वैसा ही स्‍वीकार्य है। इसे नियमों ओर कर्मकांडों के अधीन परिभाषित भी नहीं किया गया है। क्‍योंकि इसे परिभाषा से बांधा नहीं जा सकता है।

जन्‍म, विवाह मृत्‍यु सभी संस्‍कारों में उनकी निष्‍ठा का कोई परिचय न तो लिया जाता है न ही दिया जाता है। हर मामले में वे किसी आधुनिक देश में लागू किए सबसे आधुनिक संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार ही (समता-स्‍वतंत्रतापूर्ण जीवन जीने जैसे मूल अधिकार की तरह) सदियों से व्‍यक्तिगत और सामाजिक स्‍वतंत्रता का उपभोग करते आ रहा है। उसके लिए कोई पर्सनल कानून नहीं है। वह शादी भी अपनी मर्जी जिसमें सामाजिक मर्जी स्‍वयं सिद्ध रहता है, से करता है और तलाक भी अपनी मर्जी से करता है। लडकियॉं सामाजिक रूप से लडकों की तरह की स्‍वतंत्र होती है। धर्म उनके किसी सामाजिक कार्यों में कोई बंधन नहीं लगाता है।

सरना बनने के लिए किसी जाति में जन्‍म लेने की जरूरत नहीं है। वह उरॉंव, मुण्‍डा, हो, संताल, खडिया, महली या चिक-बडाइक कहीं के भी आदिवासी, मसलन, उडिसा, छत्‍तीसगढ, महाराष्‍ट्र, गुजरात या केरल के हो, जो किसी अन्‍य किताबों, ग्रंथों, पोथियों आधारित धर्म नहीं मानता है और जिसमें सदियों पुरानी जीवन यापन के अनुसार जिंदगी और सामाज चलाने की आदत रही है सरना या प्राकृतिक धर्म का अनुगामी कहा जा सकता है। क्‍योंकि उन्‍हें नियंत्रित करने वाले न तो कोई संगठन है, न समुदाय है न ही उन्‍हें मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से नियंत्रण में रखने वाला बहुत चालाकी से लिखी गई किताबें हैं। कोई भी आदमी सरना बन कर जीवन यापन कर सकता है क्‍योंकि उसे किसी धर्मांतरण के क्रिया कलापों से होकर गुजरने की जरूरत नहीं है।

सरना धर्म में सरना अनुगामी खुद ही अपने घर का पूजा पाठ या धार्मिक कर्मकांड करता है। लेकिन सार्वजनिक पूजापाठ जैसे सरना स्‍थल में पूजा करना, करम और सरहूल में पूजा करना, गॉंव देव का पूजा या बीमारी दूर करने के लिए गॉंव की सीमा पर किए जाने वाले डंगरी पूजा वगैरह पहान करता है। पहान का चुनाव विशेष प्रक्रिया जिसे थाली और लोटा चलाना कहा जाता के द्वारा किया जाता है। जिसमें चुने गए व्‍यक्ति को पहान की जिम्‍मेदारी दी जाती है। लेकिन अलग अलग जगहों में पृथक ढंग से भी पहान का चुनाव किया जाता है। चुने गए पहान पहनाई जमीन पर खेती बारी कर सकता है या उसे चारागाह बनाने के लिए छोड सकता है। उल्‍लेखनीय है कि सरना पहान सिर्फ पूजा पाठ करने के लिए पहान होता है। वह समाज को धर्म का सहारा लेकर नियंत्रित नहीं करता है। वह हमेशा पहान की भूमिका में नहीं रहता है। वह सिर्फ पूजा करते वक्‍त ही पहान होता है। पूजा की समाप्ति पर अन्‍य सामाजिक सदस्‍यों की तरह ही रहता है और सबसे व्‍यवहार करता है। वह पहान होने पर कोई विशिष्‍टता प्राप्‍त नागरिक नहीं होता है। अन्‍य धर्मो में पूजा करने वाला व्‍यक्ति न सिर्फ विशिष्‍ट होता है बल्कि वह हमेशा उसी भूमिका में समाज के सामने आता है और आम जनता को उसे विशिष्‍ट सम्‍मान अदा करना पडता है। सम्‍मान नहीं अदा नहीं करने पर धार्मिक रूप से ”उदण्‍ड” व्‍यक्ति को सजा दी जा सकती है, उसकी निंदा की जा सकती है। पहान धार्मिक कार्य के लिए कोई आर्थिक लाभ नहीं लेता है। वह किसी तरह का चंदा भी नहीं लेता है। वह अपनी जीविकोपार्जन स्‍वयं करता है और समाज पर आश्रित नहीं रहता है।

कई लोग अन्‍जाने में या शरातर-वश सरना धर्म को हिन्‍दू धर्म का एक भाग कहते हैं और सरना आदिवासियों को हिन्‍दू कहते हैं। लेकिन दोनों धर्मो में कई विश्‍वास या कर्मकांड एक सदृष्‍य होते हुए भी दोनों बिल्‍कुल ही जुदा हैं। यह ठीक है कि सदियों से सरना और हिन्‍दू धर्म सह-अस्तित्‍व में रहते आए हैं। इसलिए कई बातें एक सी दिखती है।
लेकिन आदिवासी सरना और हिन्‍दू धर्म के बीच 36 का आंकडा है। आदिवासी मूल्‍य, विश्‍वास, आध्‍याम हिन्‍दू धर्म से बिल्‍कुल जुदा है इसलिए किसी आदिवासी का हिन्‍दू होना मुमकिन नहीं है। हिन्‍दू धर्म कई किताबों पर आधारित है और उन किताबों के आधार पर चलाए गए विचारों से यह संचालित होता है। याद कीजिए इन किताबों का आदिवासी समाज के लिए कोई महत्‍व नहीं न ही प्रभाव है। इन किताबों के लिए आदिवासियों के मन में सम्‍मान भी नहीं है न ही हिकारत। इन किताबों में आत्‍म, पुर्नजन्‍म, सृष्टि और उसका अंत, चौरासी कोटी देवी देवता, ब्राह्मणवाद की जमींदारी और मालिकाना विचार आदि केन्‍द्र बिन्‍दु है। यह जातिवाद का जन्‍मदाता और पोषक है और सामांतवाद को यहॉं धार्मिक मान्‍यता प्राप्‍त है। यहीं हिन्‍दू धर्म सरना धर्म के उलट रूप में प्रकट होता है। ब्राहणवाद और जातिवाद से पीडित यह जबरदस्‍ती बहुसंख्‍यक, कर्मवीर और श्रमशील लोगों को नीच घोषित करता है और लौकिक और परलौकिक विषयों की ठेकेदारी ब्राह्मण और उनके मनोवैज्ञानिक उच्‍चता का बोध कराने के लिए बनाए गए नियमों को सर्वोच्‍चता प्रदान करता है। यह वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक रूप ये अत्‍यंत अन्‍यायकारी और घ़ृष्‍टतापूर्ण है। इंसानों को अन्‍यायपूर्ण रूप से धार्मिक भावनाओं के बल पर जानवरों की तरह गुलाम बनाने के हर औजार इन किताबों में मौजूद है।

ऐसा धार्मिक नियम, परंपरा और लोक व्‍यवहार सरना समाज में मौजूद नहीं है। सरना समाज में जातिवाद और सामांतवाद दोनों ही नहीं है। यहॉं सिर्फ समुदाय है, जो न तो किसी दूसरे समुदाय से उॅच्‍च है न नीच है। सरना धर्म के समता के मूल्‍य और सोच के बलवती होने के कारण किसी समुदाय का शोषण का कोई सोच और मॉडल न तो विकसित हुई है और न ही ऐसे किसी प्रयास के मान्‍यता मिली है।
कई लोग आदिवासियों के हनुमान और महादेव के पूजन को हिन्‍दू धर्म से जोडकर इसे हिन्‍दू सिद्ध करना चाहते हैं। लेकिन सरना वालों ने कहीं इसका मंदिर न तो खुद बनाए हैं न ही सामाजिक धर्म और पर्वों में इनके घरों में पूजा की जाती है। ऐतिहासिक रूप से अभी तक कुछ स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया है लेकिन अनेक विद्वान हनुमान और महादेव को प्रागआदिवासी मानते हैं। हजारों सालों से एक ही धरती पर निरंतर साथ रहने के कारण दोनों के बीच कहीं अंतरण हुआ होगा। लेकिन आदिवासी हिन्‍दू नहीं है यह स्‍पष्‍ट है।

हाल ही में हिन्‍दुत्‍व, क्रिश्चिनि‍टी, इस्‍लाम से प्रभावित कुछ उत्‍साही जो अपने को सरना के रूप में परिचय देते हैं, लोगों ने सरना को परिभाषित करने, उसका कोई प्रतीक चिन्‍ह, तस्वीर, मूर्ति, मठ, पोथी आदि बनाने की कोशिश की है जिसे निहायत ही आईडेंटिटी क्राइसेस से जुझ रहें लोगों का प्रयास माना जा सकता है। इन चीजों के बनने का सरना धर्म के मूल्‍यों में हृास होगा और इसके अनुठापन खत्‍म होगा । सरना धर्म में विचार, चिंतन की स्‍वतंत्रता उपलब्‍ध है । वे भी स्‍वतंत्र हैं अपने धार्मिक चिंतन को एक रूप देने के लिए । लेकिन ऐसे परिवर्तन को सरना कहना, एक मजाक के सिवा कुछ नहीं है। सरना किसी मूर्ति, चिन्‍ह, तस्‍वीर या मठ का मोहताज नहीं है। फिर यह भी दूसरे धर्म की धार्मिक बुराईयों का शि‍कार हो जाएगा।

यदि सरना के दर्शन के शब्‍दों में कहा जाए तो यह सब चिन्‍ह आपनी आईडेंटिटी गढने, रचने और उसके द्वारा व्‍यैयक्तिक पहचान बनाने के कार्य हैं । जिसका इस्‍तेमाल, सामाजिक कम राजनैतिक, सांस्‍कृतिक और वैचारिक साम्राज्‍य गढने और वर्चस्‍व स्‍थापित करने के लिए एक हथियार के रूप में किया जाता रहा है। ऐसे चीजों का अपना एक बाजार होता है और उसके सैकडों लाभ मिलते हैं। लेकिन सरना दर्शन, सोच, विचार, विश्‍वास, मान्‍यता से बाजार का कोई संबंध नहीं है। मिट्टी के छोटे दीया, भांड, घडा आदि हजारों साल से स्‍थानीय लोगों के द्वारा ही निर्मित होता रहा है और इसका कोई स्‍थायी बाजार नहीं होता है।

कु्ल मिला कर यही कहा जा सकता है कि सरना एक अमूर्त शक्ति को मानता है और सीमित रूप से उसका आराधना करता है। लेकिन इस आराधना को वह सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप में नहीं बदलता है। वह आराधना करता है लेकिन उसके लिए किसी तरह के शोशेबाजी नहीं करता है। यदि वह करता है तो फिर वह कैसे सरना ???? लेकिन किसी मत को कोई मान सकता है और नहीं भी, क्‍योंकि व्‍यक्ति के पास अपना विवेक होता है और यह विवेक ही उसे अन्‍य प्राणी से अलग करता है, विवेकवान होने के कारण अपनी अच्‍छाईयों को पहचान सकता है। सब अच्‍छाईयॉं, कल्‍याणकारी पथ खोजने के लिए स्‍वतंत्र है। इंसान की इसी स्‍वतंत्रता की जय जयकार हर युग में हर तरफ हुई है

आदिवासी साहित्‍य अंक 1 वर्ष 1 जनवरी मार्च 2015 से साभार

Trafficked tribal girls forced to conceive, deliver babies for sale

• Saurav Roy, Lohardaga/Gumla
From the time she was 13, Phulmani (name changed) was forced to act as a surrogate mother and deliver six children by human traffickers from Jharkhand, widely considered a hotbed of modern day slavery.

Phulmani, now 31, was made to breastfeed the children – all born in consecutive years in Delhi – for about six months before giving them to the agents who sold them off.

The resident of Patru village in Gumla district was rescued by rights activists and returned to Jharkhand last year. Her experiences have left her emotionally and physically scarred.

“They treated me like a money minting machine. My will never mattered to them, all they wanted was me to deliver babies for them,” she said, avoiding eye contact.

Phulmani was lured to Delhi by an agent from her village with the promise of a job in the national capital. She worked as a domestic help in a posh locality in her first year in Delhi before the inhuman treatment began.

She has no idea who bought her babies or what became of them. But now she is seeking justice and has filed a complaint with the Child Welfare Committee (CWC) in Gumla.

Rights groups have complained for long that well organised rings have been trafficking girls and young women from Jharkhand. According to civil society groups, about 10,000 children are trafficked from Jharkhand every year to either work as domestic help or sex workers, but trafficking for forced surrogacy has never been heard of before.

The CWC in Gumla came across another case of trafficking for surrogacy from Lotwadugdugi village in Palkot block. The girl was trafficked to Delhi when she was just eight years old. Now 29, she returned to Jharkhand last year and alleged that she was forced to deliver at least 10 babies, said Alakh Singh, a member of the CWC.
“It is not a regular pattern, but we have come across a few such cases in the past. It is a major concern if such practices are happening in the state,” said additional director general of police (CID) SN Pradhan.

Like Phulmani, some more girls from Gumla and Lohardaga districts of Jharkhand were trafficked for conceiving children, local residents claimed. Some girls were even forced to conceive babies for sale in Jharkhand, they alleged.

Jagatram Mahato, an elderly man from Arahasa village in Lohardaga, said teenagers from his village had been lured to Delhi and some northern states for forced surrogacy.

“Some of them even gave birth to children in the village. Later, the agents came and took the babies,” he said. While a few girls were paid a negligible amount for being surrogate mothers, a majority did not get even a penny, he said.

However, police said they could not act unless FIRs were filed about such cases. A majority of the girls did not bother to complain to the police, probably due to fear, villagers said.

The NGO Shakti Vahini says it has rescued more than 100 girls from Jharkhand in Delhi. Bachapan Bachao Andolan (BBA), the NGO run by Noble Prize winner Kailash Satyarthi, says it rescued almost 80,000 children across India, of whom 15% to 20% were from Jharkhand and Bihar.

AASAA demonstrates in front of ACMS office


Staff Correspondent

 DIBRUGARH, Nov 13 – The All Adivasi Students’ Association of Assam (AASAA) today staged a massive demonstration in front of the head office of the Assam Chah Mazdoor Sangha (ACMS) at Jibon Phukan Nagar here telling the trade union leaders of the tea industry that they can no longer hoodwink the people of the tea industry by pretending to serve the workers when actually they have been tacitly working for the tea managements and pursuing political goals.

AASAA president Raphael Kujur said that ACMS was standing only because thousands of workers of the tea industry contribute from their hard earned salaries towards the trade union. “The mandate of the ACMS is to serve the interest of the tea workers and not the tea planters or for that matter pursue political goals. The wage agreements for the tea garden workers are signed between the planters’ body – Consultative Committee for Planters’ Association and the ACMS.

“But so far, the ACMS has never bargained for just wage of the workers. The wage agreement of Rs 94 signed earlier by ACMS and CCPA does not comply with the Minimum Wages Act 1948, as it is below the stipulated minimum wage of Rs 169 of Assam,” he said.

The Adivasi students’ body has demanded that ACMS negotiate with the planters’ body for raise in the daily wage of the workers from Rs 94 to Rs 330, considering the rise in the cost of living and for the fact that plantation workers in other States were drawing above Rs 200.

The AASAA, in its memorandum submitted to ACMS, also underlined that costs associated with housing, medical and electricity, etc., must not be included as part of the minimum wages as per provisions in the Plantation Labour Act 1951 and Minimum Wages Act 1948. Kujur said that AASAA is demanding just wage for the workers.

 

Literature vital for growth of society: Gaikhangam

 By Imphal Free Press November 9, 2014 03:09

IMPHAL, November 8: Literature is vital for the growth and development of a society and cannot be neglected, said deputy Chief Minister Gaikhangam today. He was speaking at the “First Languages Day-cum-Workshop on Literary Progress of Tribal Languages” as the chief guest today at the Tribal Research Institute, Imphal. He said language is the best identity of civilization. Literature is vital to unity among the people of Manipur, the deputy Chief Minister observed adding that the unity of indigenous languages will help in developing the Manipuri language. He said people need to strengthen the Manipuri language which acts as the link between the different communities residing together in the land. The Manipuri language is a fine language with a rich literature, he said. At the same time, developing the tribal languages will mean development of the Manipuri language, he said. Giakhangam further said that the organisation of such workshop will help in the preservation and development of our languages. He said although the State government lacks resource and facing financial constraints at the time, we are still trying to help develop the various languages spoken of the State. Language and dialect is a part of literature heritage of Manipur and development of language will definitely strengthen the Manipuri language. He said that the Language Planning & Implementation Directorate has been established under the Education department to nourish the languages of Manipur. Literature is very important and having a separate Language Directorate is a good beginning for improving the languages, he continued before adding that the government is determined to develop all languages of Manipur. This workshop will be a turning point to bring about development of Tribal Languages, he asserted. As part of the workshop a brief interaction on issues of tribal languages in Manipur and the process of approval of tribal languages for introduction in education system was also held. Various Tribal Literature Societies has reported Information on Literary Progress of their languages respectively. Today’s function was also attended by Language Planning and Implementation, Manipur director Kh Raghumani Singh and joint director Dr L Mahabir Singh. The workshop was organized by Council of Tribal Languages & Literature Societies, Manipur and sponsored by the Tribal Research Institute, Imphal.

Pledge call for nominees

– Election heat & dust in Ranchi, Dhanbad
ACHINTYA GANGULY
Unwilling to accept pre-poll party manifestos on the grounds that they may be riddled with tall promises, social organisations and intellectuals will hold a meeting in Ranchi on November 20 to demand “commitment” from aspiring MLAs across party lines to properly implement pro-people acts and schemes.
Economist Jean Drèze, activists Stan Swami, Dayamani Barla, Balram and journalist-turned-activist Faisal Anurag as well as outfits Jharkhand Gyan Bigyan Manch, Yuva Jharkhand and Adivasi-Mulvasi Adhikar Raksha Sangh are among those constituting Jan Ailan Manch that wants politicians to promise their commitment to people-friendly causes.
Announcing this at a news meet at XISS this afternoon, the umbrella Manch listed key acts and schemes related to right to food, education, forest produce, as well as rural employment guarantee, health and rehab of the displaced.
“Implementation of National Food Security Act has been deferred in Jharkhand for no valid reason,” said Balram, state advisor to Supreme Court appointed commissioners on food-related cases. “Provisions of the Act should be implemented in public distribution system and mid-day meal scheme.”
Stan Swami alleged tribals living in harmony with forests for centuries were now being deprived of their rights to forest produce and implicated in false charges.
Anurag stressed the need to ensure the right of youngsters to pursue education in their mother tongue. He also called for implementation of Right to Education Act in government and private schools.
Barla, who unsuccessfully contested Lok Sabha elections as an AAP candidate from Khunti, raised the issue of displacement.
“Proper rehab of persons already displaced must be ensured and no fresh land acquisition be considered without the gram sabha’s consent,” she added.
They also added that funds allotted under tribal sub-plan should never be diverted for other purposes.
“We have started approaching political parties to attend our November 20 meeting. The response so far has been positive,” Anurag said.
“This type of campaign should be a continuous process to monitor the functioning of people’s elected representatives,” Drèze signed off.

Big bucks for brainy tribal girls

Big bucks for brainy tribal girls
– Medhavini scholarships worth Rs 45000 distributed among 18 students

If cash crunch is keeping books out of reach for tribal girls, here’s aid in hand that will help them chase their dreams.

Tata Steel Processing and Distribution Limited and city-based NGO Kalamandir have jointly started a scholarship — Medhavini — for poor tribal girls of East Singhbhum who are forced to discontinue their studies because of monetary problems.

Cheques worth Rs 45,000 were distributed among 18 beneficiaries during a function in Bistupur on Wednesday. Each tribal girl received Rs 2,500 for one year.

The scholarship is meant for only those who intend to complete their intermediate and graduation. Only matriculates are eligible.

The beneficiaries were selected through a written test, marks scored in the last examination and an interview where parents of aspirants were also invited.

The scholarship, however, has a rider. The beneficiary cannot get married while she is still studying.

“Social progress is impossible without educating women. Tribal girls are married off early. That’s why we introduced a criterion that bars marriage during the tenure of the scholarship,” said Kalamandir secretary Amitava Ghosh.

“I thought of discontinuing my education because my family could not afford it. My father is a farmer with a small patch of land. I also have four siblings. So, studies took a back seat. I am thankful to the scholarship. I have now taken admission in BA at Baharagora College,” said 19-year-old Rani Soren.

A brainchild of NGO Kalamandir, plans for introducing this scholarship were afoot since last year.

The outfit then got Tata Steel Processing and Distribution Limited on board and things fell into place.