और फिर जैसे कि किसी को भी उम्मीद नहीं थी अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के सभी उम्मीदवार पश्यिम बंगाल के विधान सभा का चुनाव हार गए। इस हार से उम्मीदवार जितने सकते में नहीं थे उससे अधिक आदिवासी जनता सकते में थी। 60 प्रतिशत आदिवासी जनता और आदिवासियों के नाम पर चुनाव में खडे उम्मीदवार न सिर्फ धराशायी हो गए बल्कि चुनाव में दूसरे स्थान के लिए भी वोट न पा सके।
मैंने देखा चुनाव समाचार आने के बाद पडोस के किसी भी घर में चुल्हा नहीं जलाया गया। चुनावी हार के दंश से सभी मर्माहत थे। सबके चेहरे लटके हुए थे। लग रहा था उन्हें अपने ही घर में कोई तमाचा देकर चला गया। परिषद के उम्मीदवारों के लिए दिन रात एक कर देने वाले सुकरा, चामु और चिलो के चेहरे पर गहरी निराशा की झलक हप्तों तक छायी रही। सात विधानसभा केन्द्रों में परिषद के उममीदवारों की हार हुई थी, जहॉं उनकी तुती बोलती है। हार का गम ऑंखों के रास्ते गालों पर ढलकते देखे गए।
उधर,चुनाव में विकास परिषद को नकार दिए जाने के कारणों की पडताल करने के लिए समीक्षा बैठक हुई लेकिन न तो किसी ने हार की जिम्मेवारी ली न ही किसी ने इस्तीफा देने का दरियादिली दिखाई। कुछ मिला कर ऐसी समीक्षा हुई जैसे कोई व्यवसायी सिर्फ अपने दौलत के कुछ पैसे लुटाने के लिए चुनाव में शौकिया अपना नाम लिखा लिया था। जिन्हें वोट नहीं मिलने का न तो कोई गम था न ही पैसे खर्च होने का।
यह तो स्पष्ट था कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भाग लेने के लिए आदिवासी विकास परिषद में न तो चुनाव के पूर्व कोई गंभीर मंत्रणा हुई न ही चुनाव के बाद। चुनाव समीक्षा के लिए हुई बैठक् में हार के कारणों पर, अपनाई गई रणनीतियों पर तथा क्यों लोगों ने विकास परिषद के उम्मीदवारों पर अपना विश्वास व्यक्त नहीं किया, के कारणो पर बात न करके सिर्फ आगामी पंचायत चुनाव में कमर कस पर मेहनत करने की बातें करके समीक्षा बैठक को निपटा दिया गया। जिस तरह आदिवासी अस्मिता की बातें करके लोगों की भावनाओं को छूने वाली बातें करके वोट मांगी गई थी उसी तरह आदिवासी अस्मिता को केन्द्रबिन्द में रख कर हार के कारणों की समीक्षा नहीं की गई। हार की जिम्मेदारी किसी ने न ली। किसी ने इस्तीफा नहीं दिया। नेतृत्व में आम आदिवासी की तरह भावुकता और दुख का झलक ही नहीं था। इससे इस बात को बल मिलता है कि आदिवासी विकास परिषद का नेतृत्व आदिवासी भावना और नाम को भूना कर अपना उल्लू सीधा कर रहा है। विकास परिषद को आदिवासी जनता अपनी अस्मिता, सम्मान और भविष्य के रूप में देखता है। लेकिन आदिवासी विकास परिषद के नेतागण जनता की भावनाओं के गहराईयों को समझ नहीं पाए हैं। शायद उनमें उन गहराईयों तक उतर कर भावना को आत्मसात करने का जज्बा और क्षमता नहीं है। जनता की आकांक्षा क्या है ? जनता क्या चाहती है ?, आदिवासियों की मौलिक समस्या क्या है? उसके क्या कारण है?
समस्याओं की जड कहॉं है? सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई, आर्थिक, शैक्षिक, मानसिक समस्याओं को सुलझाने के लिए किस तरह की राजनैतिक पैंतरा अख्तियार करना चाहिए। इस तरह की बातों पर लगता है गंभीरता पूर्वक विचार नहीं किया गया। यदि इन बातों पर गंभीरतापूर्वक मंत्रणा की गई होती तो एक ऐसी रणनीति बना ली गई होती, जिस पर चल कर आदिवासी विकास परिषद के उम्मीदवार न सिर्फ चुनाव जीतते, बल्कि दूसरी राजनैतिक पार्टियॉं डुवार्स तराई और आदिवासी विकास से संबंधित दृष्टिकोण को विकास परिषद के चश्में में देखती। लेकिन विकास परिषद के नेतृत्व की दिशाहीनता और अक्षमता ने आदिवासियों को फिर से एक बार गहरे तौर से निराशा के घाटी में धकेल दिया है। आदिवासी युवावर्ग और शिक्षितों के बीच चुनाव में हार को लेकर निरंतर जितनी चर्चा की जा रही है, उसका एक प्रतिशत भी चर्चा परिषद के मंच पर नहीं की गई। करीबन दो वर्ष पूर्व कालचीनी उपचुनाव में गोर्खा जनमुक्ति मोर्चा के उम्मीदवार की जीत और विकास परिषद के उम्मीदवार की हार से समाज सकते में था। लेकिन परिषद के नेतागणों ने कमजोर नेतृत्व देकर और रणनीति अपना कर समाज को एक बार फिर विधान सभा चुनाव में न सिर्फ सकते में डाल दिया हैं, बल्कि शर्मिंदगी की स्थिति में पहुँचा चुका हें।
पिछले तीन वर्षों से बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल पार्टी को आम जनता का जबरजस्त समर्थन हासिल हो रहा था। यह पहले ही खुला रहस्य बन चुका था कि जनता विधान सभा चुनाव में वाममोर्चा को वोट नहीं देने वाली। लेकिन परिषद के नेतागणों ने वाममोर्चा के साथ पहले की तरह ही नजदीकियॉं बनाए रखा। रणनीतिक साठगांठ का संबंध पहले की तरह जारी रखा और आदिवासी वोट को वाममोर्चा की ओर मोडने वाले रणनीति पर निरंतर उसका साथ भी देते रहे। वे सिर्फ दिखाने के लिए वाममोर्चा के नेताओं से बैठकें करते रहे, कभी राइटर्स में तो कभी माल के सभा में। उनके मांगों पर सरकार कुंडली मारे बैठी रही। हिन्दी कालेज और कालेज में हिन्दी माध्यम में पढाई और परीक्ष, बागान घर का पट्टा, मजदूरों को 250 रूपये की मजदूरी, छटवीं अनुसूची, आदिवासी हिन्दी शिक्षक बहाली पर सरकार का रवैया नाकारत्मक ही रहा। लेकिन वाममोर्चा से परिषद् की आस गई नहीं। क्योंकि कुछ नेताओं का वाममोर्चा से नजदीकी संबंध रहे हैं। आदिवासी समाज के भविष्य को दॉंव पर लगाते हुए वे अपनी व्यक्तिगत पसंद और विचारों के आधार पर वाममोर्चा से नजदीकियॉं बढा कर आदिवासी भविष्य पर कुठाराघात करते रहे। वे निरंतर यह भी घोषणा करते रहे कि परिषद एक सामाजिक संस्था है और राजनीति से इसका कोई लेना देना नहीं है।
यदि वे विचारशील होते तो वाममोर्चा से दूरियॉ बढा कर उनसे अंतत किनारा कर लेते और तृणमूल, कांग्रेस और गोर्खाजनमुक्ति के साथ नजदीकियॉं बढाते और उनसे अपनी मांगो के बारे लिखित रूप से बातचीत करते। लेकिन वे लगातार यही आभाष देते रहे कि राजनीति से उसका कोई लेना देना नहीं है। यदि उन्हें स्वतंत्र रूप से चुनाव लडना ही था तो इसकी तैयारी उन्हें साल भर पहले ही कर लेना था। यदि वे चुनाव के माध्यम से आदिवासी समाज का भला करने के लिए किसी निर्णय पर पहुँच चुके थे तो उन्हें पहले ही इसकी घोषणा कर देनी चाहिए थी। वे एक राजनैतिक दल का गठन भी कर लेते।
एक साल पूर्व ही वे उम्मीदवारों का चुनाव कर लेते। चुनावी विषय, चुनाव क्षेत्र की पहचान कर लेते। हर गॉंव, बागान में कितने वोट उन्हें मिलेंगे और कितने वोट बिल्कुल नहीं, इसका खाका तैयार कर लेते और नहीं मिलने वाले वोटों पर ध्यान लगाते। आदिवासी वोटों को संभालते हुए ऐसी रणनीति बनानी थी, जिसके आधार पर गैर आदिवासी वोट भी मिलते। लेकिन परिषद के चुनिंदा नेताओं ने विकास परिषद के उम्मीदवारों की हार का प्रबंध पहले से ही कर लिया था। वे उम्मीदवारों को पहले से नहीं चुने, ताकि उम्मीदवार अपनी ओर से जीत के लिए कोई पुख्ता इंतजाम न कर ले। जन समर्थन के लिए लोगों के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क न स्थापित करे। परिषद का नेतृत्व किसी भी पार्टी के साथ किसी भी तरह की गठबंधन का कोई फैसला नहीं लिया, ताकि उम्मीदवारों और वोटरों के बीच एक अनिश्चय की भावना बरकरार रहे। वे नहीं चाहते थे कि उनके बीच कोई समझदार, सुलझा हुआ वैकल्पिक नेतृत्व तैयार हो, जो उनके नेतृत्व से अलग विचार रखे या उनकी नीतियों को चुनौती दे। चुनाव की घोषणा हो चुकने के बाद अंतिम समय पर वे कांग्रेस पार्टी से गठबंधन करने के लिए दिल्ली कुच किए। प्रणव मुखर्जी और अन्य नेताओं से मिल कर चुनाव साथ लडने की उन्होंने मंशा जताई। उन्हें आशा थी कि कांग्रेस पार्टी डुवार्स तराई में उनकी लोकप्रियता पर अतुर होकर उनसे गठबंधन कर लेगी और लगे हाथ चुनाव खर्च का भी प्रबंध कर देगी। लेकिन बात बनने के पहले ही परिषद के नेतागण शर्त रखने लगे और परोक्ष रूप से कडे बयान देने लगे। यह किन रणनीति के तहत किया जा रहा था, आम आदिवासी समझ नहीं पा रहा था। एक ओर तो वे कांग्रेस से गठबंधन भी करना चाहते थे दूसरी ओर शर्त लाद कर और कडे बयान दे कर अप्रत्यक्ष रूप से गठबंधन को अमलीजामा पहनने से रोकते भी रहे। अंतत कांग्रेस ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखला दिया। बौखलाहट में परिषद के नेतृत्व अन्य पार्टियों सहित झारखण्डी पार्टियों से बातचीत करने लगा। झारखण्ड की अलग–अलग पार्टी अलग–अलग लोगों से बातचीत करने लगे। कुल मिला कर एक अफरातफरी की स्थिति थी। आम आदिवासी समझ नहीं पर रहा था कि उनकी समाज प्रेम पर टिकी हुई संस्था के नेतागण क्या कर रहे हैं। किस स्तर पर निर्णय लिए जा रहे हैं, कहॉं क्या तय किया जा रहा है। लाखों आदिवासियों के भावनाओं पर टिकी हुई संस्था में जनता नदारद थी और सिर्फ दो–तीन नेतागण अपने व्यक्तिगत अनुभव, राजनीति झुकाव और जुगाड पर निर्णय ले रहे थे और आम जनता अवाक हो कर उन्हें ताक रही थी। तमाम तामझाम, रेलपेल के बाद झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के चुनाव चिन्ह पर परिषद के उम्मीदवार चुनाव लडने के लिए कमर कस लिए। लेकिन उम्मीदवारों का चयन परिषद के नेताओं की अपरिपक्वता का परिचय दे रहा था। पहले घोषित उम्मीदवार ऐन मौके पर बदल दिए गए। पहले वे क्यों चुने गए थे, फिर उन्हें क्यों बदल दिया गया ? उनकी पृष्टभूमि क्या थी ? वे कितने योग्य थे ?
आदिवासी समाज, मूल्यों, समस्या पर उनके क्या विचार हैं ? उनकी शिक्षा क्या है ? वे राजनीति, कानून, विकास, आरक्षण के बारे क्या जानते हैं ? किसी को कुछ नहीं पता। पता नहीं उम्मीदवार चुनने वालों को उम्मीदवारों की पृष्टभूमि की जानकारी थी या नहीं ?वे हमेशा डुवार्स तराई के राजनैतिक पार्टियों को दोष देते रहे हैं कि वे कठपुतली नेताओं को जनप्रतिनिधि बनाते रहे हैं। लेकिन उन्होंने भी दिखला दिया कि उम्मीदवार चुनने की घपलेबाजी में वे भी किसी राजनैतिक पार्टियों से कम नहीं हैं। बंगाल के इस विधान सभा चुनाव ने दिखला दिया कि आदिवासी विकास परिषद का क्रियाकलाप, विचारधारा, गतिविधियॉं किसी भी तरह से अन्य पार्टियों से अलग नहीं है। वे किस आधार पर लोगों के वोट मांग रहे थे यह अस्पष्ट था। उनकी सारी आशा आदिवासियों के जातीय भावनाओं के दोहन पर टिकी हुई थी। विकास परिषद के बिरसा तिर्की गोर्खा जनमुक्ति के विरोध में बारंबार कहते रहे कि वे बंगभंग होने नहीं देंगे। बंगाल विभाजन का वे पूरजोर विरोध करते हैं। बंगाल के विभाजन और अखण्डता से आदिवासी समाज का हित किस रूप में जुडा हुआ है, उन्होंने इसका खुलासा कभी नहीं किया। लेकिन वे अपने को अखण्ड बंगाल का सिपाही घोषित करते रहे हैं। वही बिरसा तिर्की बंगाल से अलग होकर कामतापुरी राज्य का गठन करने की मांग करने वालों से चुनावी गठबंधन कर लिया। वे यहीं तक नहीं रूके बंगाल के पुरूलिया, मेदिनीपुर आदि जिलों को झारखण्ड में मिलाने की मांग करने वाले झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के चुनाव चिन्ह को दिल से अपना कर अपना चुनाव चिन्ह बना लिया और उस पर चुनाव भी लड लिया। विकास परिषद के नेतृत्व की करनी और कथनी में कितना अंतर है। यह स्पष्ट करने के लिए और किस तरह की साबूत की जरूरत होनी चाहिए ?उन्हें जबाव देना होगा कि वे किस आधार पर कामतापुरी और झामुमो से दिल मिलाते हैं और किस आधार पर गोर्खाओं से आदिवासियों को लडाना चाहते हैं ?
समाज के नाम पर चुनाव में कुदने वाले परिषद को चुनाव लडने के लिए जिस तरह की तैयारी करनी चाहिए थी । उस तरह की तैयारी नदारद थी। किनसे किस आधार पर गठबंधन और समझौता करना चाहिए। किस आधार पर किसी पार्टी से बात की जाए। ऐसी कौन सी पार्टी है जिसके साथ विचारों का मेल होता हे। आदिवासियों के साथ सच्चे दिल से कौन सी पार्टी आ सकती है। लगता है इस आधार पर कोई मंत्रणा नहीं हुई । परिषद का रवैया यह था कि किसी के साथ भी चुनाव लड लिया जाए। सिद्धांत, विचारधारा और आदिवासियों की भविष्य जाए भाड में। कमोबेश यही समझ काम कर रहा था। यह सब अपरिपक्वता था या किसी खास राजनीति दल के उम्मीदवारों को लाभ पहुँचाना आज भी अस्पष्ट है। राजनैतिक पार्टियों पर आदिवासियों को छलने का आरोप लगाने वाले विकास परिषद का नेतृत्व आदिवासियों को छल रहा है या नहीं इसका निर्णय कौन करेगा?
आदिवासियों के लिए आरक्षित विधानसभा केन्दों से आदिवासियों पर एकछत्र राज्य करने वाली संस्था का उम्मीदवार एक भी स्थान से जीत हासिल नहीं कर पाए। दूसरा स्थान पाने में भी पिछड गए। आदिवासियों का एकमेव, एकछत्र प्रतिनिधित्व का दावा करने वाला एक संस्था का एक भी उम्मीदवार चुनाव की नैया पार नहीं कर पाया। क्या उस संस्था को नैतिक अधिकार है कि वह अपने को आदिवासी समाज का एकमात्र संस्था घोषित करे ?
किसी भी संस्था को उसका नेतृत्व ही सफल या असफल बनाता है। यदि आदिवासियों के प्रचंड समर्थन को भी नेतृत्व सफलता में तब्दील नहीं कर पाया तो क्या उस नेतृत्व की नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वह अपने नेतृत्व और नीतियों की समीक्षा करें या पद त्याग दे। क्या उन्हें लिखित रूप में यह बताना नहीं चाहिए कि आखिर क्यों आदिवासियों ने उन्हें नकार दिया और राजनैतिक पार्टियों पर अपनी आस्था व्यक्ति किया। सामाजिक समर्थन के बल पर अपने को बलशाली समझने वाला को यह भी देखना होगा कि सामाजिक उत्तरदायित्व के कर्तव्य को उन्होंने ठीक से निभाया या नहीं। यदि वह अपना कर्तव्य ठीक से निर्वाह नहीं कर पाया तो नैतिकता कहता है कि वह इसे स्वीकार करे और समाज से माफी मांगे और समाज के विश्वास को तोडने के लिए समाज से सजा मांगे। कोई भी सामाजिक संस्था किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती है न ही कोई भी नेतृत्व निरंकूश सर्वेसर्वा। तो यह देखा जाना दिलचस्प होगा कि आदिवासी विकास परिषद का नेतृत्व अपनी नीतियों में कोई परिवर्तन करते हैं या नहीं।
फांसीदेवा में अपना उम्मीदवार खडा करने वाला विकास परिषद, कांग्रसी के रूप में चुनाव जीत चुके सुनील तिर्की को विकास परिषद के सदस्य के रूप में न सिर्फ प्रचारित कर रहे हैं, बल्कि उनका आदर सत्कार भी कर रहे हैं। फांसीदेवा केन्द्र से चुनाव लड रहे परिषद के उम्मीदवार द्वारा कांग्रेसी उम्मीदवार के पक्ष में मैदान छोड देने पर उन पर अनुशासानिक कार्रवाई की बातें की गई। लेकिन विरोधी दल के उम्मीदवार के जीत जाने पर आश्चर्यजनक रूप से उन्हें अपना सदस्य बता कर सिर ऑखों पर बैठा लिया। पहले किसी का विरोध करना और फिर चुने जाने पर विरोधी को अपना कहना, कई गंभीर सवाल उठ खडा करता है। क्या उगते सूरज को प्रणाम करना परिषद की नीति है ?डुवार्स तराई के केन्द्रों से चुनाव जीतने वाले सभी उम्मीदवार चाहे वे किसी भी पार्टी के हों आदिवासी ही हैं। कालचीनी से जीतने वाला बिल्सन चम्प्रामारी भी आदिवासी है। अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद में देश भर के आदिवासी शामिल हैं। फिर डुवार्स और तराई में आदिवासी विकास परिषद क्यों आदिवासियों को अलग–अलग चश्में से देखता है। आदिवासी विकास परिषद क्यों नहीं सभी आदिवासी विधायकों का आदर सत्कार करता है। क्या आदिवासी विकास परिषद के चुनाव चिन्ह पर ही चुनाव लडनेवाला आदिवासी सच्चा आदिवासी होकर आदिवासियों की आवाज को बुलंद करेगे। यदि आदिवासी विकास परिषद की सोच सिर्फ अपने सदस्यों के आदिवासीयत पर ही टिकी हुई है तो जो परिषद के सदस्य नहीं हैं क्या वे अपनी बात को और अपनी आदिवासीयत को किसी भी मंच से कहने के लिए स्वतंत्र है ?डुवार्स तराई के समस्त आदिवासियों को अपना कहने वाला क्यों उन्हीं आदिवासियों को अलग–अलग पार्टियों का सदस्य भी मानता है ? आदिवासियों को अलग–अलग पाटियों के सदस्यों के रूप में देखने के लिए विकास परिषद को चश्मा कहॉं से उधार लेनी पडी है ?
आज आदिवासी विकास परिषद को स्वीकार करना चाहिए कि लोकतांत्रिक पद्धति में उनके द्वारा अलग से जनप्रतिनिधि भेजने की कवायद को आदिवासियों ने ही ठुकरा दिया है और उनकी सामाजिक संस्था से राजनैतिक संस्था बनने की मंशा से आम आदिवासी सहमत नहीं है। क्योंकि वह आदिवासियों को राजनैतिक सदस्यों के रूप में बॉंट कर देख रहा है। विकास परिषद क्यों आदिवासियों को सिर्फ आदिवासी के रूप में न देख कर किसी खास पार्टी सदस्य के रूप में देख रहा है ? इस तरह की दृष्टिकोण समाज को बॉंटता न कि एकता की सूत्र में बॉंधता है। आदिवासी समाज से संबंधित समस्याऍं ऐसी है जिसे तुरंत जादू की छडी से हल नहीं किया जा सकता है। सिर्फ विकास परिषद के एम एल ए ही समस्याओं को सुलझा पाऍंगे और दूसरे नहीं यह सोच ठीक नहीं है।
वर्तमान नेतृत्व की बातों से आदिवासी पूरी तरह न तो आश्वस्त हैं न ही संतुष्ट। एक सामाजिक संस्था को कुछ लोगों की राजनैतिक महत्वकांक्षा के लिए राजनैतिक संस्था में परिवर्तन करने की उनकी नीतियों और कार्यकलापों को आम आदिवासी अपनी स्वीकृति नहीं दे रहे हैं। समाज को चुनाव में उतार कर बेमन से चुनाव लडा कर बुरी तरह से हरा देने वाले परिषद के नेतृत्व से समाज मर्माहत है, यह परिषद के नेताओं को भलीभांति समझना चाहिए। समाज का सर उँचा उठाने के जगह सर नीचे गिराने को मजबूर करनेवाले परिषद का नेतृत्व विस्तृत रूप से आत्मा निरीक्षण करे यही समय की मांग है।