समाज विभाजक धर्म

2019 के नव वर्ष में केरल के सबरीमाला मंदिर में दो महिलाओं के प्रवेश से देश में साधारण रूप से और केरल में विशेष रूप से धार्मिक तुफान उठ खड़ा हो गया है। रजस्वला उम्र के महिलाओं के प्रवेश को मंदिर को प्रदूषित करना माना गया है और उक्त मंदिर का शुद्धिकरण किया गया और इस घटना के विरोध में पूरे राज्य में बंद बुलाया गया है और अब तक हुए पक्ष और विपक्ष के संघर्ष में दो लोगों को जान गंवानी पड़ी। महिला अधिकारों के पक्षकार भी सामने आ खड़े हुए हैं। उनके पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय चट्टान की तरह खड़ा है।

कमोबेश इस घटना ने भारतीय समाज को दो हिस्से में बाँट दिया है। समाज को बाँटने के केन्द्र में धर्म संबंधी विश्वास, परंपरा और परिकल्पना है।

वस्तुतः धर्म हमेशा से समाज को बाँटने का हथियार रहा है। विश्व इतिहास इसका साक्षी रहा है। इसका लम्बा हिंसक खुनी इतिहास भी रहा है। धर्म का चरित्र कभी भी बहुलतामयी (Pluralistic) नहीं रहा है। इसका चरित्र एकाधिकारी (monopolistic)  स्वेच्छाचारी, अहंकारी, रूढ़िवादी रहा है और यह आम लोगों के विचारों की स्वतंत्रता पर न सिर्फ पहरेदारी चाहता रहा है, बल्कि अंकुश भी लगाता रहा है। यह चाहता है कि सभ्यता उसके रूढ़िवादी विचारों और ढकोसले को ज्यों के त्यों स्वीकार करे और उनके कृत्यों के आगे न सोचे और न कुछ करे। धर्म अन्वेषी सोच का दुश्मन रहा है और वह चाहता है आम लोग उसकी तथाकथित श्रेष्ठता और पवित्रता के दकियानुसी विचारों का सम्मान करे और भक्ति के हद तक जाकर उनकी गुलामी बातों और सिद्धांतों को स्वीकार करे।

धर्म का एक ही शर्त है कि आम जनता उनके सदियों पुरानी आमजन और इंसानियत विरोधी राजसत्ता को स्वयं के अधिकारों का हनन होने के बावजूद उन्हें इज्जत दें और उनकी धर्म सत्ता का विरोध न करे। धर्म एक मनुष्य -मनुष्य के बीच भेदभाव, छुआछूत को मान्यता देता है और शुद्धिकरण जैसे अमानवीय, आधारहीन, खोखला रूढ़िवादिता का अग्र वाहक रहा है। यह अपने स्वधर्मी लोगों को छोड़कर दूसरे धर्म वालों से भेदभाव और हिंसा करने की सीख देता है। यह परजीवीता, कामचोरी, मुफ्तखोरी को स्वतंत्रवाद, समतावाद, उदारवाद, मूल अधिकार आदि के आगे रखता है और अथाह धनसंपत्ति अर्जित करने वाला धनलोलुप चरित्र को सर्वोपरि रखता है। दूसरों की कमाई को हड़पने का आर्थिक सिद्धांत धर्म के परजीवी सिद्धांतों पर ही आधारित है।

दुनिया में  हर काल और परिस्थिति में आम जनता ही गरीबी, विपन्नता भोगने के लिए अभिशप्त रही है, लेकिन दुनिया के किसी काल और परिस्थिति में धर्म और धर्म के नाम बने संगठन और धर्म केन्द्र कभी भी गरीबी और विपन्नता का सामना नहीं किया है। कई हजार वर्षों से धर्म और धर्म से जुड़े परजीवी लोग सम्पन्नता की जिंदगी गुजारते रहे हैं और वे इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए धर्म के नाम पर एक-से-एक स्वस्वार्थ को पूरा करने की नीतियाँ बनाए और उन नीतियों से असीम तरीके से लाभ कमाते रहे।  सभी धार्मिक केन्द्रों को हर साल खरबों रूपये की कमाई होती है और इन पैसों से धर्म केन्द्रों के लोग सम्पन्नता की जिंदगी जीते हैं। आमतौर से पूरी दुनिया में धार्मिक कमाई टैक्सफ्री होती है और इसकी कोई ऑडिट भी नहीं करता है।

किसी श्रद्धालू मनुष्य द्वारा किसी पूजाघर, प्रार्थना घर में किसी किए गए किसी प्रवेश या उपस्थिति को कालूषित ठहराना अपने आप में एक अपराध है। शुद्धिकरण, पवित्रकरण आदि धार्मिक कृत्य शुद्ध खोखला, आधारहीन और ढकोसला है। यह कैसा धर्म और ईश्वर है जिसे कोई भी अपवित्र कर देता है और कोई भी (पूजारी या मनुष्य)  उसे पुनः पवित्र और शुद्ध कर देता है। यह धर्म के नाम पर किया जाने वाला प्रसहन ही है।

धर्म के नाम पर किया जाने वाला ऐसा शुद्धिकरण, पवित्रकरण आदि  ही मनुष्य-मनुष्य के बीच छुआछूत, भेदभाव, ऊंच-नीच, शोषण और अत्याचार का मूल स्रोत है। पूजा घरों में प्राश्रय पाए ऐसे विचारों से ही आमजन में इन दुर्गुणों का प्रचार-प्रसार होता है और यह समाज में कोढ़ के रूप में उपस्थित हो जाता है। इस तरह के कृत्य मानवीय समाज के इंसानी समता और सदभावना की भावनाओं को नष्ट करता है और समाज में जातिवाद और वर्गवाद का सृजन करता है। परंपरा और रूढ़िवादिता के अधिकार के नाम पर ऐसे कुकृत्यों का संरक्षण कतई स्वीकार्य नहीं है।

जो भगवान, ईश्वर, परमेश्वर आदि अजर, अमर, कण-कण में व्याप्त माना जाता हैं, उसे कोई मनुष्य कैसे अपवित्र कर सकता है ? उन्हें सीमित शक्ति से आबद्ध किसी वेदी या गर्भगृह में कैसे बंदी बनाया जा सकता है? यदि कोई ब्रह्मण्डलीय कल्याणकारी शक्ति है तो उसे यूनिवर्सल कल्याणकारी शक्ति के रूप में माना जाए न कि उसे किसी पूजाघर, प्रार्थनालय में मौजूद बंदी भगवान, परमेश्वर माना जाए ? 

धर्म के नाम पर ब्रह्मण्डलीय शक्तियों (?) को इतना संकुचित और कालूषित किया गया है कि ये अजर-अमर शक्तियाँ किसी पूजाघर या प्रार्थनालय के लोकल ईश्वर या भगवान बन कर रह गए हैं। पूजाघर, प्रार्थनाघर की परिकल्पना खुद धर्मग्रंथों में लिखी ब्रह्मण्डलीय ईश्वरीय महिमाओं का मखौल उड़ाता है और भगवान, ईश्वर की शक्तियों को खण्ड-खण्ड कर के रख देता है। नेह इंदवार