धार्मिक अवधारणाएँ

नेह इंदवार

जैसे अनाज की मंडी लगी होती है और फसलें आतीं हैं, जाती हैं। वैसे ही अवधारणाओं की मंडी लगी हुई है। जहाँ धारणाओं और अवधारणाओं की सप्लाई हो रही हैं। मंडी से खुदरा बाजार में आवधारणाएँ भेजी जा रही हैं। रोज नयी नयी धारणाएँ विभिन्न प्रकार के मेकअप लगाएँ आ रहीं हैं। बाजार गर्म है। अवधारणों से सजी हुई मोटी-मोटी किताबें भी मंडी में आती हैं और नये पुराने अवधारणों पर गर्व से अपना धाँसु अवधारणा प्रस्तुत करती हैं। एक अवधारणा ने कहा ईश्वर ने सबको बनाया । दूसरे ने कहा- “मतलब बनाने की क्रिया कोई करता है तो ईश्वर को किसने बनाया ?” “यदि ईश्वर को किसी ने बनाया तो उसे बनाने वाले को कौन बनाया ?”मतलब पहले अंडा आया या मुर्गी ? अवधारणाओं के साथ सवाल भी वातावरण में तैर रहे थे।

मंडी में बाबाओं की भी मंडी लगी हुई है। एक भाई साहब पूछ रहे थे, “बाबाजी ये इत्ता इत्ता ऊँचा पहाड़ को किसने कैसे बनाया ?”
बाबाजी स्वयं को ईश्वरीय दूत घोषित कर चुके थे, बड़े-बड़े धार्मिक समारोहों का आयोजन करते रहते थे, जवाब तो देना आवश्यक था, कहने लगे
“ईश्वर ने बड़ा का फवड़ा लेकर समुद्र को खोदा, कहीं न कहीं मलबा को रखना था, इधर रख दिया, बस क्या था पहाड़ बन गया।” उसने इत्मिनान से कहा। भक्त बेचारा का चेहरा खिल गया। प्रशंसात्मक दूष्टि से बाबाजी को देखा और एक लम्बा अष्टांग किया।

उधर दूसरे बाप जी मंडे में विराजे हुए थे। किसी ने पूछा “बापजी ये बिजली क्यों कड़कती है ?” बापजी ने बताया- “ये किसान बारिश को गाली देते हैं तो उसे गुस्सा आ जाता है। फिर क्या गुस्से वह बाऱिश बन कर टूट पड़ता है।”

आज्ञाकारी चेले युगों से इसी तरह से प्रकृति के रहस्यों को “महान ” गुरूओं से पुछते रहे और वे भक्तों के दिमाग में चक्कर काटते प्रश्नों का शमन करते रहे। भक्तों के दिमाग में तरह-तरह की अवधारणाएँ, कल्पनाएँ जन्मती रहीं । युगों पहले पृथ्वी अंतरिक्ष का केन्द्र बिन्दु था, जिसमें महज एक चाँद, एक सूरज और कुछ टिमटिमाते तारे थे । बाकी के बारे कोई सवाल भी तो नहीं था, गैलेक्सी और सौर आंधी, क्षुद्र ग्रहों के बारे कोई सवाल नहीं था। तो साहब अवधारणाओं को कुछ तो आराम करना चाहिए कि नहीं ?
तब गुरूओं ने बताया कि चाँद तारे पृथ्वी और आदमी को सात दिनों में बनाया गया और आठवाँ दिन बनाने वाले को आराम भी करने की जरूरत आन पड़ी। पूरा थक गया था बेचारा।

नाग साँप के करवट बदलने पर तो पृथ्वी थर-थर काँपती है और सुनामी का पानी पहाड़ पर चढ़ने के लिए दौड़ पड़ता है। अब देखो न एक विशाल भगवान के सोने और जागने से ही सृजन और प्रलय होता है, यह गुरूजी खूब बताते हैं क्यों कि उन्होंने तो अपनी आँखों से देखें हैं जी। संदेश की कोई गुंजाईश है कहीं ? ऐ !!

अवधारणाओं की मंडी में बहुत आमद है। कोई शक सुबहा ?
एक बड़ा सा हांडी रखा हुआ होता है जिसे जलते आग पर चढ़ाया जाता है, अब क्या है बदमाशों, बलात्कारियों, हत्यारों तुम्हें उन कड़ाहियों में मछली की तरह भाजे जाएँगे, सावधान हो जाओ कमीनों ! यह आग एलपीजी से जलता है या जंगल की लकड़ी से पूछना मना है।

सुनो ! गुरूओं ने देख कर बताया है कि स्वर्ग में नुकीली नाक वालीं फिल्मी नायिकाओं से भी सुंदर अप्सराएँ रहती हैं और तुम्हारा इंतजार कर रही हैं, कुछ तो इस दुनिया के अमन चाहने वाले दुश्मनों को मारो और मरो! भावनाओं से ओतप्रोत शरीर यहीं छोड़ जाना, अप्सराओं को वहाँ जाकर सिर्फ टुकर-टुकर देखना! अमर हो चुकी अप्सराओं तुम्हारे जैसे नशपिटे से क्या इश्क लड़ाएगी ? भक्त कन्फ्यूज, दुश्मन को मारे कि खुद मरे !

बाप रे भावनाओं को गुरूजीओं जी कैसे उभारते हैं ! भई अवधारणाओं की किताबों में क्या कुछ नहीं लिखा है! लेकिन भाई मेरे इन पवित्र ग्रंथों में सच्चाई कितनी है ? एक अवधारणा ने पूछ मारा।
अबे सच्चाई वच्चाई छोड़ो जब मैंने किताब वाले कंपनी का साइन बोर्ड वाले आहाते को अपना मान ही लिया हूँ तो बस मैं हूँ, मेरे गुरूजी हैं और है मेरे पवित्र किताब। बाकी जाए भाड़ में। दूसरे अवधारणा ने दृढ़ता से कहा ।

अरे भाई, अपना विवेक तो लेते जाओ किसी ने जोर से पीछे से चिल्लाया। अबे जाओ भाड़ में भेजो मेरे विवेक को, मैं कोई दार्शनिक थोड़े हूँ जो उसकी जरूरत पड़ेगी। मैंने बस एक अवधारणा को धारण कर लिया है, दुनिया की कोई ताकत मुझे उससे जुदा नहीं कर सकती है, मैं असली धर्मी हूँ, उन्होंने खुद ही ताव में आकर घोषणा कर दी। दुनिया सन्न रह गयी।

अरे वाह ! तुम ही मेरे असली चेले हो- गुरूजी ने खुश होकर जोर से चिल्लाया। गुरू और चेला गले मिल रहे थे।

उधर अवधारणाओं के मंडी में नयी नयी धारणाओं की आमद बढ़ रही थी। कोई दूरबीन थामे चिल्ला रहा था देखो-देखो बिना पंख के उड़ता हुआ बड़ा सा गदा थामे कोई एलियन अभी-अभी मंगल ग्रह को पार करके पृथ्वी की ओर बढ़ा चला आ रहा है।

समाचार प्रिंट और एलॉक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से क्षणों में फैल गई। अवधारणाओं के बाजार में खूब हलचल मची गई है।

धर्म-अहाते में नृत्य करते लोगों को बताया गया “स्वर्ग दूत पधार रहे हैं”, नृत्य में जोश बढ़ गया।

इसी बीच इलेक्शन कमिशन ने आम चुनाव की घोषणा कर दी।

सभी गुरूजीयों के चेहरे पर मुस्कराहट तैर रहे थे।

बने बच्चों का सच्चा पालक

👶🧠आमतौर से बच्चों का #दिमाग बहुत #जिज्ञासु होता है।
बच्चे अपने शैशवकाल से ही हर चीज को बहुत उत्सुकता और जिज्ञासु भरी नजरों से देखते हैं और उन्हें गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। यह सिर्फ मूर्त रूप में ही नहीं होता है, बल्कि बच्चे अप्रत्यक्ष और भावनात्मक स्तर पर भी जिज्ञासु होते हैं। वे लोगों के चेहरे के भावों को देखकर उन्हें पढ़ने की कोशिश करते हैं। अत्यंत छोटे बच्चे कभी किसी अन्जाने से व्यक्ति के पास प्रसन्नता पूर्वक चले जाते हैं, वहीं वे किसी के पास लाख पुचकारने पर भी नहीं जाते हैं। भावनाओं को अव्यक्त रूप में भी जानने समझने की क्षमता बच्चों में स्वाभाविक रूप में होती है, इस विषय पर हुए अध्ययनों से सैकड़ों उदाहरण मिल जाते हैं। अच्छे बुरे की पहचान की क्षमता या विवेकशीलता मनुष्य की खासियत है।
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👶🧠एक माता-पिता या घर के बड़े सदस्य के रूप में बच्चों का सही मार्गदर्शन देना और उनका सही शारीरिक और मानसिक पोषण देना परिवार का प्रथम कर्तव्य होता है। हर बच्चे का एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है। उनके अनुभव करने की क्षमता और विश्लेषण की क्षमता भी दूसरों से भिन्न होती है। बच्चों के विवेकशीलता को सुसंगत लक्षणों के साथ विकसित करना परिवार के लिए बहुत मायने रखना रखता है। बच्चों में आत्मविश्वास, आत्मबल स्वाभाविक रूप में विद्यमान होता है। अपने तरीके से हर विषय पर शोध करने की मानसिक क्षमता भी जन्मजात होती है। उसे प्राकृतिक और स्वाभाविक रूप में बनाए रखना परिवार का सर्वोपरि कर्तव्य होता है।
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👶🧠अक्सर माता पिता बड़े हो रहे बच्चों के कोमल मन पर अपने बचपन से सीखे गए या अपनाए गए धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक, भाषाई, जातिवादी, नस्लवादी, वर्णवादी, राजनैतिक विचारों को बिना सोचे समझे थोपना शुरू कर देते हैं और उन्हें पूर्वकल्पित पूर्वाग्रह और विचारों का गुलाम बना देते हैं। उनके कोमल मन पर जिज्ञासा भरे सवालों को निष्पक्ष, संतुलित, ठोस वैज्ञानिक और सार्वभौमिक उदाहरणों सहित विस्तृत रूप से बताने के बजाए मामा-पिता, घर के बड़े सदस्य अपने स्तरहीन, धार्मिक, अध्ययन रहित पक्षपाती पूर्वाग्रहों को बच्चों के दिमाग में फिट करने लगते हैं। ऐसा लगातार करने से स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहे बच्चे के विवेकशील क्षमता भरे दिमाग को विश्लेषण करने के लिए संतुलित वैज्ञानिक मान्यपूर्ण डेटा ही नहीं मिलता है और वह एकपक्षीय बातों या व्यवहार या डेटा इन्पूट का शिकार हो जाता है और आधारहीन, पोंगापंथी डेटा को ही अंतिम सत्य समझ लेता है।
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👶🧠इससे उनके सत्य शोधक क्षमता, संतुलित और वैज्ञानिक टेम्पेरामेंट के आधार पर विकासित होने के बदले ऐसे मूल्यों के साथ विकसित होने लगता है, जो एक दिन उसे वैज्ञानिक टेम्पेरामेंट के सामने लज्जित करवाएगा और उनके आत्मबल और विश्वास को गहरा धक्का लगवाएगा। ऐसी शिक्षा बच्चे को धार्मिक, जातिवादी, वर्णवादी कट्टर इंसान बनाता है। कट्टरपंथी की कट्टरता की पृष्ठभूमि अक्सर उसके लालनपालन में ही होता है।

👶🧠हर बच्चा एक शोधार्थी होता है। वह अपने बचपन से अपने युवा होने की प्रक्रिया में निरंतर, रोज, नयी बातों और चीजों के साथ नये दृष्टिकोण से भी परिचय प्राप्त करता है। घर, बाहर या स्कूलों में रोज नयी बातें सीखता है। परिवार के द्वारा यदि उसे बताया जाए कि माता पिता द्वारा अपनाए गए धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक प्रतीक, भाषाई अधिकार या व्यवहार, जातिवादी भावनाएँ, नस्लवादी विचार, वर्णवादी पूर्वाग्रह, राजनैतिक झुकाव आदि ही श्रेष्ठ है और बाकी सब कागज के लुग्दी तो बच्चे के शोधार्धी मन और क्षमता के सामने एक दीवार खड़ी हो जाएगी और बच्चा एकाकी विचारों का गुलाम बन जाएगा।
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👶🧠बहुलता पूर्ण दुनिया से बच्चा का परिचय एक दोस्त के रूप में न होकर एक दुश्मन के रूप में ही होता है। उसके दिमाग को समंजस्य स्थापित करने में मुश्किल होता है। स्कूलों के वैज्ञानिक शिक्षण और परिवार के पोंगापंथी शिक्षण में जमीन असमान का अंतर बच्चे के विश्लेषण शक्ति को चक्कर में डाल देता है। उसका ऊर्जावान सोच को बंजर विचारों से बहुत हानि पहुँचता है। प्राचीन धर्म संस्कृति और परंपरा ऐसे समय में विकसित हुए थे, जब समाज 99.9% अनपढ़ और अविकसित थे। तब वैज्ञानिक ज्ञान किसी को नहीं था और लोग काल्पनिक विचारों से संचालित होते थे।
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👶🧠बच्चों के श्रेष्ठ गुणों को पल्लवित करके उन्हें श्रेष्ठ मानव बनाने में माता-पिता और परिवार का ही हाथ होता है। यदि माता-पिता सजग नहीं होगें तो वे अपने बच्चों को धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई, जातिवादी, वर्णवादी, नस्लवाद पोंगापंथी बना कर छोड़ देंगे और बच्चे को युवा होने के बाद तमाम बिन्दुओं पर फिर से अपने अनुभव के आधार पर विवेकपूर्ण विवेचना करने की आवश्यकता होगी और इस प्रक्रिया में वह एक दिग्भ्रमित व्यक्ति के रूप में विचारों के स्तर पर संघर्षरत होगा। वह मानसिक रूप से एक प्रखर व्यक्तित्व नहीं पा सकेगा।
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👶🧠यदि बच्चा उच्च शिक्षित हो जाएगा और उन्हें तमाम विषयों पर संतुलित और सकरात्मक रूप से विचार करने का महौल मिलेगा तो वह अपने माता-पिता को पूर्वाग्रह से ओतप्रोत पाएँगे और वह अपने माता-पिता को पिछड़े मानसिकता, अशिक्षा, पोंगापंथी से ग्रस्त समझेंगे। जेनरेशन गैप की जो बातें कही जाती है, उसमें ऐसी बातों का भी समावेश रहता है। परिवार में अविश्वास की मानसिक खाई अपने आप बन जाती है।
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👶🧠एक माता-पिता के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे यदि शिक्षित हैं तो अपनी शिक्षा का लाभ उठाते हुए वे उन तमाम विषयों पर प्राथमिक रूप से पर्याप्त संतुलित वैज्ञानिक रूप से मान्य ज्ञान प्राप्त करें, जिन विषयों पर बच्चे का दिमाग उत्सुक और जिज्ञासु रहता है।
बच्चा घर की बिल्ली या मुंडेर पर सुरीली ताल बिखेर रहे लिटिया चरई से लेकर चाँद-तारे तक के सवाल पूछ सकते हैं। वे किसी दार्शनिक की तरह प्रश्न पूछ सकते हैं कि “जब आप (माता-पिता) छोटे थे तो हम (बच्चे) कहाँ थे?”
👶🧠उन्हें भूगोल से लेकर विज्ञान और दर्शन तथा नैतिक शास्त्र तक की बातें सटीक और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध (Proved) बातें ही बताई जानी चाहिए। ख्याल रखें बड़े होने पर आपकी बातों का कोई ठोस आधार उन्हें नहीं मिलेगा तो वह आपको पोंगापंथी, अंधविश्वासी, अशिक्षा न समझ लें। आपका मूल्य उनकी नज़र में पहले की तरह नहीं रहेगा। व्यवहार के स्तर पर ये बातें देखी गई हैं।
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👶🧠हाल ही में मैंने एक मित्र के फेसबुक वाल पर देखा था, उन्होंने अपने सजातीय दोस्तों के लिए लिखा था, कि “हमें अपने बच्चों को नये तरह से सामाजिक मूल्यबोध सिखाने की जरूरत होगी, क्योंकि हमारे बच्चों को पिछड़े समाजों के वैज्ञानिक रूप से सचेत बच्चों के साथ जीवन संघर्ष करना होगा, अगली सदी पिछड़े समाजों के मुट्ठी में कैद होगी,वे बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।“
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👶🧠यह पोस्ट सचमुच चौंकाने वाला था। उन्होंने भाँप लिया है कि सार्वभौमिक शिक्षा ने युगों से पिछड़े समाजों के विवेक पर बिठाए गए पर्दा को उखाड़ कर फेंक दिया है और उनका समाज बड़ी तेजी से Scientific temperament प्राप्त किए जा रहे हैं। धर्म, जाति, वर्ण, नस्ल, भाषा आदि के बंधनों को जितनी तेजी से पिछड़े समाज तोड़ रहे हैं और नये कीर्तिमान स्थापित किए जा रहे हैं, वह सचमुच आश्चर्यचकित करने वाली घटनाक्रम हैं।
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👶🧠मेरा व्यक्तिगत अनुमान है कि वैज्ञानिक स्वभाव को प्राप्त करने में आदिवासी समाज दूसरे समाज से आगे रहेगा। इसका मुख्य कारण एक ओर आदिवासी समाज में व्यावहारिक स्तर पर उपलब्ध वैचारिकी स्वतंत्रता है तो दूसरी ओर बचपन से संस्कार के नाम पर धार्मिक पोंगापंथी थोपन प्रक्रिया की अनुपस्थिति है।
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👶🧠आदिवासी समाज के बच्चे शिक्षित होने के साथ-साथ वैज्ञानिक टेम्पेरामेंट की ओर गमन करने लगते हैं। जबकि बचपन से धार्मिक संस्कार, कर्मकांड, जातिवाद, वर्णवाद, ऊँच-नीच की खुराक को रोज पिलाने वाले असमानता भरे समाज में यह तुलनात्मक रूप से देर से पहुँचता है। क्योंकि उनकी स्वतंत्र सोच पर पोंगापंथी की पहरेदारी बिठाई जाती है। किसी भी विषय पर कट्टरता व्यक्ति के विवेकशीलता का हरण करता है। धार्मिक और जातिवादी कट्टरता दिमाग को पंगु बनाता है और बच्चे के शोधार्थी व्यक्तित्व का समूल नाश करता है।
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👶🧠यदि आप अपने बच्चों को सचमुच बौद्धिक रूप से उदार, संतुलित विवेकशील, नैतिक रूप से एक मुकम्मल इंसान बनाना चाहते हैं तो उन पर अपनी सड़ी गली पुरातनपंथी पूर्वाग्रह लादने के बजाय उन्हें स्वतंत्र वैज्ञानिक बातें बता कर उन्हें स्वतंत्र सीमाहीन चिंतन के लिए अनुप्रेरित करें। ऐसे महौल पाकर उनकी प्राकृतिक क्षमता स्वाभाविक रूप से विकसित होंगी। आधुनिक युग में बच्चों के पालन-पोषण का यह सर्वोतम पथ होगा। अमेरिका, स्कैनडिनेवियन आदि देशों में बच्चों को स्वतंत्र सोच विकसित करने देने की ऐसी ही नीतियों पर ही बल दिया जाता है। दुनिया के अधिकांश विकसित सूचकांकों में इन देशों का अव्वल होने का यह भी एक कारण है।
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👶🧠अबोध बच्चों को दर्शन और नैतिक शिक्षा के नाम पर धार्मिक पोंगापंथी सिखाना उचित नहीं है। युवा होने पर उन्हें धर्म, दर्शन, नैतिकता, वैज्ञानिक मान्यताओं पर विचार और चिंतन करने का भरपूर समय और अवसर मिलेगा। इसलिए बचपन के स्वर्णकाल को मिट्टी काल न बनाएँ। आखिर वे ही तो आपके चांद सूरज और ब्रह्मांड है।👶🧠नेह इंदवार👶🧠

किनके हित में कार्य करता है आदिवासी मंत्रालय ?

चाय मजदूरों का संवैधानिक और कानूनी हक क्या है?? 👇

☘🌺 प. बं. सरकार अब तक करीबन 10-15 लाख भूमिहीनों को लैंड पट्टा दे चुकी है। एससी-एसटी भूमिहीनों को घर बनाने और खेती-बारी करने के लिए नियमों अनुसार जमीन देने की व्यवस्था कानून में है।

.☘🌺लेकिन कांग्रेस, वामफ्रंट और तृणमूल के शासन में चाय मजदूरों को उनके वर्तमान घर-बार के जमीन पट्टा देने की कभी कोई कोशिश नहीं की गई। उल्टे उन्हें बड़ी चालाकी से अपने घर सदियों पुराने घर से विस्थापित करने की कई योजनाएँ जरूर बनाई गईं। नागराकाटा ब्लॉक में एक ऐसी योजना को मजदूरों ने ठूकरा दिया था।

.☘🌺चा सुंदरी योजना भी उसी योजना की कड़ी में बनायी गई है। यह योजना बनाने वाले अफसरों, इंजीनियरों और नेताओं को ग्रामीण पृष्टभूमि और ग्रामीणों, विशेष कर आदिवासियों, गोर्खाओं के सामाजिक-सांस्कृतिक-मानसिकता के बारे कुछ भी जानकारी और समझ नहीं रही है। काश! वे चाय बागानों में कभी एक सप्ताह गुजारते तो उन्हें वहाँ की वास्तविकता समझ में आता। ग्रामीण समाज की जानकारी नहीं रखने वालों ने चाय बागानों के गरीब मजदूरों को शहरों के मलीन बस्तियों में रहने वाले गरीबों के बराबर समझ लिया है। उन्हें हाड़मांस गला कर जिंदगी गुजारने वाले श्रमशील स्वाभिमानी मजदूरों के बारे कुछ नहीं मालूम है। एक मजदूर की मानसिकता भिखारी की तरह नहीं होता है। वह मर जाएगा, लेकिन भीख नहीं मांगेगा। .

☘🌺कोई भी परिवार गंदगी मेंं सुविधाहीन रूप से नहीं रहना चाहता है। शहरों में जगह की कमी के कारण गरीब मलीन बस्तियों में रहने के लिए विवश होते हैं। लेकिन इन अफसरों को नहीं मालूम कि चाय मजदूर शहरी लोगों से अधिक सफाई पसंद होते हैं, और वे घरेलु पशुओं और किचेन गार्डेन में फसल उगा कर, एक दूसरे की सहायता करके सामूहिक रूप में गरीबी में भी खुशहाल जीवन जीने की कोशिश करते हैं। शहरों में बनी मलीन बस्तियों के छोटे-छोटे कमरे और मकान, जिसके चारों ओर कोई जमीन नहीं होती है, में चाय मजदूर कभी भी रहने के लिए नहीं जाएगा।

.☘🌺 चाय बागानों की जमीन सरकार की है। सरकारी जमीन में 30 वर्षों से अधिक रहने वाला उस जमीन की मालिकाना हक पाने का पात्र हो जाता है। बागान क्वार्टरों को बनाने के लिए 1952 के बाद केन्द्र सरकार ने प्रत्येक क्वार्टर के लागत का 33.33% और राज्य सरकार ने 33.33% व्यय का वहन किया है। चाय कंपनियों को मात्र 2-3% के ब्याज पर लम्बी अवधि के लिए सरकार ने क्वार्टर बनाने के लिए ऋण दिया था। जिसे बागान प्रबंधन ने अपनी 33% लागत को चाय मजदूरों के मजदूरी से प्रत्येक महीना काट कर वसूलता रहा है। आज की तारीख तक प्रबंधन ने कितने रूपये वसूल किया है, इसका कोई लेखा-जोखा किसी मजदूर संघ के पास या सरकार के पास नहीं होगा। 2011 और 2015 के मजदूरी समझौते में बागान मालिकों ने इस व्यय का (घर के लागत की वसूली का) ब्यौरा Negotiation Process में पेश चुका है।

.☘🌺संक्षेप में तथ्य यूँ है – 1951 में The Plantation Labour Act और Labour Rules बनने के बाद मजदूरों के लिए लेबर क्वार्टर बनाने की बात आई। जमीन का एक इंच न तो सरकार उत्पादित कर सकती है और न कोई पूँजीपति। क्वार्टर के लिए जमीन की समस्या आई। उन दिनों मजदूर जंगल साफ करके खुद जमीन तैयार किए थे और उन जमीनों पर उनके टोले स्थित थी। सरकार ने उन जमीनों का बिना मुआवजा दिए अधिग्रहण किया और उसे बागान को लीज पर दे दिया कि चलो यहाँ क्वार्टर बनाओ। इसके साथ केन्द्र सरका और राज्य सरकार ने, उन दिनों के लागत के अनुसार प्रत्येक बागान को कई-कई लाख रूपये दिए। तब एक क्वार्टर मुश्किल से दो हजार रूपये में बनते थे। बागानों को निर्देश था कि वे हर वर्ष 10% क्वार्टर बनाएँगे और 10 वर्षों में सभी को पक्के क्वार्टर मिल जाएँगे।

.☘🌺लेकिन बागान मालिकों ने भ्रष्ट अफसरों से मिल कर बागान के हर कानून को तोड़ा। न तो वे नियमित पक्के क्वार्टर बनाए और न ही उन क्वार्टरों की रखरखाव किए। वे कई दशकों तक फूस और बाँस के घर बना कर देते और उन क्वार्टरों की भाड़ा वसूलते। चाय बागानों में बने हर क्वार्टर की लागत (2000) से कई गुण अधिक भाड़ा का भुगतान चाय मजदूरों ने पहले ही कर दिया है। 2015 में चाय मजदूरों को 289 रूपये मजदूरी देने की बात हुई थी। जिसमें से 157 रूपये बागान प्रबंधन को और 130 रूपये मजदूर को देने की बात तय हुई थी। यह 157 रूपये फ्रींज बेनेफिट्स के रूप में मजदूरों को लौटाना था। क्वार्टर की मरम्मत भी इसमें शामिल था। लेकिन मजदूरों को कितना और किस स्तर का फ्रींज बेनेफिट्स मिलता है, इसे सभी मजदूर और तृणमूल पार्टी सहित सभी नेता जानते हैं।

.☘🌺दो बातें बहुत महत्वपूर्ण है, 30 वर्षों तक एक ही जगह में रहने वाले चाय मजदूर सरकारी जमीन पर कब्जा पाने के पात्र बन चुके हैं। चाय बागान प्रबंधन ने उस जमीन पर बने क्वार्टर के लागत को भाड़ा के रूप में वसूल चुकी है। अब बात आती है कि सरकार क्या चाहती है ? मजदूरों का कल्याण या शोषण ?

.☘🌺पश्चिम बंगाल में एक आदिवासी मंत्रालय है और उस मंत्रालय में डुवार्स वासी श्री बुलुचिक बड़ाईक मंत्री हैं। आदिवासी मंत्रालय का काम है कि वह देखे कि राज्य में आदिवासियों के साथ कहीं कोई भेदभाव, अन्याय और पक्षपात न हों। वे आदिवासी विकास और उनके संवैधानिक, कानूनी अधिकार था हित के लिए पश्चिम बंगाल सरकार के मंत्रीमंडल में रह कर कार्य करे। अलिपुरद्वार और जलपाईगुड़ी जिला आदिवासी बहुल जिला है और यहाँ के संसदीय और विधायक सीट्स आदिवासियों के लिए आरक्षित है। आदिवासी मंत्रालय का यह कर्तव्य है कि वह जिले के भूमिहीन, गरीब आदिवासियों के अधिकार और पात्रता के अनुसार उन्हें घर और जीवन जीने की सुविधाएँ मुहैया कराएँ।

.☘🌺भुटान से भारत में विलय होने के बाद डुवार्स की जमीन को आदिवासी और गोर्खाओं ने साफ करके उन्हें Reclaim किया। उन्हीं के परिश्रम से यहाँ चाय उद्योग बसे और फले फूले। उन्होंने कई अरब रूपये राज्य और केन्द्र सरकार को कमा कर दिए हैं। जिन लोगों ने पूरे डुवार्स को जंगलमुक्त किया, सरकार और बाजारों, शहरों को बसाने में अपने खून-पसीने एक किए क्या उन्हें जमीन का पट्टा पाने और अच्छे घर में रहने और विकास करने का कोई हक नहीं है ?

.☘🌺आखिर भारत की आजादी और संविधान का निर्माण किनके फायदे और हित के लिए हुआ है ?? माँ-माटी और मनुष्य की सरकार किनके हित में कार्य कर रही है? नेह इंदवार

चा सुंदरी के निर्माणधीन घर

धर्म के चोंचलेबाजी खोखले विचार

💐• धर्म के चोंचलेबाजी खोखले विचारों ने सदियों से मनुष्य के सोचने, समझने और स्वतंत्र पक्षपातरहित चिंतन करने की स्वभाविक प्राकृतिक शक्ति को तहस-नहस करके रख दिया है। मनुष्य को यह विभाजनकारी मानसिकता के कृत्रिमता के गहरे खड्डे में फेंक देता है और कट्टर धार्मिक व्यक्ति को बड़ी अजीबोगरीब व्यवहार करने के लिए मजबूर करता है।

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किसी को यह पूरब की ओर मुँह रखने को कहता है तो किसी को पश्चिम की ओर। किसी को दाड़ी मूँछ रखने के लिए कहता है तो किसी को मूँछ निकाल कर सिर्फ दाड़ी रखने के लिए कहता है। किसी को यह बडे़-बडे़ लबादा ओढने के लिए कहता है तो किसी को भरे बाज़ार में भी नंगे रहने के लिए मजबूर करता है। किसी को गुरूवार को पवित्र काम करने को कहता है तो किसी को शुक्रवार को और किसी को रविवार। किसी को यह 12 बज कर 20 मिनट के बाद बड़ा काम शुरू करने के लिए कहता है तो किसी को रात को बाल काटने से मना करता है और सूरज ढलने के बाद खाना खाने से भी मना करता है। कोई-कोई धर्म तो पेशाब-पैखाना करने का भी नियम बना डाला है। किस दिशा में खड़े होकर या बैठ कर या सोते हुए प्राकृतिक कार्य न करें, इसका भी बड़े जतन से बखान किया है। धर्म के अदृष्य हथियार से मानसिक रूप से घायल व्यक्ति वह सब करतब करता है, जिसे धर्म करने के लिए कहता है।

.💐धर्मोें में इतनी चोंचलीबाजी मौजूद है कि इस पर लिखने बैठो तो एक हजार पृष्ट के कुल साढे़ बीस खण्डों में एक नया धार्मिक (पवित्र 😝) पोथी ही तैयार हो जाएगा। गुमनामी निठल्लों को इतिहास में नया विश्व स्तरीय धर्म प्रवर्तक बनाने के लिए यह एक धाँसू विषय है। यूँ भी धर्म के नाम पर बिजनेस जितना जल्दी जमता है, उतना और किसी धंधे में नहीं। योग से लेकर आयुर्वेद और रातों रात शोध किए गए दवा बेचने वालों से इस संबंध में और कौन अधिक अनुभवी हो सकता है।

💐•धार्मिक लोग (असली या नकली) इन चोंचलेबाजी बातों को ईश्वरीय आदेश मानते हैं। इन विविधता भरी करतबी आदेशों के मूल स्रोतों के बारे पूछो वे अलग अलग पृष्टभूमि में लिखे सैकड़ों पोथियों की ओर इशारा करते हैं। उनका विश्वास है कि इन पोथियों में जो भी लिखा है वह अंतिम सत्य है। यह अंतिम सत्य क्या होता है ?? पूछने पर उनका दिमाग बगले झांकने लगता है या फिर आज से हजारों वर्ष पूर्व लिखे किताबों में पूर्व कल्पित, पूर्व वर्णित लंगड़े से परिभाषा को सामने रख देते हैं, जिसे हजारों बार उलट-पलट कर सिद्ध करो, लेकिन एक बार भी कोई परिणाम नहीं देता है।

इन किताबों के अनुसार ब्राह्माण्ड में एक नहीं अनेक ईश्वर हैं और सारे ईश्वर एक दूसरे के घोर विरोधी हैं और हमेशा एक दूसरे के विरूद्ध सिद्धांत पेश करते रहे हैं। ये ईश्वर हद दर्जे के साम्प्रदायिक भावनाओं से युक्त हैं और इनके अनुयायी भी इसी कारण कट्टर साम्प्रदायिकता से जीवन जीते हैं। इनकी किताबें कहतीं हैं कि उनके ईश्वरालयों में अथाह ब्राह्मण्लीय शक्तियों का वास होता है, लेकिन वह शक्ति कोरोना से डर कर भाग खड़ा हुआ और सुनते हैं, जो धार्मिक व्यक्ति आम जनता को 101 रूपये में अमरत्व बाँटते हैं, वह अमरात्व खुद उनके लिए कोई काम न आया। करीबन हजार से अधिक धार्मिक शक्ति बाँटने वाले, उन्हें धारण करने वाले और दुनिया को शक्तिशाली करने वाले कोरोना के कारण खेत रहे हैं।

.💐• संसार में धार्मिक विविधता या चोंचलेबाजी की जमींदारी, निरंकुश सत्ता, प्रभामंडल को अच्छुन्न बनाए रखने के लिए मनुष्य जाति ने पिछले कई हजार सालों से पृथ्वी के 50 प्रतिशत उर्जा और संसाधनों को इसमें झोंक दिया है। धर्म के नाम पर पृथ्वी के एक भी मनुष्येत्तर प्राणी (जानवर, चिड़ियाँ, अन्य जीव जंतुओं) ने एक केजी ऊर्जा और संसाधन का अपव्यय नहीं किया है। आज भी सबसे अधिक उर्जा और संसाधन इन्हीं खोखले धार्मिक विचारों के रक्षण और आरक्षण में लगाए जा रहे हैं। जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ रहा है। किसी को किसी सब्जी के मसाले से दुश्मनी है तो किसी को खास मनुष्यों से नफरत और खास जानवरों से प्यार है। धर्म अपने विरोधियों के लिए खास तरह के नफरत का सृजन करता है, और चाहता है कि उसके अनुयायी जीवन भर उन नफरतों को अपने जीवन में वरण करें और हर उस आदमी से भेदभाव करे, अन्यायी भाव रखे, पक्षपात करे या हिंसा (जिसमें हत्या तक शामिल है) करे, जो उनके धर्म को नहीं मानता है, धर्म का विरोध करता है या उनके धर्म के विचारों का विरोध करता है या चोंचलेबाजी के बारे बात करता है।

.💐• धर्म ने मानव जाति को जितना बेवकूफ बनाया है, उतना और किसी ने नहीं। धार्मिक किताबों में लिखी तमाम रहस्यजनक समझे जाने वाली बातों के छिलके को विज्ञान एक एक करके उतार रहा है। अधिकतर का कचूमर निकाल ही दिया है। धार्मिक आदमी विज्ञान के इन छिलकों और कचूमर का सार्वजनिक उपयोग तो करता है लेकिन व्यक्तिगत दिमाग के अंदरूनी हिस्से पर काबिज़ धार्मिक मन से वह उसे मानता नहीं।

.💐* वास्तव में धर्म ने धार्मिकों के मन और उसके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को जन्म और मृत्यु के रहस्यों के बंधनों से कस कर बाँध दिया गया है। हर धर्म के अपने-अपने प्राईवेट स्वर्ग और नरक है और उसके अपने-अपने नियम और कानून है। उन स्वर्ग और नरक में हर धर्म के अपने-अपने प्राईवेट ईश्वर और शैतान, पुण्यात्मक, हूर, परी और पापीत्मा रहते हैं। उनके वहाँ प्रवेश करने के भी तमाम नियम और कानून हैंं और उनके धार्मिक किताबों को इन सबके बारे विस्तृत जानकारी और ज्ञान हैं। धार्मिकों को इन नियम. कानून, स्वर्ग और नरक के कथाओं पर पूर्ण विश्वास है। उनके इन प्राईवेट लिमिटेड जगहों में उसके धर्म को नहीं मानने वालों के लिए प्रवेश निषेध का बोर्ड भी लगा हुआ है। वे तमाम करोडों वैज्ञानिक उपलब्धियों का लुफ़्त उठाते हैं, लेकिन वे अपनी किताबों के सामने इन वैज्ञानिक उपलब्धयों को नालायक ही समझते हैं। वे कहते भी हैं, कि वे और उनके किताब जितना ईश्वरों को जानते हैं, उतना ये निरे निखट्टू वैज्ञानिक क्या जानते हैं। .💐उन्हें वैज्ञानिक से अधिक विश्वास तो प्रवचन देने वाले, एक रूपये पच्चीस पैसे से विशाल ग्रहों के पथ को विचलित कर देने वालों पर अधिक विश्वास है। उनके श्रीमुख से धार्मिक किताबों में वर्णित ईश्वर स्वयं प्रवचन देते हैं। इसलिए वे वैज्ञानिक उपलब्धियों को देखते हुए भी तुरंत सिर घुमा कर नज़रों को धार्मिक बातों की ओर मोड़ लेता है। हर अनसुलझे रहस्य के लिए शुतुरमुर्गों की तरह धर्म की शरण में मुँह छुपा लेना और उसमें छिछले रूप से उसका कारण और उलजूलूल तर्क ढूँढना धर्म और असली-नकली धार्मिकों का शगल रहा है।

.💐पिछले एक हजार वर्ष पहले उनके देवता, ईश्वर इसी धरा पर कहीं गुप्त रूप से स्थित जगहों में रहते थे। फिर जैसे ही वैज्ञानिकों ने कहा कि सूर्य, चाँद, तारे पृथ्वी के चक्कर नहीं काटते हैं, बल्कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर काटता है, यह सिद्ध होते ही धार्मिकों ने अपने ईश्वरों की परिभाषा, उनके वासस्थान, उनके कार्य की प्रकृति और स्कोप को तुरंत संशोधन कर लिए। फिलहाल हर धर्म अभी ईश्वर को उन जगहों से नहीं जोड़ पाएँ हैं, जिन जगहों के बारे वैज्ञानिकों ने जानकारी उपलब्ध नहीं करवाया है। जैसे ही वैज्ञानिक स्ट्रिंग्स थ्योरी, थ्योरी ऑफ एवरीथिंग, मल्टीवर्स के बारे विस्तार से बताएँगे, धार्मिक ग्रुप उन जगहों पर अपने ईश्वरों को लेकर जाएँगे और वहाँ के फिजिकल सिद्धांतों को अपने ईश्वरों से जोड़ देंगे।

.💐• लेकिन विडंबना देखिए इन किताबों में हर रहस्य का ज्ञान होने के तमाम दावों के बाद भी आज तक कोई भी बड़बोले दावों को वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुरूप व्यावहारिक रूप में साबित नहीं कर पाया है। कुल मिला कर घुमा फिरा कर मानसिक शांति के चोंचेलबाजी विचारों की ओर बहस को खींच लिया जाता है। धार्मिक पोथियों के वजन को बढ़ाने के लिए समय समय पर उलटे सीधे दावे किए जाते रहते हैं। मानसिक अशांति के लिए दायी समस्याओं को खत्म करने की कोशिश करने के लिए प्रेरित करने के बजाय धार्मिक मनोविज्ञान धर्म में घुस कर मृगमरीचिकामयी शांति तलाशने के लिए निदेश देता है।.

💐• कभी कहा जाता है कि इन किताबों में विमान बनाने की विधि लिखी हुई है तो कहीं पोथी में किसी बैनेरी तारे के किसी ग्रह में आत्माओं का अंतिम ठिकाना होने का दावा। अनेक बार लोगों को सरगोशी की आवाज में काले पीले, नीले या हरे रंग के जीवित ईश्वर होने की आशा बंधायी जाती है। मतलब धार्मिक गुलाम बनाने के नये नये उपाय किए जाते रहते हैं और इसका शिकार मानसिक रूप से #पिछड़ा_अनपढ़_समाज सबसे अधिक होता है। क्योंकि उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सर्वदा अभाव रहता है। लकड़ी, पत्थर, मिट्टा की मूर्तियों, रोटी के टुकड़ों की प्राण प्रतिष्ठा करके उसे जीवित ईश्वर में बदला जाता है। लेकिन मृत व्यक्ति के शरीर में प्राण नहीं डाला जा सकता है। जबकि मृत शरीर के जी उठने की संभावना सबसे ज्यादा हो सकती है। यूएफओ, परग्रही एलियन की बातों को भी स्वर्ग से उतर कर आने वाले देवदूत, ईश्वर के रूप में चर्चा करके वैज्ञानिक विमर्श को ही उलटने की कोशिश इस वैज्ञानिक युग के दरमियान भी चालू ही है।

.💐• आज भी #पुरानी_पोथियों_की_पढ़ाई_बद्दस्तूर_चालू है। जितनी पढ़ाई इन किताबों की करते हैं, उतने ही धार्मिक चोंचलेबाजी के चक्कर में पड़ते जाते हैं। आज मनुष्य-मनुष्य के बीच जो #लडाईयाँ चल रही और समाज में जो #विभेद दिखाई देता है, उसकी चोंचलेबाजी पृष्टभूमि भी इन्हीं किताबों ने तैयार की है। संसार की आधी जनसंख्या इन्हीं किताबों की गुलामी करती है। इन किताबों के बाज़ार और धर्म के मुनाफा-जमींदारी-सिद्धांत ने आधुनिक राजनीति के न्याय सिद्धांत को मटियामेट कर दिया है।

.💐.देश की अधिकांश जनता को राजनीति के नाम पर धार्मिक कायदों से गुलाम बना दिया गया है। धर्म के नाम पर पूरे क्षेत्र को और समुदाय को दुश्मन मान लिया जाता है। धर्म के आफीम से संचालित समुदाय इसे ही सामाजिक और मानवीय न्याय की राजनीति समझ लेता है। धार्मिक पोथियों की चालाकी से निकले चोंचलेबाजी की किरणें वहाँ-वहाँ तक पहुँचती है, जहाँ-जहाँ किसी कवि की कल्पना नहीं पहुँचाती है। धर्म के चोंचलेबाजी-कसरती कल्पना से धाँसू कवि और लेखक भी मात खा जाते हैं।.

💐• लेकिन चालाक लोग इन किताबों की गुलामी से खुद को मुक्त कर चुके हैं और इन किताबों का उपयोग सहज रूप से दूसरों के दिमाग को गुलाम बनाने के लिए उपकरण के रूप में कर रहे है। घाघ राजनीतिज्ञ इसी वर्ग के मनुष्य होते हैं। बाकी के चालाक लोग कौन हैं इसे जानने के लिए दिमाग के परतों को खोलने की जरूरत है। इन घाघों को धर्म के नाम पर कभी रूपये पैसे की कमी नहीं हुई। ये समाज के अगुवा बने हुए फिरते हैं। दिमाग में पोंंगापंथी के आदत से बेजार हुए शिक्षित लोग भी इनके फेरे में रहते हैं।

.💐लेकिन दिमाग कब खुलेगा ? दिमाग तब खुलेगा जब आदिम जमाने में लिखी किताबों से सोचने की शक्ति पर लगाया गया नियंत्रण को हटाया जाएगा। नये जमाने के किताबों, ज्ञान और ज्ञान-सागर से गहरी दोस्ती का रिश्ता रखा जाएगा। यूरोप अमेरिका आदि पश्चिमी सभ्यता में धार्मिक चोंचलेबाजी से लोग आज़ाद होने लगे हैं, वे अपनी स्वतंत्र सोच के बल कर संकटग्रस्त पृथ्वी से परे किसी नये ग्रह में अपनी अस्तित्व बचाने के लिए जाने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन भारत में दिमागों को धर्म का गुलाम बनाए रखने के लिए हर रोज एक नया षड़यंत्र रचा जाता है। पिछड़े समाज इन षड़यंत्रियों के मुख्य शिकार हैं। ये षड़यंत्री कौन हैं यह देखने की दृष्टि पैदा करें नहीं तो चोंचलेबाज- भारतीय सभ्यता अगली सदी में भी प्रमुख सभ्यता के रूप में जिंदा रहेगी। — नेह इंदवार।

न बनें राजनैतिक पार्टी का गुलाम

नेह अर्जुन इंदवार

आप किसी पार्टी में शामिल होकर उस पार्टी का सदस्य बन जाते हैं तो आप अपनी पार्टी के छोटे-छोटे सही कार्यों की प्रशंसा करने के भोंपू बन जाते हैं।

.लेकिन आप अपनी पार्टी के बड़े-बड़े, भारी गलत कार्यों और नीतियों की आलोचना और विरोध नहीं कर पाते हैं। तब आपके मुँह पर ताला लग जाता है और आप वास्तविक रूप से पार्टी के गुलाम और धाँगर के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर लेते हैं। यहीं आप एक नागरिक के रूप में मार खा जाते हैं और आप स्वतंत्र रूप से अपने वोट की शक्ति का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं।

.राजनैतिक पार्टियों को भीतर से चलाने वाले भारी चालाक माफिया ढ़ाँचे में कार्यशील पूँजीवादी होते हैं। इन पूँजीपतियों के सामने बड़े-बड़े नेतागण नतमस्तक होते हैं। वे हर महीने गैर कानूनी ढंग से करोड़ों रूपये कमाने के स्रोत बनाए हुए होते हैं और वे कमाने के नये नये गैरकानूनी स्रोत ढ़ुढ़ते रहते हैं। चुनाव के मौसम में वे कितने खर्च करते हैं, आम आदमी इसका एक रफ़ अनुमान ही लगा सकते हैं।

.राजनैतिक पार्टियों को चुनाव में अंध समर्थन और वोट चाहिए होता है। जबकि संवैधानिक रूप से उन्हें अच्छी, जन कल्याणकारी नीति और कार्यों के बल पर वोट लेना चाहिए। .लेकिन भारत में राजनैतिक पार्टियां द्वारा खास जाति, धर्म, वर्ण, समुदाय और स्वार्थ से जुड़े कार्यों के लिए वोट का जुगाड़ किया जाता है। इन्हीं गैर संवैधानिक और गैर कानूनी कार्यों को पूरा करने के लिए उन्हें पार्टी के सदस्य बने अंध समर्थक चाहिए होता है। जो उनके गलत कार्यों का अंधा बन कर समर्थन करें, भले उससे देश और समाज का कितना भी नुकसान हो।

.जब भी कोई आम नागरिक किसी पार्टी की सदस्यता लेता है, वह दिल और दिमाग से उस पार्टी का अंध समर्थक बन जाता है। फिर उसे दूसरी पार्टी के गलत कार्य और नीति तो दिखाई देता है, लेकिन अपनी पार्टी के माफिया नेताओं की कारगुजारी दिखाई नहीं देते हैं।

.दिल्ली, कोलकाता आदि जगहों से अदृश्य रूप से पार्टी चलाने वाले पूँजीपतियों को ऐसे अंधे पार्टी समर्थक पाकर बहुत खुशी होती है और वे अगले 10 साल तक उन्हें इस्तेमाल करने के लिए योजनाएँ बनाना शुरू कर देते हैं।

.देश के सीधे साधे आम नागरिक कुछ मुट्ठीभर लोगों के दूरगामी स्वार्थों को पूरा करने का उपकरण बन जाते हैं और वे अपने वोट को किसी अच्छे, योग्य उम्मीदवार, किसी पार्टी की अच्छी नीतियों को देने के बजाय अपनी पार्टी के अयोग्य नेताओं के नाम कुर्बान कर देते हैं। .और देश और समाज यहीं पर मार खा जाता है। गाय बैल बकरी की तरह इस्तेमाल होने वाले वोटर देश निर्माण में कोई सृजनात्मक भूमिका निभा नहीं पाते हैं और वे चुनाव के बाद सिर्फ पछतावा करते रहते हैं।

बागान घर का पट्टा

👀🌷#Kind_Attention_Dooars_Terai :- ( लेख लम्बा है लेकिन #Land_Patta के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है)

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नेह इंदवार
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👉 डुवार्स और तराई के करीबन 300 चाय बागान 140,000 हेक्टेयर भूमि में फैला हुए हैं। अधिकतम भूमि का असली मालिक पश्चिम बंगाल सरकार है, और चाय बागानों को #चाय_की_खेती के लिए 30 वर्ष के लीज पर जमीन देती है। इसके अलावा भी अनेक चाय बागान प्रबंधनों ने आदिवासी-नेपाली कृषकों को बहला-फुसला कर उनकी भूमि को अवैध रूप से चाय बागान में मिला लिया है और चालाकी से उन्हें स्वतंत्र कृषक से चाय बागान का मजदूर बना दिया है। अनेक चाय बागान अपनी पूरी लीज जमीन में चाय की खेती करने में असमर्थ हैं, वहीं अनेक बागान लीज से अधिक भूमि पर चाय की खेती कर रहे हैं। जमीन लीज शर्तों के अनुसार यदि कोई कंपनी किसी लीज भूमि पर पाँच वर्षों के भीतर चाय की खेती नहीं कर पाता है तो वह जमीन अपने आप सरकार के खाते में चली जाएगी। लेकिन कई बागान 50-100 वर्ष बाद भी मजदूरों से धान फसल वाले खेतों को छीनने की कोशिश करते रहते हैं।

. 🍀👉राज्य सरकार की नीतियों के अनुसार सरकारी भूमि का अबंटन कृषि और आवास के लिए दिया जा सकता है। आइए देखते हैं कि कानून में भूमि संबंधी क्या प्रावधान है ?

. 🍀आवासहीन, भूमिहीन, गरीब जनता, जिनका आवास के लिए अपना कोई भूमि नहीं है, इसके अलावा जिनके पास कृषि कार्य के लिए भी भूमि नहीं है, के लिए The West Bengal Land and Land Reforms Manual कहता है :- (देखें West Bengal Land and Land Reforms Manual Chapter XIII- Settlement of agriculture at the disposal of government) Section 190 कहता है :- 👉“The area of land that may be settled with a person for the purpose of homestead having no homestead of his own shall not exceed 5 cottahs or 0.0335 hectare. अर्थात् जिस व्यक्ति के पास अपने आवास के उद्देश्य के लिए कोई आवासीय भूखण्ड नहीं है, उन्हें अधिकतम #5 कट्टा (5 cottahs or 0.0335 hectare) भूमि आबंटित किया जा सकता है। . 🍀👉लेकिन इसी कानून के सेक्सन 193 (नीचे अंग्रेजी में पढ़ें) के तहत कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति या ऐसे किसी भी व्यक्ति के परिवार के सदस्य के साथ जो किसी भी व्यवसाय, व्यापार, उपक्रम, निर्माण, कॉलिंग, सेवा या औद्योगिक व्यवसाय में लगे हुए हैं या कार्यरत हैं, को कोई भूमि आबंटित नहीं की जाएगी। हालांकि यह एक #खेतिहर_मजदूर, कारीगर या मछुआरों पर लागू नहीं होता है।

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👉Section 193 कहता है :- no land can be distributed under sections 49 (1) any person or with a member of the family of any such person who is engaged or employed in any business, trade, undertaking, manufacture, calling, service or industrial occupation. This does not, however, apply to an #agricultural_labourers, artisan or fishermen.

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👉चाय बागानों की सरकारी लीज भूमि के संभावित आबंटन के विरोधी West Bengal Land and Land Reforms Manual Chapter XIII के इस प्रावधान का तर्क देते हैं।

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👉वहीं राज्य West Bengal Estate Acquisition Act, 1953, के अनुसार –“The land can only be leased out for #tea_cultivation. The lessee or the company, without reducing the Plantation Area, may use the land for horticulture and growing medicinal plants on an area not more than 3 per cent of the total grant area of the garden.

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👉अर्थात् #चाय_की_खेती के लिए भूमि को केवल पट्टे पर दिया जा सकता है। प्लांटेशन एरिया को कम किए बिना पट्टेदार या कंपनी, बागवानी के लिए भूमि का उपयोग कर सकती है और बगीचे के कुल अनुदान क्षेत्र का 3 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र पर औषधीय पौधों (के एरिया) को नहीं बढ़ा सकती है।

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👉इस कानून में साफ कहा गया है कि सरकार #चाय_की_खेती के लिए भूमि को पट्टे पर देती है। यहाँ जमीन किसी व्यापार, व्यवसाय, विनिर्माण आदि के लिए नहीं दी जाती है। चाय बागान को #चाय_की_खेती_कहा_गया है। चाय मजदूर भी चाय के खेतों में काम करने वाले #खेतीहर_मजदूर हैं।

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👉उपरोक्त दो अनुच्छेद से यह स्पष्ट है की चाय बागान के औद्योगिक कार्यकलापों को सरकार #एग्रीकल्चर_सेक्टर के कार्यकलाप मानती है। चाय बागान के लिए एरिया में 03% से अधिक भूमि में चाय के सिवाय और किसी भी अन्य नगदी फसलों को नहीं उगाया जा सकता है। 97 % क्षेत्र को चाय उत्पादन के लिए उपयोग करना बाध्यकारी रूल्स है।

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👉पुनः आईए देखते हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार की नजरों में चाय बागान कौन से सेक्टर का कार्यकलाप है ? 30 जनवरी 2018 को पश्चिम बंगाल राज्य के वित्त मंत्री श्री अमित मित्र का पश्चिम बंगाल विधानसभा में राज्य बजट पेश करते समय दिए गए एक बयान पर गौर करें :-👉in a bid to help revive the tea industry, the West Bengal government has fully exempted tea garden from 👉#payment_of_agriculture_income_tax for two fiscal year (2019 and 2020).

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👉डुवार्स तराई के सभी मित्र इन्हें नोट करें कि पश्चिम बंगाल राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्र जी चाय बागानों को #एग्रीकल्चर_इनकम टैक्स से छूट दे रहे हैं। मतलब चाय बागान Agriculture Sector है।

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👉उपरोक्त का संक्षिप्त अर्थ यह हुआ कि चाय बागान क्षेत्र #एग्रीकल्चर_सेक्टर क्षेत्र है और यह manufacture, service or industrial sector नहीं है।

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👉इसलिए चाय बागान के भूमिहीन आवास हीन मजदूरों को सरकारी भूमि को आवास बनाने के लिए प्राप्त करने का हक है और वह इसके पात्र हैं। इस मामले में किसी भी तरह की कोई कानूनी अड़चन नहीं है।

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👉ममता बनर्जी की सरकार ने चाय बागानों में रहने वाले भूमिहीन, आवासहीन चाय मजदूरों को आवास के लिए भूमि पट्टा देने का वादा किया हुआ है। ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव के मौके पर सुभाषिनी चाय बागान, टियाबोन (चालसा) तथा कुमारग्राम में दिए अपने चुनावी भाषण में घोषणा की थी कि जल्द ही चाय बागान मजदूरों को आवासीय लीज दिए जाएँगे। इसके लिए ममता दीदी ने राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक समिति गठन करने का भी आदेश दिया था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि सत्ताधारी नेतागण इस मामले में कानूनी अड़चन आड़े आने की बात करके इसे टालते रहे हैं। उत्तर बंगाल से निर्वार्चित विधायक और एमपी राज्य सरकार से पूछें कि ममता बनर्जी द्वारा मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित समिति ने आवास पट्टा के संबंध में क्या रिपोर्ट दी है। इसे विधानसभा में पूछना ज्यादा उचित है।

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👉उपरोक्त जानकारी के आलोक में चाय मजदूर सरकार और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं से पूछ सकते हैं कि वे चाय मजदूरों को आवास अधिकार के तहत भूमि का पट्टा क्यों नहीं दे रहे हैं???

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👉चाय मजदूर 1868 से ही डुवार्स के चाय बागानों में बस गए हैं। The Plantation Labour Act 1951 के पूर्व चाय बागानों में क्वार्टर देने का कोई कानूनी प्रावधान नहीं था। ब्रिटिश शासन के दौरान चाय मजदूर अपने झोपड़ियों का प्रबंधन खुद करते थे और इसके लिए वे चाय बागानों के बगल के जंगलों को साफ करके अपने गाँव बसाए थे। Transport of Native Labourers Act of 1863, the Bengal Acts of 1865 and 1870, the Inland Emigration Act of 1893, the Assam Labour and Emigration Acts of 1901 and 1915, और the Tea Districts Emigrant Labour Act of 1932 के द्वारा Indentured Labour चाय बागानों में लाए जाते थे।

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.👉तब Agreement करके उन्हें असम और बंगाल लाए जाते थे। एग्रिमेंट में 1) तीन साल के लिए कार्य करने की सीमा (विदेश के मामले पर यह पाँच साल) 2) उचित वेतन का भुगतान 3) रहने की अपनी जगह का उल्लेख होता था। एग्रीमेंट में ये प्रावधान होने के बावजूद मजदूरों को खुद जंगल साफ करके अपने रहने की जगह बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। क्योंकि तब के जमाने में जमीन बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध हुआ करती थी और बागान के आसपास बहुत बड़े-बड़े जंगल होते थे, जहाँ से ब्रिटिश सरकार को कोई मालगुजारी या टैक्स आदि नहीं मिलते थे। इसी कारण आदिवासी और गोर्खा मजदूर अपने रहने के लिए भूमि की व्यवस्था खुद करते थे। उनके गाँव-जमीन से बागान प्रबंधन का कोई लेना देना नहीं था। लेकिन The Plantation Labour Act 1951 में क्वार्टर देने के प्रावधान बन जाने के कारण मजदूरों के गाँव की जमीन को West Bengal Estates Acquisition Act, 1953. Act 1 of 1954 द्वारा अधिकृत करके चाय बागान मालिकों को सौप दिए गए और बागान प्रबंधन ने वहाँ मजदूर क्वार्टर बनाए। लेकिन 70 वर्ष बीत जाने के बावजूद सभी चाय मजदूरों को न तो क्वार्टर मिला और न ही बने क्वार्टरों का कोई रखरखाव किया गया। फलतः मजदूर बाध्य होकर अपने पैसों से घरों का रखरखाव करने लगे हैं।

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👉केन्द्र सरकार ने सन् 2022 तक सभी नागरिकों को आवास मुहैया करने का ऐलान किया है। (सांसद महोदय इस बारे केन्द्र सरकार से पत्रचार करें) राज्य सरकार भी विभिन्न आवास योजनाओं के माध्यम से गरीबों, बेघर वालों को आवास उपलब्ध करा रही है। चाय बागानों में स्थानीय सरकार अर्थात् त्रिस्तरीय पंचायत के माध्यम से नागरिक सुविधाएँ मिल रही है। चाय बागान प्रबंधन The Plantation Labour Act 1951 के प्रावधान से बंधे होने के कारण मजदूर बस्तियों के कर्तव्य से खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में राज्य सरकार को इस संबंध में केन्द्र सरकार के साथ परामर्श करके तुरंत निर्णय लेकर चाय मजदूरों को आवासीय भूखंड उपलब्ध कराए।

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👉अलिपुरद्वार, कुचबिहार, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग के सांसद असम, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु के सांसदों से मिल कर टी प्लान्टेशन एक्ट में क्वार्टर देने के प्रावधान को निकालने या उसे वैकल्पिक बनाने के लिए संसद में बिल पेश कर सकते हैं।

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👉ग्राम पंचायत के ग्राम संसद 💪 में सभी मजदूर, मजदूर संघ और अन्य नागरिक शामिल हो कर घर के पट्टा देने के लिए बागानों में स्थित पंचायतों में प्रस्ताव पास कर सकते हैं, जिसे राज्य और केन्द्र सरकार को भेजा जा सकता है। इस लेख को अधिकतम शेयर, ह्वाट्सएप, ईमेल करें नेह_इंद। Published
2021/05/31 at 10:14 pm

सांसद लोकसभा में उठाएँ चाय मजदूरों के मुद्दे

#kind_attention_of_Dooar_Teraiलोकसभा चुनाव के बाद 25 मई 2019 को मैंने चाय बागानों में बसे गरीब मजदूरों के विकास के लिए नये चुने गए सांसदों को #10_सुझाव दिया था। ये #सुझाव बहुत #महत्वपूर्ण और #असरकारक_सुझाव हैं, क्योंकि इन सुझावों के पूरे होने से चाय अंचल के #आर्थिक और #सामाजिक_जीवन में #बहुत_महत्वपूर्ण_परिवर्तन आएँगे। पूरे चाय अंचल को ये उम्मीद थी कि बीजेपी पार्टी के चुने गए #नये_सांसद_जनता_की_भलाई_के_लिए_काम_करेंगे। लेकिन 2 वर्ष हो गए, #इन#सांसदों_ने_10_में_से_एक_भी_सुझाव_पर_कोई_ध्यान_नहीं_दिया और आज भी चाय मजदूर उन्हीं समस्याओं के बीच अपनी जिंदगी जीने के लिए विवश हैं। इन नेताओं को वोट देने से जनता को क्या फर्क पड़ा है ? सवाल उठना लाजमी है कि #क्या_ये_सांसद_अपनी_योग्यताओं_का_कोई_सबूत_पेश_किए_हैं ???????????????????????? #सवाल_है_कि_ये_किनके_प्रतिनिधि_हैं_और#किनके_लिए_काम_कर_रहे_हैं ???????????? कृपया समय निकाल कर पूरे पोस्ट को #पढे़ और ठण्डे दिमाग से #चिंतन_करें। .#यह_रहा_दो_साल_पुराना_पोस्ट👇

👉 दोस्तों कल मैंने न्यूनतम वेतन और पट्टा से गरीब चाय मजदूरों को वंचित करने, उनके शोषण को जारी रखने के लिए लालची, शोषक, भ्रष्ट, अक्षम, और भावनाहीन ट्रेड युनियन #नेता, #एमएलए, #एमपी, #मंत्री और पार्टी के #पदाधिकारियों को धन्यवाद दिया था। इन लोगों की कार्य क्षमताहीन मानसिकता के कारण मजदूरों को न्याय अब तक नहीं मिला है। न्याय नहीं मिलने के कारण इनके विरूद्ध में अभियान चलाया गया और भारी असंतुष्टी के साथ बीजेपी को वोट दिया गया। बीजेपी को विजयी बनाने में सबसे बड़ा हाथ #तृणमूल कांग्रेस के महान नेताओं का रहा है। .आज मैं लोकसभा में चुनाव जीते हुए अलिपुरद्वार के सांसद John Barla जोन बारला, जलपाईगुड़ी के डा. जयंत कुमार राय, कुचबिहार के निशिथ प्रमाणिक दार्जिलिंग के राजू बिष्ट को बधाई देता हूँ। जनता ने उन्हें अपनी डुबती हुई आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारी संख्या में वोट दिए और वे आज सांसद बन गए हैं।

इन चारों सांसदों के लोकसभा चुनाव क्षेत्र में चाय बागान स्थित हैं और चाय बागानों की क्लासिकल समस्यों को सुलझाने का दायित्व उनके कंधों पर रख दिया गया है। फिलहाल हम नये नेतृत्व का स्वागत करते हैं। यद्यपि राजू बिष्ट को छोड़कर अधिकतर नेतागण उत्तर बंगाल की ही पृष्टभूमि से हैं और चाय बागानों की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ हैं, लेकिन कई बातों को उनके समक्ष रखना हम उचित समझते हैं। जनता अपनी बात लगातार नेताओं के सामने रखेंगे तो नेता भी उन समस्याओं को जल्द निपटारे के लिए उत्सुक होते हैं। चाय बागानों की मूल समस्या #अल्प_मजदूरी, घर के जमीन का अधिकार (#पट्टा) न होना, #पीएफ और #ग्रेज्युएटी की लूट, #शिक्षा, #प्रशिक्षण, रोजगारी की कमी आदि है। जिस पर नज़र डालने और ठोस रूप से कार्य करने की जरूरत है। ये नेतागण इन समस्याओं को सुलझाने के लिए तत्कालिक रूप से क्या कर सकते हैं ?

ये #सांसद_संसद_में_चाय_बागानों_की_निम्नलिखित_बातों_को_उठाकर उस पर #कार्यवाही_की_मांग_कर_सकते_हैं।

.#1) चाय बागानों की समस्याओं पर सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड जज या संभव हो तो सिटींग जज को लेकर #एक_जाँच_कमिशन (#Enquiry_Commission) #गठन #करने_की_मांग_करें। यह कमिशन चाय बागानों से संबंधित सभी तरह के कानूनी पहलूओं पर अध्ययन करके सरकार को अपनी रिपोर्ट छह माह में सौंपे।

.#2) चाय बागानों में #मजदूरों_के_साथ_होने_वाले_नीतिगत_कानूनी_भेदभाव, #संवैधानिक_मौलिक_अधिकार_यथा- #समानता_का_अधिकार, #रोजगार और #आय_में_भेदभाव, #सामाजिक, #आर्थिक_शोषण, उन्हें #स्थायी और #जमीनी #पट्टा_के_साथ_आवास_के_अधिकारों_से_वंचित_रखने_की_नीतियों पर वे सम्मिलित रूप से तैयार एक #रिपोर्ट को #संसद में पेश करें और रिपोर्ट में दर्शाए गए बिन्दुओं पर कार्यन्वयन रिपोर्ट संसद में पेश करने के लिए प्रस्ताव पेश करें।.

#3) वे केन्द्र सरकार के अधीन कार्यरत Ministry for Labour & Employment से अनुरोध करें कि गरीब मजदूरों के #Provident_Fund के गबन करने वाले कंपनियों के कर्ताधर्ताओं पर #एफआईआर दर्ज करके ऐसे कंपनियों के रजिस्ट्रेशन को रद्द किया जाए और आर्थिक अपराधियों को #गिरफ्तार किया जाए।

.#4) Central Provident Fund Commissioner ऐसे आर्थिक अपराधियों को सजा देने के लिए नये दिशा निर्देश जारी करे और चाय बागानों के पीएफ घोटालों पर तत्काल कार्रवाई करने के लिए एक कार्यदल का गठन करें।

.#5) चाय बागानों में #Pesticide और अन्य #Chemicals के प्रयोग पर नये नियम बनाया जाए और चाय बागानों में मजदूरों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वालों के विरूद् में कठोर कार्रवाई किया जाए और तत्संबंधी कार्यवाही की #निगरानी_केन्द्रीय_एजेंसियों के द्वारा किया जाए।

.#6) पाँच एकड़ से उपर के जमीन पर चाय की खेती करने पर The Plantation Labour Act लागू होता है। वे संसद में प्रस्ताव पेश करें कि एक एकड़ में चाय की खेती करने वाले लघु उद्योग पर भी PLA में उल्लेखित लेबर कल्याण की धाराओं को लागू कराया जाए।.

#7) पश्चिम बंगाल और असम के चाय बागान सरकारी जमीन पर बनाए गए हैं। वे केन्द्र सरकार और राज्य सरकार से सम्मिलित रूप से आवेदन करें कि बागान में लेबर क्वार्टर के जमीन को चाय बागान के लीज से बाहर किया जाए और डीलीज (लीज से बाहर किए गए) जमीन को सौ सालों से बसे परिवारों के नाम पट्टा के माध्यम से वितरित किया जाए। .

#8) वे संसद में सरकार से मांग करें कि टी बोर्ड के अधीन गठित किए जाने वाले #लेबर_वेल्फेयर_कमिटी_के_रिपोर्ट_को_हर_साल_संसद_में_पेश_किया_जाए और उक्त रिपोर्ट में उल्लेखित अनुशंसाओं को चाय अंचल के विभिन्न स्थानीय वेल्फेयर बोर्ड को भी मुहैया कराया जाए।

.#9) उत्तर बंगाल के चाय अंचल से संबंध रखने वाले सभी सांसद सम्मिलित रूप से राज्य सरकार से मांग करें कि राज्य सरकार द्वार गठित #न्यूनतम_वेतन #सलाहकार_समिति के कामकाज को राज्य सरकार तुरंत पूरा करे और उसकी अनुशंसा के तुरंत लागू करे। वे मांग करें कि उन्हें उस समिति में पदेन सदस्य के रूप में शामिल किया जाए।

. #10) अलिपुरद्वार, जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग के संसद अपने MPLAD फंड से सम्मिलित रूप से डुवार्स या तराई में एक #Skills_Development_Centre बनाएँ, जहाँ चाय बागानों के बच्चों को रोजगारमूलक प्रशिक्षण देने के लिए कम से कम #50_प्रतिशत_सीट_आरक्षित_रखा_जाए।

.चाय मजदूरों के जीवन में अमूलचुल परिवर्तन करने के लिए और भी दर्जनों मांग हैं, या भविष्य में आ सकते हैं। लेकिन फिलहाल नये सांसद इन विषयों पर छह महीने के अंदर ठोस रूप से कार्य करें तो चाय बागानों की #सामाजिक_आर्थिक #दशा_बदल_सकती है। मैं फेसबुक के अपने साथियों से अनुरोध करता हूँ कि वे इस पोस्ट को save करें या प्रिंट करके रख लें, ताकि हम इन मांगों पर अपनी बातें समयानुसार फिर से प्रस्तुत कर सकेंगे। कृपया इन मांगों पर अपने अपने लेवल पर चर्चा करें, और नये सांसदों को अपनी ओर से लिखित में मांग पत्र के रूप में पेश करें।👀 नेह इंदवार👈

सादे कागज पर कभी न करें एग्रीमेंट

#डुवार्स_तराई_के_ध्यानार्थ_एक_आवश्यक_सुझाव

नेह इंदवार

करीबन दो साल पहले मई 2019 की बात है। पश्चिम मध्य डुवार्स के एक बागान में नयी कंपनी आई थी और लोगों को पुराने पीएफ, ग्रेज्युएटी, वेतन- राशन आदि बिना दिए बागान चालू करना चाह रही थी। मजदूरों ने पुराने पावना राशि आदि के लिए आंदोलन चलाया हुआ था।

मजदूरों ने अपने बीच से ही नये लीडर का चुनाव कर लिया था और राजनैतिक पार्टियों से जुड़े नेताओं को अपने आंदोलन से पूरी तरह अलग-थलग कर दिया था। राजनैतिक पार्टियों से जुड़े नेतागण मजदूरों के नेता बनने के लिए बुरी तरह तड़प रहे थे और नये नेताओं के प्रति उनके मन में दुर्भावना घर कर गया था।

.एक दिन एक मिटिंग हुई और पुराने नेताओं ने कुछ उपद्रवियों को उस मिटिंग में गड़बड़ी करने के लिए भेज दिए और वे वहाँ आकर महिलाओं के कपड़े फाड़ दिए थे। मैंने तुरंत उनलोगों पर एफआईदर्ज करने के लिए उन महिलाओं का साथ देने के लिए अनेक लोगों से संपर्क किया। लेकिन पुराने घाघ नेताओं ने पहले तो उन्हें धमकाया, फिर जब महिलाओं की कानूनी कार्रवाई पर दृढता देखा तो उनसे माफी मांग ली। एक बागान में रहने वाली महिलाओं ने भविष्य तक दुश्मनी न चले यह सोच कर उन्हें माफी दे दी।

.आंदोलन चल रहा था। कंपनी अपना कार्यालय और अन्य काम-धाम खोल कर रखा था, लेकिन कोई मजदूर काम पर नहीं जा रहे थे। कई ठेकेदारनुमा नेता आए और उन्हें ठग कर काम पर निकलने के लिए कई पैंतरें मारे, लेकिन मजदूर काम पर नहीं गए। फिर एक दिन नया-नया चुनाव जीता हुए एक नेता आया- अपनी जान-पहचान के वास्ता दिया और महिला नेताओं को जबरदस्ती लेकर मालिकों संघ के एक कार्यालय में लेकर उन्हें गया और एक सादे पेपर पर कुछ समझौता करवाया और दूसरे दिन से सभी को काम पर जाने का आदेश सुना दिया। कुछ लोग दूसरे दिन काम पर गए और फिर नेताओं और मालिकों का गठजोड़ ने उस बागान के आंदोलन को खत्म करवा दिया।

.बागान के अनपढ़ मजदूरों को वेतन या काम समझौते के नाम पर सादे कागज में हस्ताक्षर करवा कर ठगने के अनेक मामले आते ही रहते हैं। हाल ही में बीरपाड़ा इलाके के एक बागान टुकड़ा जटेश्वर में मजदूर आंदोलन को खत्म करने के लिए एक बैठक प्रशासन द्वारा बुलाया गया था, लेकिन वहाँ मजदूर और नया मालिक बन कर आए प्रबंधकों के बीच समझौता करने के लिए कहा जा रहा था। वास्तव में प्रशासन यदि कोई पहल कर रहा है और उसके पहल से कोई समझौता किया जाता है तो ऐसे सभी समझौते को त्रिपक्षीय समझौते के रूप में हस्ताक्षरित किया जाना चाहिए। कोई भी Bipartite या Tripartite Agreement हमेशा Indian Contract Act,1872 के तहत किया जाना चाहिए और इसे कोर्ट के स्टैम्प पेपर पर ही किसी वकील के द्वारा तैयार किया जाना चाहिए।

.प्रशासन के कार्यालय या चाय बागान मालिकों के एसोसियेशन के कार्यालय में सादे कागज में किया गया एग्रीमेंट का कानूनी नज़र में कोई महत्व नहीं होता है। वह महज कागज का एक टुकड़ा होता है, जिसे कोई भी कोर्ट कोई महत्व नहीं देता है। ऐसा कागज ठगी करने का एक पूर्जा होता है। .त्रिपक्षीय समझौते का एक उद्देश्य यह होता है कि समझौते में किए गए वादे, नियम और शर्तों को यदि तोड़ा जाता है और पीड़ित पक्ष इसे लेकर कोर्ट या किसी पंचाट के पास जाता है तो तीसरा पक्ष एग्रीमेंट में लिखी बातों का पुष्टि करने वाले पक्ष के रूप में कार्य करता है। किसी भी उद्योग में न्यूनतम वेतन से कम देकर मजदूरों से काम नहीं कराया जा सकता है। यदि बंद बागान में मजदूर खुद कॉओपरेटिव बना कर कार्य कर रहे हैं और कॉओपरेटिव में उन्हें 202 रूपये की जगह 250-300 रूपये मजदूरी मिल रही है तो नयी कंपनी जो सरकार के द्वारा वैध रूप से बागान का लीज नहीं लिया है और जो बागान के पुराने पावना आदि को देने के लिए तैयार नहीं है और न ही जो पीएफ कार्यालय में खुद को एक पीएफ कानून के अधीन रजिस्टर कराया है, वह 250-300 रूपये से कम मजदूरी देकर बागान हड़प नहीं सकता है। मजदूरों को जब 250-300 रूपये काम के मिल रहे हैं तो उन्हें 202 रूपये में काम कराना उनके साथ ठगी करना ही है। यह आर्थिक शोषण है और इसकी अनुमति राज्य प्रशासन कैसे दे रही है, यह भी एक बड़ा सवाल है।

.मजदूरों और बागान मालिकों के बीच किसी भी प्रकार के समझौता में भारतीय मजदूरी कानून, पीएफ कानून, राशन, स्वास्थ्य सेवा, अस्पताल, दवाई, डाक्टर, नर्स, एम्बुलेंस, Outdoor treament पर Reimbursement, बच्चों के स्कूली गाडी, क्वार्टर के मरम्मत, ज्वालनी लकड़ी की आपूर्ति, बिजली, पानी आदि उन तमाम शर्त जो आम तौर से चाय मजदूरों को मिलना चाहिए, का उल्लेख होना चाहिए। यदि उपरोक्त विषयों को किसी समझौते में शामिल नहीं किया जाता है और सिर्फ सूखा वेतन देने की बात की जाती है तो 2015 में हुए अंतरवर्तीकालीन वेतन समझौते के अनुसार प्रत्येक मजदूर को 289 रूपये से कम मजदूरी नहीं दी जा सकती है। चाय मजदूरों के लिए हस्ताक्षरित उक्त समझौते में 289 रूपये सूखा वेतन (बिना फ्रींज बेनेफिट्स के) समझौते हो चुका है और इसे लेकर राज्य के श्रम मंत्रालय भी कार्यवाई करने के लिए मजबूर होगा, क्योंकि 2015 के समझौता में पश्चिम बंगाल सरकार भी एक सिग्लेटरी है।

.टुकड़ा जटेश्वर के मजदूरों को चाहिए कि वे ऐसे किसी भी समझौता पर हस्ताक्षर न करें, जिस पर प्रशासन हस्ताक्षर करने से इंकार करता हो और जो सादे कागज पर कराया जा रहा है। चूँकि डंकन्स कंपनी के छोड़े गए बागानों पर NCLT का अभी कोई निर्णय नहीं आया है, इसलिए बागान मजदूर नये मालिक के साथ हुए समझौते की एक प्रति को NCLT में भेजे ताकि नये मालिक के कंपनी की असलियत सामने आ जाए और नेताओं के कंपनियों के द्वारा डुवार्स में किए जा रहे आर्थिक शोषण की बात को सार्वजनिक रूप से स्थापित किया जा सके। भारत में कारोबार करने के लिए कंपनी एक्ट के अधीन किसी भी संस्था को कंपनी के रूप में रजिस्टर्ड करना होता है और कंपनी एक्ट के अधीन टैक्स और डायरेक्टरों का नामांकन करना होता है और डायरेक्टरों को सरकार डिजीटल सिग्नेचर जारी करता है। इस प्रक्रिया के बिना कोई कंपनी कारोबार नहीं कर सकती है। जीएसटी कानून के अधीन हर कंपनी को माह के 8 तारीख तक टैक्स जमा करना होता है।

चाय बागानों में कारोबार करने के लिए कंपनी को राज्य सरकार और टी बोर्ड में रजिस्ट्री करा कर लीज लेना होता है। सलामी राशि जमा होने पर ही राज्य सरकार उसे बागान सौंपता है। इसके लिए पीएफ कार्यालय और श्रम कार्यालय दोनों जगह कई कानूनों को पूरा करने के लिए आवेदन देकर रजिस्टर कराना होता है। यह किए बिना कोई कंपनी कारोबार करती है तो वह अवैध है और ऐसे कंपनी ठग कंपनी होती है और वे कभी भी मजदूरों को ठग कर भाग सकती है।

.डुवार्स में कई नेतागण नकली कंपनी बना कर बंद बागानों पर कब्जा करने के षड़यंत्र करते रहते हैं और वे न तो पीएफ देते हैं और न ग्रेज्युएटी और न ही पुराना देना-पावना। वे मजदूरों के स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी कोई उत्तरदायित्व भी नहीं लेते हैं। ऐसे में ऐसी कंपनियाँ मजदूरों को ठगने और उनका शोषण करने के लिए ही डुवार्स में आती हैं और भ्रष्ट नेताओं के साथ सांठगाँठ करके मजदूरों का खून चुसती है।

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संवारे जीवन मनोविज्ञान

                    

मनोविज्ञान से व्यक्तित्व विकास

                                                                      नेह इंदवार

आमतौर से यह माना जाता है कि मनोविज्ञान विशेषज्ञों का विषय है। हालांकि पेशेवर रूप से इसे सार्वजनिक प्रैक्टिस करने के लिए क्वालिफाईड विशेषज्ञों को ही अनुमति दी जाती है। लेकिन आम लोग भी मनोविज्ञान का सामान्य अध्ययन करके इसे अपने जीवन में रोज़मर्रा के कार्यों में प्रयोग कर सकते हैं। यह वास्तविक है कि मनोविज्ञान विषय के अध्ययन अध्यापन के युगों पहले से ही दैनिक व्यवहार में इसे प्रयोग में लाया जाता रहा है।

मनोविज्ञान की जानकारी जीवन को खुश-नुमा बनाने, समस्याओं को हल करने, अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव लाने, कठिन परिस्थितियों को संभालने, अपरिचित लोगों से स्थायी संबंध बनाने के पूर्व उनकी मानसिकता, सोच और जीवन दृष्टि को समझने आदि हजारों कार्य के लिए बहुत काम के सिद्ध होते हैं। मनोविज्ञान की जानकारी व्यक्ति के नज़रिए, सोच, कार्य, लक्ष्य, आदत आदि को बहुत प्रभावित करता है।

यह गलतियाँ करने से व्यक्ति को बचाता है और लोगों को सुधारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सोच, व्यवहार के स्तर पर हजारों तरह के कार्य अपरोक्ष या परोक्ष करता है। मनोविज्ञान की सामान्य जानकारी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के काम में भी बखूबी काम में आता है। जीवन के लिए तय उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति में मनोविज्ञान की जानकारी बहुत सहायक होते हैं।

मनोविज्ञान में दक्ष व्यक्ति इसका प्रयोग करते हुए अपनी बातों में परिस्थितियों के अनुसार प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। उनकी बातों में गुंथे हुए शब्दों और वाक्यों में चमत्कार होते हैं। वे किसी व्यक्ति के दिमाग के अंदरूनी हिस्से में पहुँच कर सोच और आदत को बदलने की शक्ति से युक्त भाषा और वाक्य बोलने में दक्ष होते हैं और व्यक्ति को लक्षित करके खास उद्देश्यों के लिए बोले गए शब्द अपने काम कर जाते हैं। यह व्यक्ति के खोए हुए आत्मविश्वास को लौटा सकता है, उनमें नयी जोश और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं तथा व्यक्ति के सहज सोच और चिंतन धारा और स्वास्थ्य  को बदल सकते हैं। सटीक तरीके से कहे गए प्रशंसा के बोल अक्सर जादुई असर करते हैं। 

गुरू शिष्य परंपरा में गुरू के द्वारा सैकड़ों शिष्यों में से चुने गए खास शिष्य को विशिष्ट मुद्रा और अवसर में यह कहना कि “आप ईश्वर के चुने हुए खास साहसी और आध्यात्मिक व्यक्ति हैं”, नये शिष्य को ह्रदय के अंदर तक प्रभावित करता है। ये शब्द शिष्य को खसम-खास होने का एहसास कराता है। उसे खास लक्षित विचार-खांचे में ढालने के लिए काफी होता है। किसी नये रंगरूट को सेना के बड़े अधिकारी जब यह कहता है कि “रंगरूट तुम्हें हमने नहीं चुना, बल्कि चार हजारों लोगों के बीच से तुम्हारी योग्यता ने ही तुम्हें चुना है।“ “तुम्हें ईश्वर ने सेना में अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान देने के लिए चुना है, तुम्हारा जन्म ही देश की सेवा करने के लिए हुआ है।“ इतना सुनने के बाद नये रंग-रूट की आत्मा सेना के प्रति नतमस्तक और समर्पित हो जाता है। व्यक्ति के दिल-दिमाग को लक्ष्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कराने में मनोविज्ञान युगों से सफल रहा है। 

“तुम्हे हजारों में चुना गया है”  या “तुम खुद ईश्वर के द्वारा चुने गए हो” आदि वाक्य विशेष प्लान और उद्देश्य के तहत बोला जाता है। नये रंगरूट यह सुन कर कुप्पा हो जाता है कि “उन्हें ही यहाँ प्रवेश करने की इजाज़त मिली है,” “दूसरे दो हजार अयोग्य लोगों को नहीं।“ यह वाक्य किसी को विशेष व्यक्ति या विशेष होने के मान सम्मान का एहसास कराने के लिए काफी होता है। किसी ग्रुप के सामान्य सदस्यों में से किसी विशेष सदस्य को बड़ी ज़िम्मेदारी देने या पदोन्नति देने के लिए भी ऐसे ही वाक्यों से व्यक्ति को प्रेरित किया जाता है। ऐसे शब्दों में बड़ी जादुई शक्ति होती हैं। यह व्यक्ति के दिमाग में जादू की फूलझड़ी बन कर आतीशबाजी करती हैं। ऐसे शब्द किसी नये बंदे के दिमाग से अवांछित चिंतन या सोच-शंका को बाहर निकालने और संगठन या संस्थान के प्रति नये समर्पित चिंतन या सोच को सिंचित करने का एक नयाब तरीका है। यह सब मनोविज्ञान के तहत व्यक्ति में परिवर्तन करने के लिए प्रयोग किया जाता है। किसी की योग्यता, क्षमता, विशेषता को नपे तुले शब्दों में विशेष परिस्थिति और अंदाज में व्यक्त करने से व्यक्ति की कार्य-क्षमता, योग्यता का न सिर्फ सम्मान होता है, बल्कि इससे उसके वैयक्तिक गुणों को मान्यता भी मिलता है। सम्मान और मान्यता व्यक्ति के गुणों को बढ़ाने में अधिकतर मामले में सफल होते हैं। गुणों को पुरस्कृत करने का सबसे बड़ा लक्ष्य यही होता है। किसी संगठन के युवाओं को प्रशिक्षित करने के क्रम में यह एक अनिवार्य तत्व के रूप में कार्य करता है।  

अक्सर नयी कमसीन दुल्हन को घर की अंत-रंग और विश्वासी सदस्या बनाने के लिए भी ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जब घर के अंदरूनी और महत्वपूर्ण प्रबंधन ढाँचे में नयी दुल्हन को शामिल करना होता है तो, घर के बड़े बुजुर्ग द्वारा उन्हें घर की चाबी के गुच्छे थमाया जाता है और उन्हें घर की मालकिन का पद दिया जाता है, ताकि वह समर्पित, उत्तरदायी, समझदार, विश्वासी बने और अपने को घर का अभिन्न हिस्सा समझे और तदनुसार उत्तरदायित्व का निर्वहन करे।

चाबी के गुच्छे किसी अल्हड़ कम-सीन युवती को घर के अभिभावक होने का एहसास कराता है और उनके असावधानी भरे बिनव्याही व्यवहार से उन्हें भावनात्मक रूप से अलग कर देता है। ज़िम्मेदारी की ऐसी भावना को द्विगुण करने के लिए  दामाद को ससुराल में घनिष्ठ सदस्य बनाने के लिए भी इसी तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। दामाद का ससुराल के साथ मानसिक और भावनात्मक संबंध बना कर लड़की के घर वाले बेटी की दाम्पात्य भविष्य को अधिक सुदृढ़ करते हैं। मनोविज्ञान का यह पहलू युगों से समाज में प्रयोग में लाया जाता रहा है।  

दुनिया के अनेक समाजों, संगठनों या सिक्रेट सोसायटियों में बाहरी सदस्यों को अंदरूनी सदस्य बनाने के लिए खास तरीके से पेय दिया जाता है या खास तरीके से खाना खिलाया जाता है या फिर उन्हें घर-संगठन के महत्वपूर्ण क़ागज़ात या संदूक या आभूषण या चाबी या पद थमाया जाता है या फिर घर के कनिष्ठों की देखभाल और कल्याण की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी जाती है। नई जिम्मेदारियाँ देते हुए मनोविज्ञान से रंजित वाक्यों का व्यवहार किया जाता है। ये सारे व्यवहार मनोविज्ञान के सिद्ध चाशनी से सने हुए होते हैं। 

धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या प्रशासनिक रूप से स्वीकृत ऐसे सैकड़ों संस्कार या परंपराएँ होती हैं, जो सदियों से कामयाब और उपयोगी सिद्ध हो चुकी रहती हैं। धार्मिक रूप से स्वीकृत परंपरा और विश्वास मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत प्रभावी होते हैं। बचपन में डाली गई धार्मिक आदतें व्यक्ति के जीवन से चाह कर भी सहज रूप से ज़ुदा नहीं होते हैं। जिन्हें धार्मिक रूप से अहले सुबह ब्रह्मा मुहुर्त में उठकर स्नान करने की आदत लगी होती है, वह आदत कालांतर में दिमाग के अंदरूनी भाग का अभिन्न हिस्सा बन जाती है और व्यक्ति किसी कारण-वश कभी अहले सुबह नहीं जाग कर स्नान नहीं कर पाता है, तो उनके दिमाग में इसके लिए पश्चाताप की भावना तक घर कर जाती है।

यदि कोई  बचपन से मंगलवार को किसी मंदिर विशेष में जाता है और किसी मंगलवार को वह उस मंदिर-विशेष में नहीं जा पाता है और उन्हें उन्ही देवता के किसी दूसरे मंदिर में जाना पड़ता है, तो भी उनके दिमाग में गहरे रूप से अंकित अपनी आदत के पूर्ण नहीं होने के लिए उनकी भावनाएँ कचोटती रहती है। पश्चाताप और कचोटने की भावना दिमाग के स्वास्थ्य कार्यप्रणाली में बस कर दिमागी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने लगता है। पाप-पुण्य के विचार भी इसी तरह दिमाग को प्रभावित करता है।  

आमतौर से आदत को लोग बहुत सामान्य ढंग से लेते हैं। लेकिन आदत जीवन की डोर को किसी खास लहज़े में बाँध कर उन्हें उन लहज़ों का ग़ुलाम बना देता है, इन बातों से वे अनजान होते हैं। कई लोग आदत की वजह से सभी से सभी व्यक्ति के सामने एक ही तरह से पेश आते हैं और सभी परिस्थितियों में भी एक ही तरीके से बात और व्यवहार करते हैं। जबकि हर परिस्थिति और स्थान किसी खास तरह के बातचीत और व्यवहार की प्रत्याशा करता है। घर और कार्यालय के बातचीत, बोलने के ढंग, भाषा, व्यवहार, उठने, बैठने, प्रत्युतर देने, कार्य करने के ढंग एक तरह से कभी नहीं हो सकते हैं। मनोविज्ञान का ज्ञान इन मामलों में बहुत मददगार साबित होता है।  

आदत हर आदमी को किसी खास तरीके से एक अलग व्यक्ति बनाता है। हर व्यक्ति खास होता है। हर व्यक्ति की सोच, आदत और व्यवहार किसी खास सांचे में ढली हुई होती है। कोई आदत व्यक्ति को फायदा पहुँचाता है, वहीं कोई आदत आदमी के लिए मुश्किलें भी लाता है। जल्दी उठना, जल्दी सोना, देर से जागना देर से सोना हर बार फ़ायदेमंद नहीं होते हैं। 

हर व्यक्ति, संस्थान या संगठन जीवन में आगे बढ़ना चाहता है। प्रगति की आकांक्षा जीवन सोच का मूल आधार  है। प्रगति, विकास और सुख की वृद्धि ही सारे संसार के कार्य-व्यवहार का लक्ष्य होता है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कुछ खास प्रकार के दक्षता, क्षमता, गुणों के साथ इन्हें प्राप्त करने लायक कार्यकारी योजना की जरूरत होती है। वांछित क्षमताओं, लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मनोवैज्ञानिक ज्ञान के सहारे खास तरह की आदत विकसित की जा सकती है, या प्लांट की जा सकती है, जो लम्बे काल में कार्य सिद्धि के लिए फ़ायदेमंद होते हैं। मनोविज्ञान ऐसी आदतों को त्यागने में सहायक होते हैं जो लाभदायक नहीं होते हैं।

पूरी जिंदगी व्यक्ति अपने मन के सहारे जीता है। यदि मन के विज्ञान से वह वाक़िफ़ हो जाए तो तन मन और जीवन-धन सभी का सभ्यक,  सुचारु और कारगर  प्रबंधन किया जा सकता है। नेह। 

                                                साभार- मणिकांचन ई पत्रिका, एमएमटीसी,  

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#Dooars_Terai_Wage_And_Land_Patta


नेह इंदवार

प्रश्न 1. अंधे को क्या चाहिए ? उत्तर – दो आँखें। प्रश्न 2. एक नेता को क्या चाहिए ? उत्तर – नेता बने रहने के लिए वोट चाहिए।


किसी के पास दो आँखें हैं, लेकिन वह किसी अंधे के दो आँखें मांगने पर उसे वह आँखे नहीं देता है। बल्कि वह अंधे के आँखों में काजल लगा देता है।


अंधे के बार-बार मांगने पर वह कभी उसे नया शर्ट पहना देता है, कभी उसके हाथों में अंगुठी पहना देता है, कभी वह अंधे को चप्पल पहना देता है, अधिक मांगने पर वह अधे को कोर्ट और पैंट पहना देता है और ऊपर से एक टाई भी पहना देता है। अंधे के और अधिक चिल्ला कर मांगने पर वह अंधे को एक आईना दे देता है।
जिनके पास दो आँखें हैं और जिसे लगाने पर अंधा सामान्य दृष्टि वाला बन जाएगा, वह आदमी अंधे को किसी भी तरह से आँखें नहीं देता है और दुनिया को बताते रहता है कि देखो मैं कितना दयावान हूँ, एक अंधे को शर्ट, अंगुठी, चप्पल, कोर्ट-पैंट-टाई, आईना देता हूँ और इसका देखभाल करता हूँ।


पश्चिम बंगाल राज्य सरकार के हाथों में अंधे (चाय मजदूरों) के लिए दो आँखें (न्यूनतम मजदूरी, आवास पट्टा) है। लेकिन वह उन्हें दो आँखें न दे कर कभी किसी के नाम पर छुट्टी दे देती है। पूरे देश और प्रदेश को मिलने वाला राशन दे देती है। बच्चों को साईकिल दे देती है, स्कूल में पढ़ने वाली बच्चियों को पैसे दे देती है। कभी कोई स्कूल दे देता है। कभी किसी जाति और समुदाय को कोई बोर्ड देकर कुछ पैसे दे देती है। .वह फालतू के अनेक चीजें देती है और कहती है देखो मैंने तुम्हारे लिए क्या-क्या सुविधा दे दे है। राशन, साईकिल, बच्चों को पैसे, पंचायत को आबंटन आदि देश के अधिकतर या सभी प्रदेशों में मिलते हैं, उसी तर्ज पर पश्चिम बंगाल सरकार भी देती है। .लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी कहती है मैंने तुम्हें अमका-ढिकाना दे दिया है इसलिए तुम मुझे अपना वोट दो। मजदूर कहता है कि सरकार मैं एक अंधा (गरीब, अनपढ़) हूँ, मुझे तुम दो आँखें (न्यूनतम मजदूरी और पट्टा) दे दो, मैं हमेशा के लिए तुम्हारा गुलाम बन जाऊँगा, लेकिन माँ-मनुष्य-माटी की यह सरकार किसी भी कीमत पर दोनों को देने के लिए राजी नहीं है। उनके मन में बागान मालिकों के लिए जितनी लगाव है, उसका एक तिनका भी चाय मजदूरों के लिए नहीं है। .सरकार मजदूरों को अंधा ही बनाए कर रखना चाहती है, क्योंकि मजदूरों को आँखे मिल जाएगी तो वह सामर्थवान हो जाएगें, उनका अपना मनपसंद और अपने आर्थिक सामर्थ से बनने वाला अपना घर और पुरखों का जमीन होगा, वे अपने बच्चों को अच्छी और ऊँची शिक्षा देने में समर्थ होंगे और वे उन्नति के शिखर पर पहुँच जाएँगे। ऐसे सामर्थवान मजदूर एक सामर्थवान भारतीय नागरिक बन जाएँगे, और वे चाय मालिकों के चंगुल से बच कर निकल जाएँगे और धाँगर (गुलामी) की जिंदगी से आजाद हो जाएँगे। उन्हें आजादी किसी भी कीमत पर नहीं देनी है, इसीलिए उन्हें अंधे ही बना रहना देना है।


अब मजदूर क्या करेंगे ? मजदूरों का भी अपना कर्तव्य होगा — वे नेताओं का खूब नाचते हुए स्वागत करेंगे, उनका जयजयकार करेंगे, उन्हें अपने साथ नृत्य कराएँगे, उन्हें फूल माला पहनाएँगे, उन्हें अपना घर और इलाके में बार-बार स्वागत करेंगे, नेता के मिटिंग में भारी संख्या में जाएँगे, उनका दिया हुआ मुर्गा भात खाएँगे, दारू पीएँगे, लेकिन कभी भी भूल कर भी अपना #अमूल्य_वोट_नहीं देंगे। जिस तरह सरकार दो आँखें नहीं देती है वैसे ही मजदूर भी अपना वोट नहीं देंगे।


जरा सोचिए ऐसे नेता का क्या होगा, जिन्हें कोई वोट ही नहीं देगा। उसकी नेतागिरी और सत्ता तो हाथ से निकल ही जाएगी।
लेन-देन तो बराबर की चीजों में होती है। सौ रूपये देकर 10 रूपये का सामान लेकर कौन लगातार बेवकूफ बनते रहेगा ? .यदि नेता को वोट चाहिए तो अंधे (मजदूर) को भी दो आँखें चाहिए।
यह एक सीधी सी बात है, इसे यदि कोई नेता न समझे तो समझ जाईए कि वह नेता वास्तविक रूप में बोका मनुष्य है।